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बढ़ती हिंदी के रूप अनेक

बाईस की उम्र तक मैं कलकत्ता (अब कोलकाता) में रहा। 1960 के दशक में उस शहर में, जहां बांग्लाभाषी लोग कभी हिंदी नहीं बोलते थे, अब बहुत बड़ा बदलाव दिखता है। मैं बांग्ला धारावाहिक आज भी देखता हूं। बीत गया...

बढ़ती हिंदी के रूप अनेक
प्रयाग शुक्ल, कवि और कला मर्मज्ञSun, 13 Sep 2020 09:25 PM
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बाईस की उम्र तक मैं कलकत्ता (अब कोलकाता) में रहा। 1960 के दशक में उस शहर में, जहां बांग्लाभाषी लोग कभी हिंदी नहीं बोलते थे, अब बहुत बड़ा बदलाव दिखता है। मैं बांग्ला धारावाहिक आज भी देखता हूं। बीत गया वह दौर, जब बांग्लाभाषी घरों, कार्यक्रमों में हिंदी के प्रयोग को अच्छा नहीं माना जाता था। आज स्थिति यह हो गई है कि कोई धारावाहिक ऐसा नहीं बनता, जिसमें किसी हिंदी फिल्म का कोई गीत न हो या जिसमें हिंदी में कोई संवाद न हो। यह विगत दशकों में हुआ सुखद बदलाव है। सभी समझ रहे हैं कि अब हिंदी के बिना काम नहीं चलने वाला। 
हमें पूरी विनम्रता के साथ यह ध्यान रखना होगा कि साहित्य की भाषा तो समाज की भाषा से थोड़ी अलग ही रहेगी। मैं जब 1960 दशक में हैदराबाद में कल्पना पत्रिका में काम करता था, तब कल्पना  में अनेक प्रदेशों के बड़े-बडे़ लेखक छपते थे। मुक्तिबोध, अज्ञेय लिखते थे, सोबती जी भी लिखती थीं। कल्पना  की भाषा का अपना स्तर था, लेकिन आम भारतीय समाज में भाषा का अलग-अलग स्तर और स्वरूप हमेशा से है। जैसे, जब मैं हैदराबाद आ गया, तब वहां दक्खिनी हिंदी हमेशा से चलती रही है। ‘किताबां’, ‘बाजारां’, तो वहां आज भी ऐसे ही बोलते हैं। मैं बंगाल से गया था, दक्खिनी हिंदी मेरे लिए खुद ही अचरज थी। 
अपने पूरे देश में मैंने देखा है कि अलग-अलग प्रदेशों में हिंदी की स्थिति बहुत अलग-अलग है। आज से 15 साल पहले की बात है। अरुणाचल प्रदेश में चाय के लिए निकला, तो देखा कि महिलाएं पान की भी दुकान चलाती हैं। सब हिंदी बोल रही हैं। ध्यान आया कि इनके यहां तो कई बोलियां थीं, जिसके कारण यहां के लोग आपस में ही बात नहीं कर पाते थे, तो इन्होंने हिंदी को अपना लिया। मणिपुर जाता हूं, तो पाता हूं कि वहां बोलने का ढंग अलग है। इस ओर हमारा ध्यान जरूर जाना चाहिए, लेकिन जाता नहीं है कि हिंदी के कितने रूप बन रहे हैं! 
हम जानते हैं, दक्षिण के लोग हिंदी कैसे बोलते थे, हम उनकी नकल भी उतारते थे, लेकिन वह दुनिया बदल चुकी है। यह हास्य-व्यंग्य की चीज नहीं रह गई है। अब केरल जाइए, लड़कियां हिंदी इतने प्रेम से बोलती हैं कि लगता है, हमें इन्हीं की तरह हिंदी बोलनी चाहिए। अहिंदीभाषियों के मुंह से हिंदी सुनना बहुत अच्छा लगता है और जरूरी है, उन्हें और प्रोत्साहित किया जाए। 
आज शांति निकेतन के हिंदी विभाग में पचास प्रतिशत लड़के-लड़कियां बांग्लाभाषी हैं। हमारा ध्यान जाना चाहिए कि अहिंदीभाषी प्रदेशों में कितने लोग हिंदी पढ़ रहे हैं। यह मेरे लिए भी अचरज था, जब शांति निकेतन में सुबह टहलने निकला, तो एक लड़की सामने आ गई कि सर, मैं सुमित्रानंदन पंत पर शोध कर रही हूं, मुझे कुछ बता दीजिए। उसी बांग्लाभाषी लड़की ने मुझे बताया कि अहिंदीभाषी युवा कैसे चाव से हिंदी सीख रहे हैं। हिंदी की स्थिति आज इतनी विविध है कि उसका आकलन आसानी से नहीं किया जा सकता। बोलने के अर्थ में