केरल मॉडल : विफलता या राजनीति
कोरोना संक्रमण के मामलों में लगातार वृद्धि को लेकर केरल पिछले हफ्ते से खबरों में है। यहां हर दिन 20,000 से अधिक नए मामले दर्ज किए जा रहे हैं, जो इस वक्त देश भर के दैनिक मामलों का लगभग 50 फीसदी है।...
कोरोना संक्रमण के मामलों में लगातार वृद्धि को लेकर केरल पिछले हफ्ते से खबरों में है। यहां हर दिन 20,000 से अधिक नए मामले दर्ज किए जा रहे हैं, जो इस वक्त देश भर के दैनिक मामलों का लगभग 50 फीसदी है। इसने नई दिल्ली और देश के बाकी हिस्सों के लिए खतरे की घंटी बजा दी है। हालात का आकलन करने के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय ने आनन-फानन एक टीम तिरुवनंतपुरम भेजी। केंद्र सरकार ने भी आगाह किया कि ‘सुपर स्प्रेडर’ आयोजनों की अनदेखी करके यहां की स्थिति को नियंत्रण से बाहर नहीं होने देना चाहिए। एक सप्ताह पहले सर्वोच्च न्यायालय ने भी केरल सरकार को फटकार लगाते हुए कहा था कि उसे बकरीद की पूर्व संध्या पर लॉकडाउन प्रतिबंधों में ढील नहीं देनी चाहिए। शीर्ष अदालत ने उत्तर प्रदेश में भी कांवड़ यात्रा पर अपनी नाराजगी जताते हुए स्पष्ट कर दिया था कि लोगों की सेहत को धार्मिक आयोजनों पर प्राथमिकता देनी चाहिए। ‘इंडियन मेडिकल एसोसिएशन’ की केरल इकाई ने भी राज्य सरकार को चेताते हुए कहा था कि लॉकडाउन में ढील की उसकी नीति गलत है। एसोसिएशन के मुताबिक, यह नीति महामारी को रोकने के बजाय लोगों को बड़ी संख्या में इकट्ठा होने के लिए प्रोत्साहित करेगी। यह उचित नहीं होगा।
यह सब आखिर कैसे हो गया? कोरोना की दोनों लहरों से अच्छी तरह से लड़कर ‘आदर्श’ राज्य बनने वाला केरल क्या फिसल रहा है? क्या यह सूबा अराजक हो गया है और दूसरे राज्यों के लिए खतरा बन गया है? क्या पी विजयन के नेतृत्व वाली वाम मोर्चा सरकार अपनी सफलता खो रही है? केरल के जिस स्वास्थ्य तंत्र की चहुंओर प्रशंसा हो रही थी, वह कहां है? आखिर संक्रमण का स्तर क्यों बढ़ रहा है?
इन तमाम सवालों से इतर महामारी विज्ञानी और वायरस विशेषज्ञ यही बताते हैं कि केरल कतई अपराधी नहीं है, बल्कि इसने कोरोना के हालात को अच्छी तरह संभाला है। उनके मुताबिक, केरल मॉडल प्रासंगिक था और अन्य राज्यों को उसे अपनाना चाहिए। वे इस बात पर भी जोर देते हैं कि वास्तविक स्थिति को समझने के लिए केरल के हालात और उसके डाटा का गहन अध्ययन किया जाना चाहिए। तो फिर केरल की इस विडंबना को किस तरह से देखा जाए?
