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बदलते भारत के नए टकराव

हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि सुमित्रानंदन पंत की एक अत्यंत महत्वपूर्ण कविता है- भारतमाता ग्रामवासिनी। किंतु पिछले कुछ वर्षों में ‘भारतमाता’ की अनुगूंज गांवों से ज्यादा शहरों-कस्बों में सुनाई...

बदलते भारत के नए टकराव
बद्री नारायण, निदेशक, जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थानMon, 10 Feb 2020 12:26 AM
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हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि सुमित्रानंदन पंत की एक अत्यंत महत्वपूर्ण कविता है- भारतमाता ग्रामवासिनी। किंतु पिछले कुछ वर्षों में ‘भारतमाता’ की अनुगूंज गांवों से ज्यादा शहरों-कस्बों में सुनाई पड़ने लगी है। देश की नई राजनीति ने भारतमाता का यह सिंहनाद शहरों व कस्बों तक फैलाया है। भारतमाता ‘ग्रामवासिनी’ अर्थ से उन्हें निकालकर इस राजनीति ने ‘नए भारत’ के निर्माण का नारा दिया है। यह गांवों की सीमांतवासी भारतमाता नहीं है, वरन एक ही साथ ‘नारीत्व’ के अर्थ के अलावा एक आक्रामक पुरुषत्व से पूर्ण भारत के अर्थ में भी तब्दील हो रहा है। इस नए बनते अर्थ के कारण हमारी भाषा के व्याकरण के सामने एक अजीब दुविधा खड़ी हो गई है। जहां भारतमाता के लिए हमें स्त्रीलिंग क्रिया पद का प्रयोग करना होता है, वहीं इस नए भारत के लिए पुल्लिंग क्रिया पद इस्तेमाल किए जाते हैं।

यह नया भारत एक ओर नए बनते फ्लाई ओवरों, छह लेन वाली सड़कों और स्मार्टफोन में दिखता है, तो वहीं दूसरी ओर प्रधानमंत्री सड़क योजना पर बने लिंक रोड और पगडंडी पर भी आकार लेता दिख जाएगा। यह नया भारत एक ओर सोशल साइटों पर मुखर है, तो दूसरी ओर ज्यादातर गांवों में इसे आज भी मौन मान सकते हैं। इस नए भारत की राज्यसत्ता नरम यानी सॉफ्ट और सौम्य की जगह मजबूत (स्ट्रॉन्ग) स्टेट की छवि गढ़ना चाहती है। पुलवामा हो या पाकिस्तान की सीमा में घुसकर किया गया सर्जिकल स्ट्राइक, यह लगातार एक मजबूत राज्य की छवि गढ़ने की ओर बढ़ते रहना चाहता है। इस छवि से एक मुखर राष्ट्रवाद की आवाजें भी निकलती हैं, जो राजनीति के गलियारे से होते हुए मतों में बदलकर राज्यसत्ता पर नियंत्रण निर्मित करने का काम करती है। हालांकि इस नए भारत में दो छवियों की टकराहट अनवरत चल रही है।

हिंदुत्व की राजनीति से बनी छवि और धर्मनिरपेक्ष राजनीति से बनने वाली भारत की छवि के बीच की टकराहट। इन टकराहटों की ध्वनियां इस नए बनते भारत में गूंज रही हैं। भारत के इन दो अर्थों के बीच एक तीसरा अर्थ है- आंबेडकर द्वारा परिभाषित भारत, जिसकी कुछ छवि तो भारतीय संविधान में अंकित है, किंतु उसकी कुछ अन्य छवियां आंबेडकर के विचारों पर आधारित राजनीति ने निर्मित की हैं। हिंदुत्व की छवि वाले भारत का अर्थ और धर्मनिरपेक्षता की राजनीति पर टिके भारत का अर्थ, दोनों ही अपने में आंबेडकर द्वारा दिए गए भारत के अर्थ को समाहित कर लेना चाहते हैं। देखना है कि इस नए बनते भारत में आंबेडकर द्वारा दी गई छवियों वाला भारत किस ओर शामिल होता है या वह कुछ इधर-कुछ उधर में विभाजित हो जाता है।

