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जो रोशनी आगे हमें ले जाएगी

दीपावली श्री का उत्सव है, मानव जिजीविषा का पर्व है, उजास का जलसा है, उम्मीदों का त्योहार है। वैसे त्योहार कोई भी हो, उसे मनाने वाला कोई भी हो, उससे जुड़ी कथाएं, किंवदंतियां और मिथक कुछ भी हों, सारे...

जो रोशनी आगे हमें ले जाएगी
कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकारFri, 13 Nov 2020 11:00 PM
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दीपावली श्री का उत्सव है, मानव जिजीविषा का पर्व है, उजास का जलसा है, उम्मीदों का त्योहार है। वैसे त्योहार कोई भी हो, उसे मनाने वाला कोई भी हो, उससे जुड़ी कथाएं, किंवदंतियां और मिथक कुछ भी हों, सारे त्योहार हम मनुष्यों की सत्तर हजार साल की यात्रा के उस महाकाव्य के छंद हैं, जिनमें हमारी सभ्यता के विकास का संगीत है, सामूहिकता की लय है, नए-नए सपनों में रंग भरने की अनंत पीढ़ियों की गाथाएं हैं, जिनकी वजह से आज हम यहां पहुंच सके हैं।
जरा सोचिए, ऐसा क्यों है कि मनुष्य के अलावा दुनिया के किसी और प्राणी के पास अपने त्योहार नहीं हैं? आप कहेंगे कि उनका मनुष्यों जैसा विकास नहीं हुआ? शायद श्रीयुत होने का बोध, अपने आपको लगातार समृद्ध, संपन्न करते रहना उनके वैचारिक संसार से बाहर की चीजें हैं। धन-धान्य से, कौशल, ज्ञान और चिन्तन से संपन्न होने का बोध केवल मनुष्यों में जन्मा, जिसने पाषाणयुगीन मनुष्य को भी चलते-बढ़ते हुए इंटरनेट युग की वर्चुअल दुनिया का वासी बना दिया। और दीपावली मनुष्य के इसी श्रीयुत होने का उत्सव है। यह श्री की कामना है, श्री की पूजा है। यह श्री क्या है? श्री यानी समृद्धि, केवल रुपये-पैसे या धन-संपदा की नहीं, बल्कि ज्ञान, विज्ञान, तकनीक, कौशल, साहित्य, चिंतन और दर्शन की समृद्धि। आचार-विचार में जो कुछ भी शिव हो, सुन्दर हो, उसकी समृद्धि। अगर हमने ये समृद्धि न हासिल की होती, तो क्या आज हमारा संसार, हमारी सभ्यता प्रगति के इस शिखर पर होती? दीपावली मनाने का असली अर्थ इसी समृद्धि को पाना है और यही हमारे हजारों साल के इतिहास का निचोड़ है।
जबसे मनुष्य ने चलना शुरू किया है, आज तक एक भी ऐसा उदाहरण नहीं कि किसी भी नकारात्मक विचार से संसार में किसी राज्य या समाज की बात तो छोड़िए, किसी एक व्यक्ति का भी भला हो गया हो। आत्मघात के सिवा नकारात्मकता का और कोई नतीजा संभव ही नहीं है। और अगर आप यथास्थितिवादी हो जाएं, यानी जैसा चल रहा है, वैसा चलने दें, तो? तब भी यकीनन आप अच्छे परिणाम की तरफ  नहीं बढ़ेंगे। अपने पुरखों के अनुभवों से कुछ सीखिए। करीब एक लाख साल पहले दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में हम मनुष्यों जैसी कुल छह प्रजातियां विचरती थीं, लेकिन उनमें से केवल एक हमारी मानव प्रजाति ही बची। वजह शायद यही रही होगी कि बाकी पांच में बदलाव, समृद्ध और संपन्न होने की वैसी उत्कट अभिलाषा न रही हो, जैसी हमारी मनुष्य प्रजाति में उपजी। मतलब यह कि यथास्थितिवादी होना धीरे-धीरे जड़ होकर समाप्त हो जाना है।
हम क्यों आगे बढ़े? यहां तक कैसे पहुंचे? हमारी पहली अर्थव्यवस्था की शुरुआत कैसे हुई? हमारी पहली राजनीतिक व्यवस्था की शुरुआत कैसे हुई और हमारे त्योहारों ने कैसे आकार लिया, कैसे परंपराएं जन्मीं, कैसे धार्मिक विचार और व्यवस्था की शुरुआत हुई, और इन सबका आपस में एक-दूसरे से कैसा नाता है?
इस सच की तरफ आपका ध्यान शायद ही जाता हो कि मानव जाति के विकास का सिलसिला सिर्फ और सिर्फ खेती से शुरू हुआ। चिंता भोजन की व्यवस्था से शुरू हुई थी, जिसने आगे चलकर तरह-तरह के कौशल, तकनीक, ज्ञान-विज्ञान और राजनीतिक-आर्थिक-धार्मिक व्यवस्था को जन्म दे दिया। कैसे? इजरायली इतिहासकार युवाल नोआ हरारी अपनी मशहूर किताब सेपियन्स  में लिखते हैं कि खेती शुरू हुई, तो खेतों में काम करने और फसलों व अन्न भंडारों की रक्षा के लिए लोगों की जरूरत पड़ी। जुताई-कटाई के उपकरणों को बनाने का यत्न हुआ। फिर फसल पैदा हो गई, तो उसके संग्रह, दूसरों के साथ उसके लेन-देन की व्यवस्था की जरूरत हुई। जैसे-जैसे मनुष्यों का कोई समूह अपनी खेती के क्षेत्रफल का विस्तार करता गया, वैसे-वैसे उसकी देखभाल, हिसाब-किताब के लिए एक औपचारिक व्यवस्था शुरू हुई। टैक्स वसूली की जरूरत पड़ी और हिसाब-किताब का रिकॉर्ड रखने के लिए लिपि की। इस तरह लिखे जाने की शुरुआत हुई। देखा आपने, कैसे खेती की शुरुआत ने मनुष्य प्रजाति को एक व्यवस्थित आर्थिक-राजनीतिक ढांचा अपनाने के लिए मजबूर कर हमारी विकास यात्रा को जन्म दिया।
लेकिन इसका त्योहारों से क्या लेना-देना? जब खेती शुरू हुई, तो मौसम चक्र और कैलेंडर की जरूरत पड़ी। चाहे हड़प्पा सभ्यता हो, सुमेर सभ्यता हो या मिस्र की, दुनिया की सारी प्राचीनतम सभ्यताओं में शुरुआती देवता चांद-सूरज ही रहे, क्योंकि उनकी गतियों से ही पता चलता था कि कितने दिन बाद जाड़ा आएगा और कब गरमी शुरू होगी। इसलिए फसल बोने और कटने के पहले इन देवताओं के आह्वान के उत्सव की शुरुआत हुई। ये दुनिया के शुरुआती त्योहार थे, जो समृद्धि की प्रेरणा जगाते थे। यहीं से धीरे-धीरे धर्म और परंपराएं विकसित हुईं, बढ़ीं और फैलीं। जैसे-जैसे सभ्यताएं बढ़ीं, त्योहारों के रंग-रूप भी बदले। लेकिन सारे त्योहारों का उद्देश्य एक ही रहा कि नव-संकल्प, उमंग, आशा और अनुशासन से लैस मनुष्यों की सामूहिक चेतना अपने लक्षित वैभवों की तरफ  बढ़ती रहे। इसी क्रम में नए-नए धर्म जन्मे और नए-नए विवाद भी। धर्मों के बीच उपजी नकारात्मकता का समाधान आज नहीं, तो कल हम सबको खोजना ही होगा। धर्म अगर नकारात्मकता रोपेंगे, तो समृद्धि को सींचने के लिए बनाए गए त्योहारों का प्रयोजन ही नहीं बचेगा।
बेशक, हम सबको जीने के लिए रोशनी चाहिए ही चाहिए और रोशनी को हम बांध नहीं सकते। वह फैलती है, यही उसका धर्म है। रोशनी के हजारों रंग होते हैं। क्या रोशनी या धूप के किसी एक रंग को निकाल कर हटाया जा सकता है? यही विविधता संसार, प्रकृति और जीवन की अनिवार्यता है। घरों को रोशन कीजिए और दिलों को भी। दिलों में अंधेरा रह गया, तो वहां बाहर की सारी चकाचौंध गुम हो जाएगी। याद रखिए, त्योहार सामूहिक चेतना जगाने के मंत्र हैं। 
दीपावली इसीलिए दुनिया के बाकी तमाम त्योहारों से अलग है, क्योंकि यह हमें प्रेरित करती है कि हम समृद्धि पाने और फैलाने के लिए जतन करें। जो कुछ भी कचरा है, घर का, मन का, उसे झाड़ें-बुहारें। अतीत हमेशा सीखने के लिए होता है, वर्तमान में घसीट कर लाने के लिए नहीं। दुनिया ने अगर अतीत में रहने का विकल्प चुना होता, तो हम भी शायद बाकी की पांच मानव प्रजातियों की तरह विलुप्त हो गए होते! हमारी जिजीविषा और अपने भविष्य-निर्माण की सतत चाह ही हमारी सबसे बड़ी ताकत है। दीपावली भविष्य को उज्ज्वल बनाने की आकांक्षाओं का उत्सव है। यह अपने वैभव के प्रदर्शन का नहीं, समाज को वैभवशाली बनाने का अनुष्ठान है। आइए, हम सब इस अनुष्ठान में शामिल हों। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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