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अच्छे-बुरे बदलाव के बीच हम 

कोरोना महामारी ने हमारी जिंदगी बदल दी है। जिन रिश्तों को हमारे देश और समाज में खासा अहमियत मिला करती थी, वे सब तार-तार हो गए हैं। आधुनिक समाज में संयुक्त परिवार तो पहले ही बिखरने की तरफ थे, लेकिन...

अच्छे-बुरे बदलाव के बीच हम 
विजय गोयल, पूर्व केंद्रीय मंत्रीThu, 09 Jul 2020 11:07 PM
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कोरोना महामारी ने हमारी जिंदगी बदल दी है। जिन रिश्तों को हमारे देश और समाज में खासा अहमियत मिला करती थी, वे सब तार-तार हो गए हैं। आधुनिक समाज में संयुक्त परिवार तो पहले ही बिखरने की तरफ थे, लेकिन कोरोना ने उनको बिल्कुल ही तोड़ दिया है। आलम यह है कि अच्छे परिवारों के लोग भी कोरोना-संक्रमित अपने परिजन का शव ले जाने को तैयार नहीं हैं। स्वास्थ्यकर्मी ही उनका दाह-संस्कार कर रहे हैं। 
आश्चर्य तो यह है कि इस मुश्किल घड़ी में लोग ईश्वर को भी भूल रहे हैं। इतनी बड़ी महामारी में लोगों को प्रार्थना, हवन, पूजा या अरदास करते हुए शायद ही देखा गया है। संभव है, यह भ्रम इसलिए पैदा हो गया है कि लोग अब इकट्ठा होकर पूजा नहीं कर रहे हैं। मगर रोजमर्रा की सामान्य बातचीत में भी ईश्वर को लोग बमुश्किल याद कर रहे हैं। शायद यह मान लिया गया है कि कोरोना महामारी का संकट स्वयं भगवान भी टाल नहीं सकते। मंदिरों में जो लोग शिवलिंग की कोली भरकर सब कुछ पा जाना चाहते थे और नंदी बाबा के कान में अपनी सारी इच्छाएं, मनोकामनाएं सुना डालते थे, अब वही लोग इन मूर्तियों को छूने से बच रहे हैं। 
इस संक्रमण काल में रंग-बिरंगे मास्क भी चलन में आ गए हैं। जो मास्क पहले चिकित्सा कारणों से हम पहना करते थे, उनमें तमाम तरह के फैशन आ गए हैं। हालांकि इसे लेकर लोगों में आज भी दुविधा बनी हुई है। कुछ मास्क तो सिर्फ डॉक्टरों के लिए अनिवार्य हैं, पर उसे आम लोग पहने हुए दिख जाते हैं। अब तो बाजार में हैलमेट की तरह एक शील्ड भी आ गई है, जिसमें हल्की से लेकर अच्छी क्वालिटी का प्लास्टिक लगा है। ऐसे में, वह दिन दूर नहीं, जब चेहरे से ज्यादा सुंदर मास्क नजर आएंगे। कोरोना ने हमारी सोच पर भी वार किया है। कई बार आदमी निश्चिंत होकर घूम रहा होता है, पर जैसे ही कोई सामने आता दिखता है, तो मास्क ऐसे लगाता है, मानो पुलिस चालान काटने आ गई हो। इतना ही नहीं, यदि सामने वाले इंसान सामान्य रूप से भी खांसता है या किसी के गले में तकलीफ दिखाई देती है, तो सीधे ध्यान इसी बात पर जाता है कि ‘इसे कोरोना तो नहीं?’ समझ में ही नहीं आ रहा कि जाएं, तो जाएं कहां और करें, तो करें क्या?
कोरोना में लोगों की श्रेणियां भी अलग-अलग हो गई हैं। एक डरे-सहमे वे लोग हैं, जिन्होंने खुद को पूरी तरह से घरों में बंद कर लिया है। उनका मानना है कि बाहर निकलते ही उन्हें कोरोना हो जाएगा। मजबूरी में जो घरेलू कामगार उनके घरों में रहते हैं, उनसे भी उन्हें डर लगता है। दूसरी श्रेणी में वे लोग हैं, जो घर पर तो हैं, पर उनके घरेलू सहायकों का हर रोज बाहर आना-जाना है। ये वे लोग हैं, जिनको स्वयं काम करने की आदत नहीं रही है, पर जोखिम उठाने को वे तैयार हैं। तीसरी श्रेणी में वे लोग हैं, जिनका मानना है कि हरसंभव सावधानी बरती जाए, दो गज की दूरी का पालन किया जाए, मास्क लगाया जाए और बार-बार हाथ धोया जाए। ये वे लोग हैं, जो घर में बैठे-बैठे ऊब चुके हैं और इन्होंने मान लिया है कि जीना यहां, मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां?
