Hindi Newsओपिनियन hindustan opinion column 13 july 2021
इस विदाई पर कोई रोए या हंसे

इस विदाई पर कोई रोए या हंसे

संक्षेप: अफगानिस्तान से अमेरिका जा रहा है। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि एक बार फिर से जा रहा है। पिछले कई वर्षों से यह तो स्पष्ट हो गया था कि उसका जाना तय है, पर वापसी का समय किसी को मालूम नहीं था, यहां तक कि...

Mon, 12 July 2021 10:50 PMNaman Dixit विभूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिकारी,
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अफगानिस्तान से अमेरिका जा रहा है। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि एक बार फिर से जा रहा है। पिछले कई वर्षों से यह तो स्पष्ट हो गया था कि उसका जाना तय है, पर वापसी का समय किसी को मालूम नहीं था, यहां तक कि अमेरिकी राष्ट्रपतियों को भी नहीं। बुश से लेकर ट्रंप तक कोई नीति-नियामक नहीं जानता था कि वह कैसे और कब उस दलदल से निकलेगा, जिसमें सोवियत रूस को फंसाने के चक्कर में उसने खुद को आकंठ धंसा लिया है? जो बाइडन ने तो अपने को समय की तेज धार में आंख मूंदकर छोड़ दिया था। अब देखना यह है कि जिस तेज बहाव ने अमेरिका को अफगानिस्तान से बाहर निकाल फेंका है, वह उसे अपने पैरों पर मजबूती से जमीन पर खड़ा होने का मौका कब तक देगा?
अफगानिस्तान अपनी भू-राजनीतिक स्थिति के कारण सैकड़ों वर्षों से महाशक्तियों की दिलचस्पी का क्षेत्र रहा है। 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश और रूसी साम्राज्य के हित यहां टकराए, तो 20वीं शताब्दी ने अमेरिकी कूटनीति के जाल में सोवियत रूस को इसकी पहाड़ियों पर फंसते और अपमानित होते देखा है। यह विडंबना है कि आज जब खरबों डॉलर और सैकड़ों जानों का नुकसान उठाकर अमेरिका सिर झुकाए रणभूमि से बाहर जा रहा है, तब उसके धुर विरोधी भी नहीं समझ पा रहे हैं कि उन्हें तालियां बजानी चाहिए या वे चिंता से सिर झुका लें।
भारत की परेशानी समझ में आ सकती है। पिछले दो दशकों में उसने जो बड़ा निवेश अफगानिस्तान में किया था, वह तालिबान के आते ही बेकार हो जाएगा। अमेरिकी सैनिकों की विदाई के 10 दिन के भीतर उसे कंधार का वाणिज्य दूतावास बंद करना पड़ा है। दावा तो 80 फीसदी भूभाग का है, पर इसमें कोई शक नहीं कि आधी से अधिक धरती पर तालिबान कब्जा कर चुके हैं। रूस, चीन व ईरान, जो पारंपरिक रूप से अमेरिका विरोधी हैं, उनके माथे पर भी झुर्रियां दिख रही हैं। कबीलों में बंटे अफगानी समाज में कोई भी इस आशंका से प्रसन्न नहीं है कि सारी ताकत इस्लाम का अतिवादी भाष्य करने वाले सुन्नी पश्तूनों के हाथ में आ जाएगी। अफगान धरती में छिपे खनिज और मध्य एशिया से व्यापार की कुंजी कोई खोना नहीं चाहता। कह सभी रहे थे, पर अंदर से चाहता कोई नहीं था कि बिना सारे मसले हल किए अमेरिका चला जाए।
जिसे सबसे अधिक खुश होना चाहिए था, वह पाकिस्तान भी कम परेशान नहीं है। यह दीवार पर लिखी इबारत की तरह स्पष्ट है कि चंद महीनों में इतिहास अपने को दोहराएगा और काबुल पर फिर तालिबान का कब्जा हो जाएगा। सब कुछ पुरानी पटकथा की ही तरह हो रहा है। एक के बाद एक इलाके आसानी से सरकारी नियंत्रण से निकलते जा रहे हैं, सरकारी सैनिकों की बड़ी संख्या या तो बिना लडे़ समर्पण कर दे रही है या फिर भागकर पड़ोसी देशों में शरण ले रही है। अपनी निर्मिति तालिबान की विजय पर तो पाकिस्तान को खुश होना चाहिए, फिर उसकी परेशानी का सबब क्या हो सकता है?
