हर साल खराब हवा और खानापूर्ति
दिल्ली में सांस लेना दूभर हो गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने राजधानी की दूषित हवा का मामला अपनी अगुवाई में सुनना शुरू किया है। पर्यावरण की बातें किसी भी राजनीतिक दल के लिए चुनावी मुद्दा नहीं होतीं...

दिल्ली में सांस लेना दूभर हो गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने राजधानी की दूषित हवा का मामला अपनी अगुवाई में सुनना शुरू किया है। पर्यावरण की बातें किसी भी राजनीतिक दल के लिए चुनावी मुद्दा नहीं होतीं, इसलिए वे इनको टालने की कोशिश करते हैं, किंतु इस बार बाजी पलट चुकी है। न्यायतंत्र की सबसे शक्तिशाली पीठ ने तय कर लिया है कि साफ हवा केवल सरकारी नीति का मसला नहीं है, यह बुनियादी अधिकारों का मामला भी है। न्यायालय को यह ताकत मिली है पर्यावरण संरक्षण कानून (1986) से। न्यायाधीश आए दिन सरकारी अफसरों को फटकार लगा रहे हैं, बार-बार यह जता रहे हैं कि वायु प्रदूषण रोकने के लिए कारगर कदम उठाने ही पड़ेंगे। अब सत्ता-तंत्र को वे काम करने पड़ेंगे, जिनकी सलाह स्वतंत्र विशेषज्ञ दे रहे हैं।
यह बात सन 1996 से 2001 के बीच की है। न्यायालय में यह मामला सालों-साल चला। इससे दिल्ली में अपूर्व परिवर्तन हुए। डीजल से चलने वाली बसों और सार्वजनिक वाहनों को बंद किया गया। सार्वजनिक यातायात को सीएनजी पर डाला गया। दिल्ली में मेट्रो रेल बनाने में तेजी आई। बस कॉरिडोर बने। कई दूसरे बदलाव भी किए गए। दिल्ली की हवा साल 2000-2010 के दशक में बेहतर हुई। इस प्रयोग को खूब प्रशंसा भी मिली।
मगर अगले दशक में कहानी वापस वहीं पहुंच गई। हाल ही में शीर्ष अदालत ने सरकारी महकमों को फिर फटकार लगाई है। इतना खर्च उठाकर सार्वजनिक यातायात को बदलने के बाद हम कुछ वैसी ही जहरीली हवा में सांस ले रहे हैं, जैसी आबोहवा में 25 साल पहले लेते थे। हां, एक बड़ा अंतर आया है। पंजाब व हरियाणा जैसे राज्यों में फसल-कटाई के बाद जो पुआल या पराली बचती है, वह पहले पशुओं के चारे में काम आती थी, पर आज किसानों को उतने मवेशियों की जरूरत नहीं है, क्योंकि खेती के मशीनीकरण को बढ़ावा मिला है। आज गाय-बैल और सांड़ राजमार्गों और सड़कों के किनारे कचरे में मंुह मारते फिरते हैं। मवेशियों के चारे की कीमतें बढ़ चुकी हैं, पर किसानों के पास इतना धन नहीं है कि पुआल की हाथ से कटाई करके चारा बना सकें।
फसल कटाई का काम आज कम्बाइंड हारवेस्टर करते हैं। हमारे यहां बेचे जाने वाले हारवेस्टर जिस बनावट के हैं, उनसे फसल की बालियां ऊपर से कटती हैं। नतीजतन, लंबी संटी का पुआल नीचे छूट जाता है। किसानों के लिए लागत कम रखने का आसान तरीका यही है कि इसे जला दें। अब तक इस पर ध्यान नहीं गया है कि हारवेस्टर की बनावट में ऐसे बदलाव किए जाएं, जो फसल को नीचे से काट सकें।
