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नफरत का कोई न बने कारोबारी

यह खबर सुर्खियों में है कि बुल्ली बाई  एप पर लोगों को मुसलमान औरतों की खरीदारी के लिए आमंत्रित किया गया। बाद में कहीं यह भी पढ़ा कि वह हिंदू-मुसलमान, दोनों धर्मों की औरतों के लिए था। एप को बनाने...

नफरत का कोई न बने कारोबारी
क्षमा शर्मा, वरिष्ठ पत्रकारFri, 07 Jan 2022 11:08 PM
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यह खबर सुर्खियों में है कि बुल्ली बाई  एप पर लोगों को मुसलमान औरतों की खरीदारी के लिए आमंत्रित किया गया। बाद में कहीं यह भी पढ़ा कि वह हिंदू-मुसलमान, दोनों धर्मों की औरतों के लिए था। एप को बनाने वाले थे- 18 साल की एक लड़की श्वेता सिंह, 21 साल का विशाल झा, और एक अन्य युवा नीरज। नीरज के बारे में कहा गया कि वह धर्म विशेष की उन औरतों से बहुत नाराज था, जो सोशल मीडिया पर अपनी मजहबी पहचान के साथ प्रतिक्रिया देती हैं। तो बदला लेने का उसने आसान तरीका निकाला कि औरतों की ऑनलाइन नीलामी करवा दी जाए। काश! उसे बडे़-बूढ़ों की कही यह बात याद रहती कि औरतें सबके घर में होती हैं, इसलिए अगर अपने घर की औरतों का सम्मान चाहिए, तो दूसरे के घरों की औरतों का सम्मान करें।  

