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केरल की सियासत में फलस्तीनी पेच

पिछले हफ्ते केरल की राजनीति उस वक्त गरम हो गई, जब राज्य के मुख्यमंत्री पी विजयन के नेतृत्व में सत्तारूढ़ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) ने गाजा पर इजरायली बमबारी के खिलाफ दिल्ली में विरोध...

केरल की सियासत में फलस्तीनी पेच
Amitesh Pandeyएस. श्रीनिवासन, वरिष्ठ पत्रकारMon, 06 Nov 2023 10:22 PM
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पिछले हफ्ते केरल की राजनीति उस वक्त गरम हो गई, जब राज्य के मुख्यमंत्री पी विजयन के नेतृत्व में सत्तारूढ़ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) ने गाजा पर इजरायली बमबारी के खिलाफ दिल्ली में विरोध-प्रदर्शन किया। इसने केरल स्थित इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (आईयूएमएल) को इस कदर चोट पहुंचाई कि कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) के साथ उसका अरसे से चला आ रहा साथ करीब-करीब छूटने लगा। हमें अब इस बात का एहसास है कि सियासी दल अपनी घरेलू राजनीति को धार देने के लिए अंतरराष्ट्रीय व विदेश से जुडे़ मुद्दों का एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। मगर इसे इस मोड़ तक क्यों जाना चाहिए कि केरल में लंबे समय से चला आ रहा गठबंधन भी टूट जाए?
यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट का गठन 1979 में पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री के करुणाकरण ने तत्कालीन लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) सरकार का विरोध करने के लिए किया था। तब से दोनों गठबंधन बारी-बारी से राज्य की सत्ता पर काबिज होता आया है। फलस्तीन के सवाल पर भी दोनों मोर्चे समान धरातल पर रहे हैं, लेकिन फिलहाल दोनों विचार-विमर्श की मुद्रा अपनाए हुए हैं। केरल पर किसी अंतरराष्ट्रीय मसले का प्रभाव क्यों आसानी से पड़ता है, इसके दो कारक हैं। पहला, इस राज्य की अनूठी जनसांख्यिकीय, और दूसरा, सूबे की राजनीति का चरित्र, जिसमें दोनों गठबंधन अपने घटक  दलों की संवेदनशीलता का ध्यान रखते हैं, फिर चाहे वे छोटे दल ही क्यों न हों। केरल में करीब 25 फीसदी मुस्लिम व 20 प्रतिशत ईसाई बसते हैं। बहुसंख्यकवाद यहां कोई मुद्दा नहीं है।
फिलहाल एलडीएफ और यूडीएफ का आपसी सामंजस्य करीब-करीब खत्म होता दिख रहा है, क्योंकि आईयूएमएल फलस्तीन मसले पर उलझन में दिखी है। पारंपरिक रूप से कांग्रेस के साथ ही आईयूएमएल भी फलस्तीन मसले पर समर्थन करती रही है, और इसीलिए जब सीपीएम ने 11 नवंबर को इजरायली बमबारी के खिलाफ विरोध रैली की घोषणा की और आईयूएमएल को भी उसमें हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित किया, तो वह इनकार न कर सकी। इससे स्वाभाविक तौर पर कांग्रेस नाराज हो गई और फिर आईयूएमएल को आनन-फानन में अपने कदम पीछे खींचने पड़े। 
इससे पहले कांग्रेस व सीपीएम, दोनों को हमास पर अपनी स्थिति साफ करने के लिए तलवार की धार पर चलना पड़ा था। कांग्रेस के लिए वे असहज क्षण थे, जब तिरुवनंतपुरम से पार्टी के सांसद शशि थरूर ने आईयूएमएल की रैली में यह कहा कि इजरायल पर 7 अक्तूबर को ‘आतंकी हमला’ किया गया। सीपीएम के एक विधायक ने तुरंत इस मुद्दे को उठाया और इजरायल का पक्ष लेने के लिए सांसद को फटकार लगाई। बाद में थरूर को अपना बयान स्पष्ट करना पड़ा।
