फोटो गैलरी

Hindi News ओपिनियनराज्य साथ आए, तो जीतेंगे हम

राज्य साथ आए, तो जीतेंगे हम

‘इंडिया, जो भारत है, राज्यों का संघ होगा।’ इसी वाक्य से हमारे संविधान की शुरुआत होती है और आज से पहले यह पंक्ति शायद ही इतनी सच होती दिखी। हमेशा से भारत के कई हिस्से रहे हैं। आज भी कई...

राज्य साथ आए, तो जीतेंगे हम
गोपालकृष्ण गांधी, पूर्व राज्यपालFri, 08 May 2020 09:01 PM
ऐप पर पढ़ें

‘इंडिया, जो भारत है, राज्यों का संघ होगा।’ इसी वाक्य से हमारे संविधान की शुरुआत होती है और आज से पहले यह पंक्ति शायद ही इतनी सच होती दिखी। हमेशा से भारत के कई हिस्से रहे हैं। आज भी कई राज्य हैं। वे सभी भारत हैं। वह भारत, जहां अब काफी सतर्क होकर सांस ली जा रही है, जहां बेहद सावधानी से हाथ आगे बढ़ाए जा रहे हैं और प्रार्थना के लिए अक्सर एक साथ उठ रहे हैं।
राज्य और केंद्र शासित क्षेत्र आजादी के बाद की सबसे बड़ी चुनौती का सामना करते हुए हर वक्त, हर पहर कोरोना महामारी से लड़ रहे हैं। 27 अप्रैल को मुख्यमंत्रियों के साथ बात करते हुए प्रधानमंत्री ने भी इसे बिल्कुल सही पाया। उन्होंने कहा कि राज्य इस महामारी के बारे  में जमीनी सच्चाई से कहीं बेहतर परिचित हैं। प्रधानमंत्री चूंकि खुद मुख्यमंत्री रह चुके हैं, इसलिए  उन्हें पता है कि जमीनी हकीकत का क्या महत्व है।
हमारे प्रधानमंत्री, तमाम प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों, स्वास्थ्य मंत्रियों, मुख्य सचिवों, स्वास्थ्य सचिवों और जिला प्रशासनों के साझा प्रयास से इस वायरस के बेतरतीब प्रसार को रोक लिया गया है। अपने यहां मौजूद आर्थिक और मानव संसाधनों को देखते हुए कई बाधाओं के बावजूद जिस तरह से काम किया गया है, उसकी सिर्फ सराहना की जा सकती है।
केरल के मुख्यमंत्री पी विजयन इस मामले में सबसे आगे रहे। उनकी सरकार ने देश के बाकी हिस्सों से पहले अपने यहां वायरस को रोकने की दिशा में कदम बढ़ाया। इसी तरह, महामारी को नियंत्रित करने में ओडिशा की उपलब्धि उल्लेखनीय रही, तो गोवा ने सबसे पहले संक्रमण के सक्रिय मामलों को शून्य बनाने का रिकॉर्ड बनाया। तमिलनाडु ने कोरोना टेस्ट की शुरुआत सबसे पहले की और अपने यहां अच्छा काम किया, जबकि राजस्थान ने गरीबों को खाद्यान्न पहुंचाने और हेल्पलाइन नंबर से स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराने की व्यवस्था करके लॉकडाउन में भारी आर्थिक बोझ उठाते हुए भी अपने नागरिकों की देखभाल की।
सभी राज्यों और नगरों में सबसे अधिक चुनौती महाराष्ट्र और मुंबई में है, जहां कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या सबसे अधिक है। यहां भी मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे जिस मजबूती से लड़ रहे हैं, उसकी तारीफ की जानी चाहिए। उन्होंने खुद को एक जिम्मेदार राजनेता के रूप में पेश किया है, जिसकी राज्य को जरूरत है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी ऐसा ही किया है। इसी तरह, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री का अपनी जनता के लिए हद से गुजर जाना आश्वस्त करता है, हालांकि इसमें उनकी खुद की सुरक्षा के प्रति हमारी चिंता बढ़ जाती है।
