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क्या गरीबों पर खर्च घट जाएगा 

कोविड-19 जैसा कोई दूसरा संकट नहीं और जैसी आशंका थी, इसने केंद्र सरकार के पूरे अंकगणित पर कहर बरपा दिया है। गिरते कर राजस्व और खर्च के बढ़ते दबाव से सरकार की जद्दोजहद साफ दिख रही है। इसलिए दो सवाल हैं,...

क्या गरीबों पर खर्च घट जाएगा 
यामिनी अय्यर, अध्यक्ष और मुख्य कार्यकारी, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्चTue, 02 Feb 2021 10:29 PM
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कोविड-19 जैसा कोई दूसरा संकट नहीं और जैसी आशंका थी, इसने केंद्र सरकार के पूरे अंकगणित पर कहर बरपा दिया है। गिरते कर राजस्व और खर्च के बढ़ते दबाव से सरकार की जद्दोजहद साफ दिख रही है। इसलिए दो सवाल हैं, जो इस बार के बजट से पूछे जाने की जरूरत है। एक, महामारी के कारण हुई भारी आर्थिक क्षति का मुकाबला करने के लिए सरकार ने अपनी व्यापक-राजकोषीय स्थिति को किस तरह फिर से खड़ा करने का प्रयास किया और कोविड-19 के कारण बिगडे़ आर्थिक संकट के जवाब में उसने जो नीतियां अपनाईं, उनके बारे में यह बजट क्या कहता है? दूसरा, अर्थव्यवस्था को फिर से सेहतमंद बनाने के लिए 2021-22 का बजट कैसी नीतिगत राह दिखाता है? वित्त वर्ष 2020-21 में लॉकडाउन से पैदा आर्थिक ठहराव के कारण राजस्व में गिरावट अपेक्षित थी, जबकि खर्च का दबाव बढ़ता चला गया। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को बधाई देनी चाहिए कि वित्तीय वर्ष 2025-26 तक राजकोषीय घाटे को युक्तिसंगत बनाने की राह तैयार करते हुए उन्होंने इस घाटे के आंकड़ों को साफगोई से सबके सामने रखा है। एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि खाद्य सब्सिडी के लिए ऑफ-बजट कर्ज (ऐसा कर्ज, जो सरकार खुद न लेकर किसी सरकारी संस्था को लेने के लिए कहती है। ये कर्ज सरकार के खर्च को पूरा करने में मदद करते हैं) की परंपरा को भी उन्होंने तोड़ा है। हालांकि, आंकड़ों पर गौर करें, तो तस्वीर कहीं अधिक जटिल जान पड़ती है।
पहली वजह, कर राजस्व बेशक लुढ़क गया, लेकिन केंद्र की आमदनी पर वास्तविक चोट विनिवेश में गिरावट और बही-खाता में ‘ऑफ-बजट खर्च’ (ऐसा खर्च, जिसकी चर्चा आम बजट में न हो) की आमद के कारण पड़ी है। दूसरा कारण, व्यय में बढ़ोतरी मूलत: खाद्य एवं खाद सब्सिडी (करीब 80 फीसदी) के कारण हुई है, जबकि 3.88 फीसदी वृद्धि की वजह स्वास्थ्य खर्च है। तीसरी वजह, करों के राजस्व-पुल में राज्यों की हिस्सेदारी 32 फीसदी के बजटीय अनुमान से घटकर 28.9 फीसदी (संशोधित अनुमान 2020-21) हो गई है। सरकार ने इस धारणा पर भरोसा किया है कि विनिवेश से होने वाली आय से खर्च संबंधी जरूरतों को वह पूरा कर लेगी। अच्छें वक्त में यह बुरी अर्थनीति मानी जाती है, मगर महामारी के समय में यह गंभीर रूप से नुकसान पहुंचा सकती है। सरकार पूंजी-प्रवाह को बढ़ाने के लिए यदि खर्च बढ़ाने या करों में कटौती जैसे बजटीय प्रावधानों से परहेज करती है, तो यह राजकोषीय कुप्रबंधन का नतीजा है, न कि कोविड-19 से मिले आर्थिक झटकों का। इस बार के बजट में विनिवेश पर जोर दिया गया है, जो स्वागतयोग्य तो है, पर यह खासा जोखिम भरा भी है। इन लक्ष्यों को पाने के लिए वित्त वर्ष 2021-22 में सरकार को बिना देरी मजबूत प्रतिबद्धता दिखानी पड़ेगी। 