रिपोर्टों से पता चलता है कि सीपीएम की केंद्रीय समिति की सदस्य केके शैलजा ने इजरायल व गाजा, दोनों पक्ष की हत्याओं पर दुख जताते हुए एक फेसबुक पोस्ट में हमास को आतंकी कहा है। साथ ही, उन्होंने 1948 में फलस्तीनियों के खिलाफ आतंकवाद को प्रचारित करने वाली साम्राज्वादी ताकतों पर भी हमला बोला। इन सबका एक निष्कर्ष यह भी है कि यूडीएफ और एलडीएफ, दोनों राज्य की राजनीति में भाजपा को कोई जगह देने को तैयार नहीं हैं, क्योंकि उसका इजरायल की तरफ रुझान स्पष्ट है। हालांकि, भाजपा कांग्रेस और सीपीएम को उनके अपने रुख के लिए निशाना बनाती रही है। वह तो आईयूएमएल को मोहम्मद अली जिन्ना द्वारा बनाई गई पार्टी बताती है। उसने राहुल गांधी पर उस समय जोरदार सियासी हमला बोला था, जब उन्होंने आईयूएमएल को धर्मनिरपेक्ष दल कहा था। 
तथ्य यह है कि जिन्ना द्वारा गठित मुस्लिम लीग बंटवारे के बाद भारत में भंग हो गई थी। हालांकि, यह पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) में बची रही। भारत में आईयूएमएल नए सिरे से गठित हुई और उसने 1951 में भारतीय संविधान की शपथ ली। तभी से वह चुनावी राजनीति का हिस्सा बनी हुई है। वह संसद में सांसद भेजती है और केरल में उसके विधायक भी हैं। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए आईयूएमएल सांसद ई अहमद को जिनेवा भी भेजा था।
फलस्तीन मुद्दे का समर्थन भारत की विदेश नीति का अनिवार्य हिस्सा है, जो आज भी बदस्तूर कायम है। मगर यह पहली बार नहीं है कि केरल की पार्टियां भारत के बाहर के किसी घटनाक्रम को लेकर उलझी हुई हैं। सीपीएम ने सद्दाम हुसैन का समर्थन किया था और इराक पर हमले के लिए अमेरिका को ‘सम्राज्यवादी ताकत’ बताया था। इसका 1991 के स्थानीय निकाय चुनावों में एलडीएफ को खूब फायदा मिला। 2020 के मध्य में जब तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन ने इस्तांबुल में हागिया सोफिया संग्रहालय को मस्जिद में बदलने की घोषणा की थी, तब भी केरल में भारी हंगामा हुआ था। यह मसला दोनों मोर्चों के बीच राजनीतिक जंग का विषय बन गया था, और एक तरफ जहां ईसाई आबादी मस्जिद का विरोध कर रही थी, वहीं मुस्लिम समुदायों के लिए यह स्वागतयोग्य कदम था। इसका भी लाभ तब की एलडीएफ सरकार को मिला।
कांग्रेस का जहां एक तरफ आईयूएमएल के साथ मधुर रिश्ता कायम है, तो वहीं यह पार्टी कई मुद्दों पर असहज रुख भी अपनाती रही है। मिसाल के तौर पर, आईयूएमएल के एक सदस्य ने मुख्यमंत्री पी विजयन की बेटी वीणा विजयन और उनके मंत्री पी ए मोहम्मद रियास की शादी का कड़ा विरोध किया था। इतना ही नहीं, आईयूएमएल विजयन सरकार के प्रगतिशील फैसलों पर भी कटाक्ष करती रही है। जैसे, जब स्कूली बच्चों के लिए ऐसी ड्रेस पेश की गई, जो छात्र-छात्राओं के बीच लैंगिक भेदभाव को खत्म करती है, तो आईयूएमएल के एक वरिष्ठ सांसद ने इसे ‘धर्म और पुरुष प्रभुत्व को नकारने को बढ़ावा देने की वामपंथी राजनीति’ कहा। हालांकि आईयूएमएल के विरोध का नाममात्र प्रभाव पड़ा। छात्र-छात्राओं व अभिभावकों ने इस कदम का खुले दिल से स्वागत किया।
इन तमाम ऊंच-नीच को छोड़ दें, तो आईयूएमएल विवादास्पद राजनीतिक मुद्दे पर आमतौर पर धर्मनिरपेक्ष और उदारवादी रुख अपनाती रही है और किसी चरमपंथी या उग्रवादी रुख को परिचय देने से बचती रही है। यही कारण है कि आईयूएमएल द्वारा कुछ मुद्दों पर आलोचना किए जाने के बावजूद यूडीएफ और एलडीएफ, दोनों को उसके साथ गठबंधन करने में कोई हिचकिचाहट नहीं है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं) 

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