जाहिर है, हमारे संविधान की उस पहली पंक्ति के सर्वोत्तम अर्थों में आज संघीय व्यवस्था काम कर रही है। इसमें एक सांविधानिक मंजूरी निहित है। सच कहा जाए, तो सांविधानिक अनिवार्यता। केंद्र और राज्य के बीच अधिकारों और कर्तव्यों के सांविधानिक बंटवारे में कई विषय (समवर्ती सूची के रूप में संयुक्त रूप से) राज्यों के जिम्मे हैं। ‘सार्वजनिक स्वास्थ्य व स्वच्छता, अस्पताल और औषधालय’ भी ऐसे ही विषय हैं।
इससे भी अधिक प्रासंगिक है, ‘मानव, पशु या पौधों को प्रभावित करने वाले संक्रामक या घातक रोगों को एक राज्य से दूसरे राज्य में फैलने से रोकना’। यह समवर्ती सूची में शामिल है और राज्य व केंद्र, दोनों पर बाध्यकारी है। सामान्य हालात में बेशक इन विषयों के प्रति वे थोड़ी शिथिलता बरतते हों, लेकिन अभी हम जिस मुश्किल स्थिति का सामना कर रहे हैं, उसमें राज्य-केंद्र अपने सांविधानिक दायित्व को जीते हुए पूरी तरह से सक्रिय हैं। यही है वह भारत, जिसमें हम रहते हैं।
राज्यों से परे एक अन्य विषय की चर्चा भी जरूरी है, जो है- प्रवासी मजदूरों की दशा। कहा जाए, तो ये मजदूर एक अस्थाई केंद्र शासित क्षेत्र हैं, जिन्हें पूर्ण राज्य का दर्जा मिलना चाहिए। अभी राज्यों की एक बड़ी जिम्मेदारी यह भी है कि लॉकडाउन में मिल रही छूट के दौरान शहरों से गांवों की ओर मजदूरों का पलायन संवेदनशीलता के साथ रोका जाए। प्रश्न है कि क्या कोविड-19 से लड़कर निकलने वाला भारत मजदूरों को यह दर्जा देगा? अगर ऐसा नहीं होता है, तो यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि इस महामारी से जंग जीतने के लिए जो किया जा रहा है, वह सफल होगा।
अब यह स्पष्ट है, वायरस हमें आसानी से या जल्द छोड़ने वाला नहीं। यदि भारत को इससे सुरक्षित रहना है और भविष्य में होने वाली मौतों या मौत बांटने वाले वायरसों से बचना है, तो कुछ जरूरी उपाय करने ही होंगे। पहला उपाय है, बुनियादी स्वच्छता की आत्मघाती उपेक्षा से निपटना। अपने यहां मांस और पॉल्ट्री फॉर्म, बाजार और सार्वजनिक शौचालयों में जिस तरह की गंदगी होती है, कहना गलत न होगा कि ये भी किसी अदृश्य वुहान जैसे हैं। दूसरा उपाय है, औद्योगिकीकरण के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों के निरंतर दोहन को रोकना। तीसरा, जहां-तहां थूकने की आदत पर काबू पाते हुए धार्मिक स्थलों और मनोरंजन की जगहों पर भीड़ लगाने से बचना। सम्राट अशोक ने भी अपने लेखों में ‘अनावश्यक जुटान’ का जिक्र किया है। चौथा उपाय है, अगर हम अपने हाथ धोते रहना चाहते हैं, तो यह पूछना भी शुरू करना होगा कि हमें साफ पानी कहां से मिलेगा? पांचवां, पैदल चलने लायक दूरी के भीतर बुनियादी चिकित्सा सुविधाओं की मांग करना।
अगर हम शादी की उम्र बढ़ा सकते हैं, अपने माता-पिता की तुलना में कम बच्चे पैदा करते हैं, और यह मानते हैं कि अस्पृश्यता गलत, बेतुकी और गैरकानूनी है, तो निश्चय ही हम इन पांचों उपायों को भी सफलतापूर्वक अमल में ला सकते हैं। हालांकि इसके लिए सरकार को अपनी प्राथमिकताएं जल्द बदलनी होंगी। सबको साफ पानी मिले, इसके लिए तुरंत ही बडे़ पैमाने पर निवेश करना होगा। डॉक्टरों-नर्सों की संख्या बढ़ानी होगी। नर्सों का ओहदा बढ़ाते हुए उन्हें स्वास्थ्य सुरक्षा मुहैया कराने वाले लोगों की अग्रिम कतार में शामिल करना होगा। 
हमारा संविधान आज यही कह रहा है कि भारत अपने हृदय को राज्यों की नसों में मजबूती से धड़कता हुआ महसूस करे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें