मन की मुंडेर पर एक दीया रख दो
हम अंधेरे से लड़ते थे। हमारे लिए दिवाली का मतलब यही था। आप अगर पहाड़ में रहते हैं, तो आपको एहसास होगा, वहां अंधेरा भी बड़ा गहन होता है। हम लोगों की कोशिश होती थी, दीये जलाकर इस गहन अंधकार को प्रकाशमय...

पहाड़ का रहने वाला हूं। प्रकृति की गोद में पला-बढ़ा हूं, तो हमारे लिए दिवाली का मतलब होता था दीया। हम मन की मुंडेर पर एक दीया रखते थे। हमको जहां भी अंधेरा दिखता था, वहां दीया जला देते थे, तो इस तरह हम सांकेतिक रूप से अंधेरे से लड़ते थे। हमारे लिए दिवाली का मतलब यही था। आप अगर पहाड़ में रहते हैं, तो आपको एहसास होगा, वहां अंधेरा भी बड़ा गहन होता है। हम लोगों की कोशिश होती थी, दीये जलाकर इस गहन अंधकार को प्रकाशमय करने की। मुझे इस वक्त याद आ रही है, पहाड़ पर अपने बचपन की दिवाली। उन दिनों की दिवाली का एक एहसास सा जग रहा है। ये सारी बातें मैं उसी भावलोक में जाकर कर रहा हूं।
अभी क्या है कि आर्टिफिशियल लाइट्स बहुत ज्यादा हो गई हैं। एक चकाचौंध सी है। यह मैं शहरों और महानगरों की बात कर रहा हूं। हम लोगों के दौर में क्या था कि हमारा अंधकार से एक युद्ध सा रहता था। उस दौर में समाज में बाजारवाद की इतनी गहरी पैठ नहीं थी। तब बाजारवाद उस स्तर पर नहीं था कि समाज में उसने व्यक्ति की नकली जरूरतें बना दी हों। तब सादगी का साम्राज्य था। सादगी में ग्लैमर था। सादगी की चकाचौंध थी। अब तो इतनी नकली जरूरतें खड़ी हो गई हैं कि आदमी असली जरूरतों को छोड़कर नकली जरूरतों की ओर पहले आकृष्ट होने लगा है। इसका नतीजा यह है कि उन नकली जरूरतों को पूरा करने की होड़ में एक उम्र निकल जाती है। हाथ कुछ नहीं आता, मन की खुशी छिन जाती है। बहुत सारे लोग उस आय वर्ग में भी नहीं हैं कि उन नकली जरूरतों को पूरा कर सकें, पर बाजारवाद और उपभोक्तावाद ने उन्हें उस होड़ में डाल दिया है कि वे किसी भी कीमत पर उन चीजों को हासिल करने के लिए जुट जाएं।
अब इसका सबसे बड़ा नुकसान क्या होता है कि आपका समाजी ढांचा बिगड़ता है। उसमें अनैतिकता बढ़ती है, आचरण की शुचिता खत्म होती है। चीजों को पा लेने के लिए आप नैतिकता की सारी सीमाएं लांघ जाते हैं और उससे भ्रष्टाचार बढ़ता है। चीजें तो येन-केन-प्रकारेण आप हासिल कर लेते हैं, पर उन्हें हासिल करके भी जो मन की असली खुशी होती है, जिसे हम आत्मिक आनंद कहते हैं, वह नहीं मिलता। ऐसे में, रोजमर्रा की जिंदगी भी बोझिल हो जाती है। जब रोजमर्रा की जिंदगी बोझिल हो जाए, तब भला किसी उत्सव में क्या आनंद मिलेगा? क्या दिवाली और क्या होली, सब फीके हो जाते हैं। आज यही स्थिति है। बाजारवाद ने सब कुछ निगल लिया है। आपके जीवन के सारे कार्य-व्यापार को बाजारवाद ने अपने कब्जे में ले लिया है, तो कहां मिलेगा जीवन का सच्चा आनंद? दिवाली तो मन का उत्सव है। मन खुश है, तो हर दिन दिवाली है। अगर मन खुश नहीं है, तो फिर दिवाली से खुशी कहां मिलेगी? सामान खुशी नहीं देते। सामान में जीवन का आनंद नहीं है। जीवन का असली आनंद कहीं और है। आज बाजारवाद कहें या उपभोक्तावाद, उसने हर आनंद को लील लिया है। हर चीज बाजारू हो गई है। जब चीजें बाजारू हो जाती हैं, तो उनमें वह आनंद नहीं रहता। आज यही हो रहा है। सब कुछ है, पर कुछ नहीं है। बाहर दिवाली है, पर मन का सूनापन जाता नहीं है। आज व्यक्ति का मन उजाड़ है। वहां अंधेरा है। मन में अंधेरा हो, तो बाहर के उजाले बहुत देर तक साथ नहीं देते। एक गीत भी है, बाहर तो उजाला है, मगर दिल में अंधेरा, तो दिवाली पर मन के अंधेरों को दूर करना है। ध्यान रहे, बाहर का अंधेरा छंट भी जाए, तो मन का अंधेरा नहीं छंटता। आज हम बदलते वक्त की ऐसी दहलीज पर खड़े हैं, जहां बहुत से लोगों के मन का अंधेरा बढ़ता ही जा रहा है, तो सबसे पहले इसे दूर करने की जरूरत है।