दूसरा, वित्त वर्ष 2020-21 में खर्च में बढ़ोतरी सब्सिडी और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के माध्यम से जरूरी राहत देने तक सीमित थी। कुल मिलाकर, वित्त वर्ष 2021 में व्यय का जीडीपी बजट अनुमान 13.53 से बढ़कर 14.4 प्रतिशत हो गया। हालांकि, अर्थव्यवस्था ज्यादा सिमटी है और खर्चों में कम बढ़ोतरी हुई है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि इस वित्त वर्ष में केंद्र प्रायोजित योजनाओं का खर्च बढ़ा है। मनरेगा जैसी कुछ ही योजनाओं में सरकार ने खर्च बढ़ाया है, जबकि दूसरी अनेक योजनाओं का खर्च घटा है। कोरोना की वजह से राज्यों को बाजार से उधार लेने के लिए मजबूर किया गया है, क्योंकि केंद्र सरकार के करों में राज्यों का हिस्सा काफी घट गया था। राज्यों के बजट पर इसका दीर्घावधि में परिणाम दिखेगा। बेशक, राज्य सरकारें केंद्र सरकार की तुलना में ज्यादा बेहतर राजकोषीय अनुशासन का प्रदर्शन करती हैं। जैसा कि इस लेख में हम चर्चा कर चुके हैं कि लॉकडाउन के बाद के आर्थिक सुधार असमानता को गहरा करने के संकेत दे रहे हैं। अब आर्थिक गतिविधियां महामारी पूर्व की स्थिति के करीब पहुंच गई हैं, लेकिन यह काफी हद तक लाभ द्वारा संचालित हैं। बड़ी सूचीबद्ध कंपनियों ने छोटी कंपनियों व असंगठित क्षेत्र की कीमत पर मुनाफा बटोरा है। इसका श्रम बाजार पर गहरा असर हुआ है, खासकर असंगठित क्षेत्र में श्रम पर संकट गहराया है। अच्छी अर्थनीति या नैतिकता तो यही है कि इस प्रवृत्ति या ढर्रे को उलट दिया जाए। आखिरकार, यदि बहुसंख्यकों या ज्यादातर लोगों की क्रय शक्ति कम रहती है, तो मांग में गिरावट आएगी। इस संदर्भ में वित्तीय वर्ष 2021-22 के बजट में जन-कल्याण के लिए होने वाले खर्च में बढ़ोतरी करनी चाहिए। जन-कल्याणकारी योजनाएं होती ही इसलिए हैं कि वे समावेशी सामाजिक सुरक्षा ढांचे का निर्माण करें। कमजोर समूहों को बल प्रदान करें। विशेष रूप से प्रवासी मजदूरों और उनके पूंजीगत व्यय बढ़ाने का काम ऐसी जन-कल्याण योजनाएं करती हैं। पहली नजर में देखें, तो सोमवार को पेश बजट में सरकार ने केवल पूंजीगत व्यय सुधार की दिशा में काम किया है। सुधार के लक्ष्य के साथ कई महत्वपूर्ण घोषणाएं की गई हैं, जिन्हें अर्थशास्त्री अरविंद सुब्रमण्यन ने ‘सॉफ्टवेयर’ कहा है, जैसे एक खराब बैंक का निपटारा, डीएफआई के लिए प्रस्ताव और बैंक पुनर्पूंजीकरण। ये सभी सही दिशा में उठाए गए कदम हैं। हालांकि, यहां होने वाली बढ़ोतरी तुरंत रोजगार में तब्दील नहीं होगी और न गरीबों की मजदूरी बढ़ाएगी। अभी शासन के सामने ऐसी चुनौतियां हैं, जिन्हें रातोंरात दुरुस्त नहीं किया जा सकता। इस संदर्भ में यह मान लेना एक गलती होगी कि वित्त वर्ष 2021-22 अपने कल्याणकारी व्यय कम करने के लिए सरकार को मौका देगा। लेकिन वित्त वर्ष इस वर्ष के बजट में खाद्य सब्सिडी और मनरेगा के आवंटन में कटौती साफ है। ऐसे कदम कतई तसल्ली नहीं देते कि सरकार देश के असंगठित क्षेत्र और शहरी श्रमिकों की कमजोरियों, समस्याओं को दूर करेगी। हम इतना जरूर कह सकते हैं कि वित्त वर्ष 2022 में 2015 की तुलना में थोड़ा नियोजित विकास होगा। महामारी ने भारत के गरीब और कमजोर लोगों पर काफी प्रतिकूल प्रभाव डाला है। उम्मीद यह थी कि यह बजट विस्तारवादी राजकोषीय रुख अपनाकर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के दौरान उनकी जरूरतों को संबोधित करेगा, लेकिन यह हुआ नहीं।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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