इस नए भारत में शहरीकरण की प्रक्रिया काफी तेज हुई है। धीरे-धीरे कस्बों और गांवों के एक भाग का शहरीकरण होता जा रहा है। फलत: ग्रामीण कही जाने वाली आबादी की संख्या इधर कम हुई है। 1901 में जहां शहरी आबादी 11.4 प्रतिशत थी, वह बढ़कर 2017 तक 34 प्रतिशत हो चुकी है। इस नए भारत में ग्रामीण आबादी कम होते-होते अब लगभग 65.37 के आस-पास रह गई है। नए भारत का भविष्य ग्रामीण से शहरी में रूपांतरण की दिशा में जाता दिख रहा है। आज जब बाजार का लगातार विस्तार हो रहा है, तो गांवों में भी यह प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से फैलता जा रहा है। यह बाजार अपनी अनेक सीमाओं के बावजूद शहर और ग्राम के अंतर को कम करता जा रहा है। देखना यह है कि इस शहरी भारत में भारतीय परंपराएं, ग्रामीण जीवन मूल्य और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के मानवीय तत्वों का क्या होता है? हालांकि भारतीय शहरों में अब भी कई जगह ग्रामीण जीवन मूल्य, परंपरागत शैलियां देखने को मिल जाती हैं। देखना है कि यह नया भारत परंपरा और आधुनिकता के द्वंद्व में ही उलझा रहता है कि इस द्वंद्व और अंतर्विरोध को खत्म और जज्ब कर पाता है।

यह ठीक है कि आज के भारत के कस्बों में और सड़क से लगे गांवों के किनारे मोमोज, चाऊमिन और पिज्जा के ठेले दिखने लगे हैं, किंतु साथ में बाटी-चोखा की बिक्री भी कम नहीं हुई है। यह भी ठीक है कि गंावों से लगे कस्बों में चीनी मोबाइल की अनेक दुकानें दिख जाती हैं, गंावों में चीनी लैंप, पतंग और मांझे भी बिक रहे हैं, पर परिष्कृत रूप में देशी लालटेन भी गांव के चौपालों में कम नहीं हुई है। स्टार्टअप, नई उद्यमिता के विकास, ‘वन डिस्ट्रिक वन प्रोडक्ट’ जैसे अनेक कार्यक्रम हमारे इस नए भारत की देशी जरूरतों को पूरा करने की दिशा में अग्रसर हैं। यह नया भारत रक्षा उपकरणों के निर्माण की दिशा में आगे तो बढ़ ही रहा है, इसमें आदिवासी हाटों में तीर-धनुष की खरीद-बिक्री भी कम नहीं हुई है। ग्रामीण जरूरतों के अनेक संसाधन जो बाद में ग्रामीण, आदिवासी जनों की रक्षा के काम आने लगे, डिफेंस एक्सपो के दौर में भी बनते-बिकते हैं। बड़े मॉल, पीवीआर और माया बाजार-मीना बाजार के साथ ही गंवई हाट-बाजारों की संख्या बढ़ी ही है।

यह अलग बात है कि इन हाट-बाजारों में छोटे पाउच में साबुन, शैंपू, सॉफ्ट ड्रिंक और नमकीन ग्रामीण लोगों की क्रय शक्ति के अनुसार अपना रूप बदलकर पहुंचते गए हैं। यह भारत अभी तो अनेक अंतर्विरोधों का भारत है, लेकिन जिस नए भारत की संकल्पना लगातार की जा रही है, उसमें शायद धीरे-धीरे ये अंतर्विरोध खत्म हो जाएं। यह बदलता भारत धीरे-धीरे अपने लिए ‘नव गति, नव लय, ताल-छंद नव’ की खोज कर रहा है। 90 के दशक में आई उदारवादी अर्थव्यवस्था, प्रखर राष्ट्रवाद की आवाज, सॉफ्ट की जगह एक स्ट्रॉन्ग राज्य, अनेक अंतर्विरोधों की टकराहटें, राजनीतिक विचारों का अंतरसंघर्ष, आक्रामक बाजार, तीव्र शहरीकरण और नवगति, नवलय की खोज, सभी इस नए भारत की आकृति को गढ़ रहे हैं। इस वक्त हम एक प्रकार के रूपांतरण की स्थिति से गुजर रहे हैं। देखना है कि इस रूपांतरण से क्या बनता है और क्या बिगड़ता है?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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