हां, प्रदूषण के स्रोत को लेकर नाना प्रकार की छींटाकशी जरूर हो रही है। अपने आप को किसानों का हितैषी बताने वाले कहते हैं कि पड़ोसी राज्यों में पुआल जलाने से दिल्ली के प्रदूषण में बहुत हल्की बढ़ोतरी होती है, इसके असली कारण कुछ और हैं। किसी को बारूदी आतिशबाजी में मासूमियत दिखती है, धार्मिक उत्सवप्रियता भी! ऐसी बहसबाजी आसान है। जबकि, यह सभी जानते हैं कि मौसमी बुखार की तरह यह समस्या अगले साल भी आएगी। ऐसी ही बहसें फिर से होंगी, क्योंकि असली सवाल पर हमारा ध्यान जाता ही नहीं है। हम इस समस्या का निदान और हल क्यों नहीं निकाल पाते? इतने वर्षों में इतने सारे साधन लगाने और कष्ट उठाने के बाद भी? याद रखिए, राजधानी से अधिक साधन कहीं नहीं हैैं, यहां से ज्यादा ध्यान किसी दूसरी जगह पर नहीं जाता। अगर दिल्ली में इसका उपाय नहीं है, तो दूसरे शहर क्या करेंगे? विश्व के सबसे प्रदूषित नगरों में भारत के शहर शीर्ष स्थानों पर आते हैं।
कारण? पर्यावरण से जुड़े सभी मामले बेहद पेचीदा होते हैं। हमारा कुल ज्ञान हमारे आस-पास से आता है, लोगों पर आधारित होता है। तभी तो जिसकी जैसी मान्यता हो, वह प्रदूषण का ठीकरा उसी हिसाब से फोड़ता है। पर्यावरण की समस्याएं हमारे ज्ञान ही नहीं, किस्से-कहानियों की कल्पनाओं से भी बड़ी हैं। इन्हें जानने-समझने में ढेर सारा धीरज लगता है, खूब सारी साधना लगती है, अपने ज्ञान-अज्ञान के प्रति विनम्रता चाहिए होती है।
राजनीति के लिए यह सब बेकार की बातें हैं। तभी दुनिया भर की सरकारें पर्यावरण को बिगड़ने से रोकने में रुचि नहीं रखतीं। वे केवल खानापूर्ति करती हैं। राजनेताओं को यह ठीक से पता है कि पर्यावरण की समस्याओं को सुलझाने के लिए क्या करना जरूरी है, लेकिन उन्हें यह नहीं पता कि अगला चुनाव कैसे जीतें? राजनीतिक दलों का अस्तित्व चुनाव से है। उनके लिए यह भुलाए रहना बड़ा आसान है कि हम सभी का अस्तित्व पर्यावरण से ही है। राजनीति की दृष्टि संकीर्ण और अल्पकालिक होती है, चाहे वह नैतिकता की कितनी ही बड़ी-बड़ी बातें क्यों न करे।
पर्यावरण की समस्याएं दशकों में, शताब्दियों में बनती हैं। उनको ठीक करने के लिए उतनी ही लंबी साधना करनी पड़ती है, अपने ज्ञान की सीमा के प्रति विनम्रता बरतनी पड़ती है। इस दौरान बहुत से चुनाव आ जाते हैं। हर चुनाव के लिए औद्योगिक विकास के कई वादे हर दल को करने पड़ते हैं। चुनाव का चंदा पाने के लिए उद्योगों के एहसान उठाने पड़ते हैं। तभी तो लोगों की पाई-पाई का हिसाब रखने वाली व्यवस्था न्यायालय के सामने यह कहती है कि नागरिकों को राजनीतिक चंदे का स्रोत जानने का अधिकार नहीं है। जीतने वाले दलों को चंदा देने वाले उद्योगों को प्राकृतिक संसाधन सौंपने ही पड़ते हैं, चाहे उससे समाज और पर्यावरण का कितना भी नुकसान क्यों न हो?
हमारे लोकतंत्र का सच यही है। इसे न तो कोई नीति बदल सकती है, और न बड़े से बड़ा अदालती निर्देश। इसे बदलने के लिए जो जोखिम उठाने पड़ेंगे, उसके लिए हमारी राजनीति तैयार नहीं है। हम तैयार नहीं हैं। जहरीली हवा में सांस लेना कितना भी खतरनाक क्यों न हो, हमारी राजनीति के लिए यह एक अल्पकालिक मौसमी असुविधा भर है। सुविधाओं के विकास की छोटी-सी कीमत! जब तक हम यह कीमत चुकाने के लिए तैयार रहेंगे, तब तक हर मौसम की पर्यावरण की त्रासदी चलती रहेगी। बाढ़, सूखा, भूस्खलन, लू, शीत लहर, वायु प्रदूषण... यह हमारे गलत आर्थिक विकास का नया ऋतु चक्र है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