जिस आईएस, बोकोहराम की इस बात पर आलोचना होती है कि वे खुलेआम लड़कियों की नीलामी करते हैं, हमने उनसे क्या यही सबक सीखा? क्यों भला? बचने के लिए यह कहना कि किसी ने इस एप पर कोई नीलामी नहीं की है, यह तो मात्र मनोरंजन के लिए था। औरतों की नीलामी करके, उनका सरेआम अपमान करके आपका कौन सा मनोरंजन हो रहा था? तकनीक ने क्या आपको यही सिखाया है? सुना तो यह जाता था कि तकनीक दिमाग के बंद दरवाजे खोलती है, मगर यहां तो दरवाजे बंद ही नहीं हुए, गर्त में जा गिरे। आखिर इन नौजवानों को, जिन्हें देखने के लिए पूरी दुनिया पड़ी है, अपना करियर बनाना था, जीवन में आगे बढ़ना था, माता-पिता ने इनके लिए न जाने कितने सपने देखे होंगे, वे इस जाल में कैसे जा फंसे? किसने इनको यह सब करने को उकसाया? हमारे घरों में तो यह सब नहीं सिखाया जाता। फिर 18 साल की एक लड़की ने, जो इस दौर की लड़की है, उसने यह कैसे सीख लिया? इस लड़की के बारे में कहा जा रहा है कि हाल ही में इसके माता-पिता का निधन हुआ है। तो क्या अपने दुख को दूर करने का यही तरीका था कि लड़की होते हुए भी औरतों की नीलामी के बारे में सोचा जाए? हालांकि, मशहूर गीतकार  जावेद अख्तर ने इस लड़की के साथ नरमी से पेश आने की गुजारिश की है।
सोचती हूं, क्या हमारे समाज में नफरत का इतना बोलबाला हो गया है कि एक-दूसरे को बचाने की जगह हम इसका हथियार की तरह इस्तेमाल करने लगे हैं? पुरानी कहावत है, जिससे हम नफरत करते हैं, वैसे ही बन जाना चाहते हैं। आप आईएस, बोकोहराम से नफरत करके वैसे ही बन गए। जिन सैकड़ों मुसलमान औरतों के फोटो उनके सोशल मीडिया अकाउंट से लेकर अपलोड किए गए, उन्हें तो इस बारे में मालूम तक नहीं था कि उनके फोटो कैसे वायरल हो रहे हैं। यत्र नार्यस्तु पूज्यंते सिखाने वाले समाज को यह क्या हुआ? ऐसा तो यह था नहीं।
पीछे मुड़कर देखती हूं, तो बचपन की एक घटना याद आती है। स्कूल जा रही थी। आठवीं में पढ़ती थी। तभी पीछे से आते कुछ लड़के गाना गाने लगे। सीटियां बजाने लगे। तभी किसी की डांट की आवाज सुनाई दी। डांट सुनते ही लड़के चुप हो इधर-उधर हो लिए। डांटने वाले चांद खां चाचा थे, जिन्होंने हमारे घर में राजमिस्त्री का काम किया था। छुटपन में मां के साथ रेल में लौट रही थी। सामने बुर्का पहने एक महिला बैठी थी। उसकी गोद में एक छोटी बच्ची थी। बच्ची को काफी भूख लगी थी, मगर महिला के पास उस वक्त खिलाने को कुछ नहीं था। मां ने साथ लाया खाना खोला और एक नमकीन पूरी बच्ची को पकड़ा दी। बच्ची शौक से उसे खाने लगी और थोड़ी ही देर में खिलखिलाने लगी।
कई दशक पहले एक घटना एक पत्रिका में छपी थी। एक लड़की ने लिखा था कि एक बार वह अपने घर से नाराज होकर रेल में सवार हो गई। चढ़ तो गई, मगर डर लगने लगा, क्योंकि अकेली कभी कहीं गई नहीं थी। पास बैठे कुछ लड़कों ने इस बात को भांप लिया। वे उसे तरह-तरह से तंग करने लगे। तभी एक मुसलमान बुजुर्ग ने उससे कहा कि उनका स्टेशन आने वाला है। अगर लड़की चाहे, तो उनके साथ चले। लड़की उन लड़कों से परेशान थी, डरी हुई भी थी, वह बुजुर्ग के साथ उतर गई। बुजुर्ग ने लड़की के माता-पिता को सूचित किया। उनके घर में लड़की तब तक बहुत प्यार से रही, जब तक कि उसके घर वाले उसे लेने नहीं आ गए। 
न चांद खां चाचा, न रेल में मिले बुजुर्ग ने सोचा कि वे हिंदू लड़कियों को बचा रहे हैं, न ही मेरी मां ने सोचा कि वह एक नन्ही मुसलमान बच्ची की भूख की चिंता में अपनी बनाई पूरी उसे दे रही हैं। बात तो इंसानियत को बचाने की थी।
एक उदाहरण जिनेवा, स्विटजरलैंड का भी है। मेरे 10 साल के पोते को फुटबॉल खेलने का बहुत शौक है। दो साल पहले की बात है, एक बार उसने खेलते हुए देखा कि तीन लड़कियां बैठी हैं। खेल नहीं रही हैं। उसने जब उनसे पूछा, तो बताया गया कि लड़के उन्हें खेलने नहीं देते हैं। आठ साल के बच्चे को यह बात चुभ गई। उसने अपने एक दोस्त के साथ मिलकर खेल शिक्षक से जाकर कहा। खेल शिक्षक ने बात समझी और लड़कियों के लिए अलग से स्लॉट बनाया गया, ताकि वे भी खेल सकें।
बेशक, हमारे बीच जो परस्पर संबंध रहे हैं, वे इंसानियत के हैं। एक-दूसरे को बचाने के  हैं। इंसान बचेगा, तभी कोई धर्म भी बच सकता है। यदि हम समाज के विकास की बातें करते हैं, सबके मिल-जुलकर रहने की कामना करते हैं, तो यह तभी संभव है, जब हम एक-दूसरे का सम्मान करना सीखेंगे।
हमारे यहां सूचना का इतना व्यापक तंत्र है। औरतों के सम्मान की बड़ी-बड़ी बातें हैं, लेकिन यह तंत्र क्यों नहीं सिखाता कि धर्म-जाति के बहाने किसी की बेइज्जती करके मनोरंजन करना अपराध है। बुल्ली बाई एप के संबंध में कई लोग कह रहे हैं कि इसमें तो कोई नीलामी नहीं हुई, फिर इतना शोर-शराबा क्यों? सवाल यह है कि क्या जब ऐसा हो जाता, तभी इसका विरोध सही होता? अफसोस, आज के इस दौर में हमारे कुछ युवा इंसानियत भूलते जा रहे हैं। नफरत की ‘सेल’ चारों तरफ लगी है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं) 

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