कुछ दिनों पहले इस्लामाबाद सिक्युरिटी डायलॉग में बोलते हुए पाक सेनाध्यक्ष जनरल कमर जावेद बाजवा ने पहली बार कहा कि काबुल में युद्धरत सभी पक्षों का प्रतिनिधित्व करने वाली सरकार बने। यह पहली बार हो रहा था कि पाकिस्तान तालिबान के अलावा दूसरे गुटों को भी सत्ता में भागीदारी देने की बात कर रहा था। यह भी पहली बार ही है कि सेना इस तरह का रुख अपना रही है। पिछली बार जब तालिबान कंधार या काबुल को घेर रहे थे, तब पाक सेना की टुकड़ियां उनके साथ थीं। इस बार उन्हें सिर्फ संसाधनों की मदद मिली। लगता है, इमरान खान के नेतृत्व वाला नागरिक प्रशासन दिग्भ्रमित है। नीतियों के स्तर पर मतभेद के बावजूद सैनिक और असैनिक, दोनों नेतृत्व यह तो समझ ही चुके हैं कि एक बार अफगानिस्तान में फारिग होने के बाद तालिबान का ध्यान पाकिस्तान पर जाएगा। पिछली बार की तरह ही वे अपने देश में अपनी समझ का इस्लामी निजाम-नाफिज करने के बाद पड़ोस में भी शरिया लागू कराने आ जाएंगे। पिछला अनुभव बताता है कि हजारों नागरिकों के कत्ल और अरबों रुपयों के संसाधनों की बर्बादी के बाद ही देश उस मध्ययुगीन बर्बर जीवन पद्धति से बच सका, जिसमें तालिबान उसे धकेल देना चाहते थे। वही खतरा फिर मंडरा रहा है, शायद इसीलिए बार-बार अमेरिका की हार की भविष्यवाणी करने वाले पाकिस्तानियों को समझ नहीं आ रहा कि वे उसकी विदाई के मौके पर हंसे या रोएं?
काबुल में तालिबान सरकार एक से अधिक अर्थों में भारत को प्रभावित करेगी। अफगानिस्तान के अंदर पिछले दो दशकों का निवेश इस अर्थ में तो प्रासंगिक रहेगा कि उसने आम अफगानियों के मन में भारत की सकारात्मक छवि बनाई है, पर अब वहां किसी बड़ी वाणिज्यिक परियोजना की परिकल्पना निकट भविष्य में संभव नहीं लगती। यहां तक कि चाबहार बंदरगाह की सफलता भी संदिग्ध हो गई है। इससे ज्यादा चिंताजनक वह आशंका है, जिसके अंतर्गत अफगानिस्तान में खाली होते ही जेहादियों के कश्मीर का रुख करने का अनुमान है। पाकिस्तान इसीलिए उन्हें पालता-पोसता रहा है। मुझे याद है 1990 का दशक, जब एशिया व अफ्रीका के तमाम मुल्कों के जेहादी घाटी में दिखने लगे थे। वे बोस्निया, चेचन्या और अफगानिस्तान के गृह युद्धों से तपकर निकले लड़ाके थे, जिन्होंने भारतीय सुरक्षा बलों के लिए कड़ी चुनौती पेश की थी। वे एक बार फिर खाली हो रहे हैं और आईएसआई उन्हें उनके मनपसंद काम में लगाने के लिए शीघ्रातिशीघ्र कश्मीर रवाना करना चाहेगी। गनीमत यह है कि लड़ाकुओं का एक बड़ा तबका, जो आईएसआई के असर में नहीं है, पाकिस्तान में इस्लामी शरिया लागू करने के लिए जेहाद करना चाहेगा। शायद इसीलिए पाकिस्तानी तंत्र पिछले उत्साह की तरह तालीबानी फतह का स्वागत करने से गुरेज कर रहा है।
अमेरिकी फौज के लौटने के बाद विश्व को औरतों, शिया और हाशिए पर स्थित दूसरे वर्गों के मानवाधिकारों के वैसे ही उल्लंघनों के लिए तैयार रहना चाहिए, जैसे उनके पहले शासनकाल में दिखे थे। शायद यही कारण है कि अमेरिका की उपस्थिति के धुर विरोधी भी यह समझ नहीं पा रहे हैं कि वे मनचाही मुराद पूरी होने के बाद खुशी कैसे व्यक्त करें?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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