हिंदी का बहुत विस्तार हुआ है, और इसका एक बड़ा कारण मैं महिलाओं को मानता हूं। जब अंग्रेजों का जमाना था, तब केवल रेलवे और पोस्ट ऑफिस में तबादले होते थे, बाद में हर विभाग में होने लगे। निजी क्षेत्र के उद्यमों के भी कार्यालय खूब खुल गए। आप सोचिए, कोई महिला किसी नए प्रदेश में सब्जी लाने जाती है, तो किस भाषा में बात करेगी? मिसाल के लिए, एक मलयाली महिला है, उसे अंग्रेजी आती है, वह गुवाहाटी पहुंच जाए, लेकिन वहां की सब्जी वाली को तो अंग्रेजी नहीं आती, तो उसे हिंदी में ही बोलना पडे़गा। 
हिंदी के अनेक उज्ज्वल पक्ष हैं, जो हमारी बहस से नदारद रहते हैं। आज गर्व है, मैं हिंदी का लेखक हूं। जब पेंशन नहीं, बचत नहीं, तब भी हिंदी का हूं, इसीलिए जी पा रहा हूं। अंग्रेजी ने मुझे कभी आतंकित नहीं किया। एक समय था, जब लगता था कि यह हो क्या रहा है। एक जमाने में एलीट वर्ग था, अब वह मिथक टूट गया है। कभी उनके बैठकखाने में हिंदी बोलने वालों का प्रवेश नहीं था। मुझे भी धीरे-धीरे प्रवेश मिला। जब एलीट समाज को लगने लगा कि ये हिंदी वाले भी बराबर से पढ़ते-देखते हैं, हमारी तरह ही फिल्में देखते हैं, तो उन्होंने मानना शुरू किया। हिंदी लेखकों से मेरा कहना है कि भाई, अपनी दुनिया आपको खुद बड़ी करनी पड़ेगी। नहीं तो कोई आपको क्यों मानेगा? आप अच्छा नहीं लिखोगे, तो खाली रोने से कैसे चलेगा? 
एक घटना है, एक बडे़ चित्रकार की प्रदर्शनी लगी थी। जिसके शीर्षक के बारे में मैंने लिखा कि इसी नाम की लुई बुनुएल की एक अंग्रेजी फिल्म है, तो वह चौंक गए- आपने डिस्क्रीट चार्म ऑफ बोजुआली (1972) देख रखी है! अनेक चित्रकार हैं, जिन्हें अंग्रेजी नहीं आती, लेकिन आज अंग्रेजी में लिखने वाले लोग उन पर कलम चलाने को मजबूर हैं। समय बदल गया, अब सब कुछ उपलब्ध है। तमाम किताबें, यू ट्यूब इत्यादि पर इतने चित्र, चलचित्र मौजूद हैं कि अब पहले की तरह आतंक नहीं चल सकता। 
हिंदी की ताकत बढ़ रही है। जब रतन थियम संगीत नाटक अकादमी के वाइस चेयरमैन बने, तब उन्होंने मुझे बुलाया और कहा, हमारी पत्रिका निकाल दीजिए, साठ साल से कोई पत्रिका नहीं है। मुझे हिंदी के लिए गर्व है कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की पत्रिका निकाली, संगीत नाटक अकादमी की पत्रिका निकाली, ललित कला अकादमी की पत्रिका निकाली, यह कैसे संभव हुआ? हमारे पीछे कौन लोग खड़े थे? हमारे पीछे अज्ञेय खड़े थे, निर्मल वर्मा, मनोहर श्याम जोशी खड़े थे, तमाम वे लेखक खड़े थे, जिन्होंने हिंदी की दुनिया को बड़ा किया। उनकी मेहनत ही हमारे काम आई और आ रही है। हमें सोचना होगा कि देश ने अज्ञेय को क्यों बड़ा लेखक माना, खाली हिंदी में लिखते थे, इसलिए नहीं। अज्ञेय और हिंदी के अन्य बड़े लेखकों ने दूसरी तमाम भाषाओं और उनके लेखकों से संबंध बनाए, जिससे हिंदी मजबूत हुई। विदेश में भी मैंने देखा है, हिंदी पर खूब काम हो रहा है। बीसियों लोग विदेश में हिंदी के लिए काम कर रहे हैं। 
1960 के दशक यानी मेरे युवा दिनों में हिंदी इतनी बड़ी भाषा नहीं थी। एक ही उदाहरण ले लीजिए, अब देश में रोज लाखों प्रतियों में हिंदी अखबार बिक रहे हैं। वैसे हर भाषा अपने आप में बड़ी होती है, लेकिन आज संपर्क भाषा के रूप में हिंदी सबसे बड़ी हो गई है। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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