वैसे, चतुर-सुजान लोगों ने कोरोना में नए-नए व्यापार भी ढूंढ़ लिए हैं। रातों-रात मशीनें लगाकर मास्क, ऑटो सैनिटाइजर आदि बना लिए गए हैं। जापान में बना एक ‘वायरस शट आउट’ भी बाजार में आ गया है, जिसके बारे में दावा किया जाता है कि यदि उसे गले में टांग लिया जाए, तो वायरस निकट नहीं फटकेगा। इन सब चीजों का इस्तेमाल लोग यथाशक्ति कर रहे हैं, लेकिन किस चीज से क्या लाभ है, यह शायद ही किसी को पता है। इस बीमारी ने हमें स्वच्छता का पाठ फिर से पढ़ाया है। इस पर ध्यान देने की बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बहुत पहले कही थी। उन्होंने इसके लिए देश भर में स्वच्छता अभियान भी चलाए थे। लोगों को सफाई के प्रति जागरूक किया। खुले में शौच को खत्म करने के लिए घर-घर शौचालय बनवाए गए। हाथों को बार-बार धोने को कहा गया। अब कोरोना की मजबूरी में लोग इन सब पर संजीदगी से अमल कर रहे हैं। 
समय बिताने के लिए लोग उन खेलों की ओर लौटे हैं, जिन्हें बच्चों और बचपन का खेल समझकर छोड़ दिया गया था। बाजार से कैरम बोर्ड भी लगभग गायब हो गए हैं, जबकि ताश और शतरंज के दिन फिर से लौट आए हैं। सबसे ज्यादा वे लोग खुश हैं, जिनके घर में छोटे बच्चे हैं, पर पहले मजबूरीवश वे उनको पर्याप्त समय नहीं दे पाते थे। कोरोना महामारी में लोगों का नया व्यक्तित्व सामने आया है। ऐसे बहुत कम लोग होंगे, जिन्होंने पिछले तीन महीनों में कुछ नया गुण विकसित न किया हो। ऑनलाइन डांस, म्यूजिक, लैंग्वेज जैसे कोर्स खूब किए गए। कुछ लोगों ने तो वर्षों से गंदे पड़े घर के कोनों की सफाई की, तो कुछ ने कपड़ों की अलमारियां ठीक कर लीं। कई ने तो खाना बनाना सीख लिया। लॉकडाउन का उपयोग किसी ने पढ़ने के लिए किया, तो किसी ने लिखने के लिए। 
हालांकि, इस महामारी के कारण उन लोगों की परेशानियां बढ़ गईं, जिनके स्वभाव एक घर में रहते हुए भी नहीं मिलते। उन्हें एक-दूसरे को ज्यादा सहना पड़ रहा है, जिससे घरेलू हिंसा भी बढ़ी है। मास्क की वजह से झगड़े भी कम हुए हैं, क्योंकि कई बार चेहरे के हाव-भाव देखकर भी गुस्सा ज्यादा भड़कता है। कुछ अभिभावक तो कह रहे हैं कि उनके बच्चों की मानसिक स्थिति पर भी लॉकडाउन का असर पड़ा है। बच्चे तो पहले ही घर से बाहर नहीं निकलते थे, अब स्कूल न जाने के कारण उनकी शारीरिक गतिविधियां कम हो गई हैं। 
वैसे, कहा यह भी जा रहा है कि ये सब बदलाव मध्यम और उच्च वर्ग के लोगों के लिए आए हैं, निम्न वर्गों को उन्हीं हालात में अपना दिन गुजारना पड़ रहा है, जिनमें वे पहले गुजारा कर रहे थे। हां, उनकी कमाई पर बुरा असर जरूर पड़ा है। हालांकि,  कोरोना ने लोगों को यह भी समझा दिया है कि पर्यावरण का क्या महत्व है? कुल मिलाकर, इस महामारी का एक ही संदेश है- न बैठो खाली, कुछ न कुछ करो न!
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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