पहले क्या था कि तब हम लोग बहुत सीमित साधनों के साथ जीते थे। पहाड़ों से जो लोग बिखरे से रहते थे, दिवाली में वे सब अपने-अपने पैतृक घर चले जाते थे, इसलिए कि दिवाली का त्योहार सब साथ मिलकर मनाएं। पहले साथ मिलकर दिवाली मनाने या सामूहिकता में दिवाली मनाने की जो परंपरा थी, वह अब बहुत जगह खत्म-सी हो गई है। हमारे आसपास अब बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जो स्वयं तक सिमटकर रह गए हैं। पहले क्या था कि काफी दिन पहले ही यह तय हो जाता था, इस बार सब लोग नानी के घर जाएंगे और सब साथ मिलकर दिवाली मनाएंगे। लक्ष्मी पूजन साथ मिलकर करेंगे। मगर अब व्यक्तिवाद काफी बढ़ गया है। लोग ज्यादातर अकेले ही त्योहारों को किसी तरह मनाने लगे हैं। संयुक्त परिवार कम बचे हैं, ज्यादातर परिवार छोटे-छोटे हो गए हैं। जब संयुक्त परिवार थे, तब हम केवल दिवाली ही नहीं, हरेक त्योहार ही मिल-जुलकर मनाते थे। अब तो हालत यह है कि व्यक्ति महानगर में रहता है। उसे यह भी नहीं मालूम कि उसकी बगल में या पड़ोस में कौन रहता है और उसे जानने-पहचानने की जरूरत भी अब महसूस नहीं होती है। ज्यादातर लोगों के जीवन में पड़ोसियों की कोई भूमिका शेष नहीं है। अब अपने किसी पड़ोसी से मिलकर चौंकने लगे हैं लोग कि अरे, ये तो हमारे ही पड़ोस में रहता है।
ऐसे में, उपभोक्तावाद कहिए या बाजारवाद, नाना प्रकार के उत्पादों के प्रति लोगों का आकर्षण बहुत बढ़ गया है। मैं यह कतई नहीं कह रहा कि आप दिवाली पर कोई नई चीज न खरीदें। आपकी जरूरत है, तो आप कार खरीदें या कोई अन्य दूसरी चीज खरीदें, मगर जहां आप रहते हैं, वहां तो मिल-जुलकर रहें। कम से कम दिवाली के दिन तो एक-दूसरे को खील-बताशे, मिठाइयां, उपहार बांटें। दिवाली के बहाने ही सही, आप साथ तो आएं। साथ किसी पर्व को मनाने का क्या आनंद होता है, उसे महसूस तो करें।
मैं अब मुंबई में रहता हूं, तो अब कई लोगों को इस बात का एहसास होने लगा है। लोग परिवारों से दूर रहते हैं, तो सोसायटियों में अब समझदार लोग भी आ रहे हैं। ऊंची इमारतों में रहने वाले लोगों से बनी सोसाइटीज एक तरह से परिवार ही हैं। दिवाली पर आयोजन होने लगे हैं, आयोजक आगे बढ़कर बच्चों को इकट्ठा कर लेते हैं। सारे बच्चे एक साथ मिलकर फुलझड़ियां जलाते हैं। परिवार साथ मिलकर दिवाली मनाते हैं। वैसे भी, भारत में दिवाली अलग-अलग तरह से मनाई जाती है। मुंबई की सोसायटियों में बिहार के लोग भी हैं, उत्तर प्रदेश, झारखंड और उत्तराखंड के भी लोग हैं, तो सब मिलकर दिवाली मनाने लगे हैं। जहां भी प्रयास हो रहे हैं कि कुछ पुरानी चीजों, परंपराओं को बचाए रखा जाए। वहां लोगों को बहुत अच्छा लगने लगा है।
सभी लोग अपने-अपने पकवान लेकर एक जगह जुटते हैं और त्योहार का आनंद लेते हैं। वैसे भी, मूल रूप से मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज से कटकर उसका कोई अस्तित्व कहां है? आप कल्पना कीजिए, महानगर के एक घर की बालकनी की, जहां एक अकेला बच्चा फुलझड़ी जला रहा है। यह कितना दुखद चित्र है। मैं समझता हूं कि शहरीकरण में जीवन का स्तर उन्नत जरूर हुआ है, मगर व्यक्ति का व्यक्ति से भावनात्मक जुड़ाव काफी कम हो गया है। इसलिए, समाज के ताने-बाने को बचाने की जरूरत है। लोग अब इसे महसूस करने लगे हैं। पुराने जुड़ाव को जीवित करने लगे हैं। नए परिवारों के नए समीकरण बन रहे हैं। मुझे पूरी उम्मीद है कि आने वाले समय में मंजर जरूर बदलेगा। तमाम त्योहारों को हम फिर से एक साथ मिलकर मनाने लगेंगे और सामूहिकता का आनंद लेंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
