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कोरोना काल में अमेरिकी चुनाव

ब्रिटिश लंबे समय से चुनाव आयोजित करते आए हैं, भारतीय बड़ी संख्या में मतदान करते हैं, लेकिन लोकतांत्रिक मताधिकार का सबसे अहम इस्तेमाल तब होता है, जब अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव होता है। अमेरिका दुनिया...

कोरोना काल में अमेरिकी चुनाव
रामचंद्र गुहा प्रसिद्ध इतिहासकारFri, 10 Apr 2020 08:43 PM
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ब्रिटिश लंबे समय से चुनाव आयोजित करते आए हैं, भारतीय बड़ी संख्या में मतदान करते हैं, लेकिन लोकतांत्रिक मताधिकार का सबसे अहम इस्तेमाल तब होता है, जब अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव होता है। अमेरिका दुनिया का सबसे धनी और शक्तिशाली देश है, इसलिए वहां के नतीजे पूरी मानवता के लिए होते हैं। बोरिस जॉनसन की नीतियां बमुश्किल यूरोप के बाहर असर करती हैं। नरेंद्र मोदी की नीतियां दक्षिण एशिया के बाहर मायने नहीं रखतीं, लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति जो करते हैं या नहीं करते, वह पूरे ब्रह्मांड को प्रभावित कर सकता है। अगर साल 2000 के राष्ट्रपति चुनाव में जॉर्ज डब्ल्यू बुश की बजाय अल गोर चुनाव जीत जाते, तो निश्चित ही इराक युद्ध नहीं होता, और आज दुनिया ज्यादा सुरक्षित जगह होती। 
साल 2020 का राष्ट्रपति चुनाव वैसे भी दुनिया के लिए अहम होता, लेकिन कोविड-19 के मद्देनजर तो यह और अहम हो गया है। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का पहला कार्यकाल अमेरिका के लिए अच्छा रहा हो या नहीं, अमेरिकियों के लिए तो अच्छा ही रहा है, लेकिन दुनिया के लिए बुरा रहा है, इस पर कोई सवाल नहीं हो सकता। पेरिस समझौते से उनका पीछे हटना जलवायु परिवर्तन के खतरे को और गंभीर बना गया। नए प्रतिबंधों से ईरान और बेहाल हो गया। मध्य पूर्व और अस्थिर हुआ। ट्रंप की नीतियों से शरणार्थी संकट बढ़ गया। एशिया और अफ्रीका के लोगों के बारे में अक्सर उनकी तीखी व नस्लवादी जुबान ने ऐसी बीमार इच्छाशक्ति को जन्म दिया है, जो अमेरिका या दुनिया का भला नहीं कर सकती।
फरवरी में मैं अमेरिका में था और डेमोक्रेटिक पार्टी के दावेदारों की कुछ बहसों को मैंने सुना। उस समय सीनेटर बर्नी सेंडर्स अग्रणी दावेदार थे। इस पर मेरे अमेरिकी दोस्त (जो ट्रंप को पसंद नहीं करते) बंटे हुए थे। कुछ का सोचना था कि केवल बर्नी सेंडर्स ही श्वेत कामगार वर्ग और युवाओं के बीच अपनी अपील की वजह से डेमोक्रेटिक मतदाताओं को वर्तमान राष्ट्रपति को हराने के लिए पर्याप्त संख्या में मतदान के लिए प्रेरित कर सकते हैं। कुछ का विश्वास है, पक्के वामपंथी होने की वजह से सेंडर्स शायद कुल मिलाकर कमजोर पड़ जाएंगे।
मार्च की शुरुआत में जब मैं न्यूयॉर्क से निकला, तब जो बिडेन भी बर्नी सेंडर्स से होड़ करने में लगे थे। मेरे कुछ दोस्तों का मानना है कि बिडेन की शालीनता और दृढ़ता श्वेत मतदाताओं के एक वर्ग को रिझाएगी, वहीं पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ उनका जुड़ाव अफ्रीकी-अमेरिकियों को बड़ी संख्या में मतदान के लिए प्रेरित कर सकता है। दूसरों का मानना है, बिडेन की उम्र व ऊर्जा की कमी, यूक्रेन में उनके बेटे के सौदे आदि ट्रंप को हराने की डेमोक्रेट उम्मीद में निर्णायक साबित होंगे।
इधर, कोविड-19 के प्रकोप और अमेरिका में उसके फैलाव ने कुछ ताजा सवाल खड़े कर दिए हैं। ट्रंप पहले इनकार की मुद्रा में थे। जब संक्रमित लोगों की संख्या में नाटकीय वृद्धि हुई, तब जाकर उन्होंने कार्रवाई की। इसी दौरान उन्होंने इसे ‘चीनी वायरस’ करार देते हुए नस्लवादी बयानबाजी भी की। संभवत: अपने सलाहकारों के दबाव में टं्रप ने चीन को नीचा दिखाना छोड़ा है, लेकिन उन्होंने विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के रूप में बलि का एक नया बकरा तलाश लिया है। उनका दावा है कि डब्ल्यूएचओ ने वायरस संक्रमण की तीव्रता को कम आंका और यही वजह है कि अमेरिका ने तुरंत कार्रवाई नहीं की। हालांकि ऐसी आलोचना को दो वजहों से अति ही कहा जाएगा। पहली वजह, ट्रंप ने हमेशा डब्ल्यूएचओ जैसे बहुपक्षीय संगठनों की अवमानना की है; उन्होंने इन संगठनों के लिए अमेरिकी अनुदान में कटौती की है और ऐसे संगठनों की सलाह को नकारते भी रहे हैं। 
दूसरी वजह, जनवरी के अंत में राष्ट्रपति ट्रंप के व्यापार सलाहकार पीटर नवारो ने चेतावनी दी थी कि कोरोना वायरस संकट अमेरिकी अर्थव्यवस्था को तबाह कर देगा और कई मौतें होंगी। न्यूयॉर्क टाइम्स  ने नवारो की सलाह पर टिप्पणी करते हुए लिखा भी है कि उन्हीं दिनों ट्रंप अमेरिका के जोखिमों को नकार रहे थे और बाद में यह कहने लगे कि ऐसे विनाशकारी परिणामों की भविष्यवाणी कोई नहीं कर सकता था। अभी यह कहना मुश्किल है कि क्या कोविड-19 ने ट्रंप के फिर चुने जाने की संभावनाओं पर चोट की है। कोई सोच सकता है कि संकट का यह समय मतदाताओं को सुरक्षित और स्थिर बिडेन की ओर ले जाएगा। अभी ट्रंप इस वायरस को विदेश से आया खतरा करार दे रहे हैं। वह अंधराष्ट्रवादी भावनाओं को भड़का रहे हैं, जिससे उन्हें 2016 के चुनाव में मदद मिली थी। एक विचार यह भी है कि किसी बड़े राष्ट्रीय संकट के समय जो भी प्रभारी होता है, नागरिक उसके साथ हो लेते हैं, चाहे ब्रिटेन में बोरिस जॉनसन हों या भारत में नरेंद्र मोदी या अमेरिका में ट्रंप। 
अगर 2016 में ट्रंप का चुनाव दुनिया के लिए बुरी खबर थी, तो उनका फिर चुना से जाना और भी बुरा होगा। जलवायु बदलाव से इंसानियत के लिए पैदा चुनौती और खतरनाक हो सकती है। मध्य-पूर्व में गृह युद्ध और तेज हो सकता है। अमेरिका-चीन के रिश्ते और बिगड़ सकते हैं। अमेरिका और यूरोप के बीच रिश्तों का भी यही हाल हो सकता है। डब्ल्यूएचओ जैसे बहुपक्षीय संगठन खुद को और उपेक्षित पाएंगे।
बहरहाल, वायरस के खिलाफ चल रहे युद्ध की जो आर्थिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक कीमत चुकानी पड़ेगी, उसकी तुलना केवल दो विश्व युद्ध से हो सकेगी। कोविड-19 जिस राह पर चल पड़ा है, दुनिया को पटरी पर लाने के लिए असाधारण ऊर्जा, बुद्धिमत्ता और सहानुभूति की जरूरत पडे़गी। इस कोशिश में हमें, पहले से कहीं ज्यादा, प्रमुख देशों के साथ काम करने की जरूरत होगी। कोई नया टीका सबको उपलब्ध कराने के लिए, व्यापार और संचार के सामान्य मार्गों की बहाली के लिए और वित्त व्यवस्था में विश्वास बहाल करने के लिए प्रमुख देशों को मिलकर काम करना होगा। यदि डोनाल्ड ट्रंप को दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश का राष्ट्रपति चुना जाना है, तो उनके तौर-तरीकों को देखते हुए राष्ट्रों के बीच रचनात्मक सहयोग की संभावना नहीं है, जबकि अब दुनिया को इसकी सख्त जरूरत है। अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव दुनिया के लिए सबसे अहम लोकतांत्रिक गतिविधि है, लेकिन इसमें सिर्फ अमेरिकी नागरिक मतदान कर सकते हैं। अमेरिकी चुनाव के नतीजे ऐसे लाखों इंसानों के भाग्य और भविष्य का फैसला करते रहे हैं, जो अमेरिकी नहीं हैं। ऐसे में, साल 2020 का राष्ट्रपति चुनाव पहले हुए तमाम चुनावों के मुकाबले ज्यादा खास है। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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