पहले इन आंकड़ों पर गौर कीजिए। आईसीएमआर का हालिया सीरो-सर्वे कहता है कि देश भर में जहां 68 फीसदी आबादी संक्रमित हो चुकी है, वहीं केरल में यह संख्या 43 फीसदी है। महामारी विज्ञानी इसे अच्छे प्रबंधन का संकेत मानते हैं। फिर, केरल ने अपनी 20 फीसदी वयस्क आबादी का पूर्ण टीकाकरण कर दिया है, जबकि राष्ट्रीय औसत 7.5 प्रतिशत है। यहां तो 38 फीसदी लोगों को टीके की कम से कम एक खुराक मिल चुकी है, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह आंकड़ा 25 फीसदी है। यही नहीं, केरल प्रतिदिन औसतन 1.4 लाख जांच कर रहा था, जो अन्य राज्यों से काफी ज्यादा है। जैसे, पश्चिम बंगाल की आबादी केरल से तीन गुनी ज्यादा है, वहां हर दिन लगभग 50,000 लोगों की जांच हो रही थी। बिहार व उत्तर प्रदेश जैसे राज्य भी अपनी जनसंख्या की तुलना मे कम जांच कर रहे थे, जबकि अधिक जांच का अर्थ होता है, अधिक मरीजों की पहचान करना। प्रति दस लाख लोगों पर की गई जांच के मामले में भी केरल का रिकॉर्ड देश के बाकी हिस्से की तुलना में दोगुने से अधिक है। रैंडम, यानी क्रमरहित जांच के बजाय राज्य सरकार ने बेहतर नतीजे देने वाले लक्षित परीक्षण किए।
दरअसल, राज्यों द्वारा अपने खराब प्रदर्शन को छिपाने के लिए कम जांच की जाती है। ईमानदार राज्य जहां अपनी परीक्षण-नीति और जांच-संख्या की खुली मुनादी करते हैं, तो वहीं तंत्र से खेलने वाले इससे परहेज करते हैं। यह ठीक अपराध दर सरीखा मामला है। जैसे राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकडे़ बताते हैं कि जो राज्य प्राथमिकी दर्ज करने में आनाकानी नहीं करते, वहां अपराध ज्यादा दिखता है, क्योंकि वे आंकड़े छिपाते नहीं हैं।
कुछ अन्य आंकडे़ भी केरल के पक्ष में हैं। जैसे, वहां संक्रमितों की संख्या ज्यादा होने के बावजूद अस्पतालों पर दबाव नहीं है। अस्पतालों के 50 फीसदी सामान्य व आईसीयू बेड और आधे से अधिक वेंटिलेटर खाली हैं। वहां मृत्यु दर भी सिर्फ 0.5 फीसदी है, जबकि राष्ट्रीय औसत 1.3 प्रतिशत है। फिर कई स्वतंत्र अध्ययन बताते हैं कि केरल अपने यहां मौत को स्वीकार करने के मामले में ईमानदार रहा है। यहां सरकारी आंकड़ा से संभवत: 1.6 फीसदी अधिक मौत हुई है, जबकि देश के कुछ सूबों में तो दर्ज की गई संख्या से 30 से 36 गुना अधिक लोग मरे हैं। इसीलिए मृत्यु दर के मामले में केरल को ईमानदार माना जा रहा है।
केरल की यह स्थिति तब है, जब जन-सांख्यिकी के मामले में उसकी दो अलग-अलग चुनौतियां हैं। मसलन, दूसरे राज्यों की तुलना में यहां बुजुर्गों का अनुपात अधिक है। और, महज 3.5 करोड़ आबादी के बावजूद भू-क्षेत्रफल कम होने के कारण इसकी बसावट घनी है। इन सबसे संक्रमण के प्रबंधन पर दबाव पड़ता है। इसने अन्य राज्यों की तुलना में अपनी ‘जीनोम सिक्वेंसिंग’ भी जल्दी कर ली, इसीलिए यह ‘म्यूटेशन’ यानी वायरस के नए रूप की पहचान करने के मामले में बेहतर स्थिति में है। कुछ वायरस विज्ञानी तो यही भी मानते हैं कि यहां इसलिए संक्रमण अब अधिक दिख रहा है, क्योंकि यहां डेल्टा वेरिएंट देर से आया है। हालांकि, इन सबका मतलब यह नहीं है कि केरल में सब कुछ दुरुस्त है। राज्य को अपना सुरक्षा कवच मजबूत बनाना होगा, क्योंकि आरओ, यानी संक्रमण का प्रसार बताने वाली संख्या काफी ज्यादा 1.2 फीसदी है। यहां के कुछ इलाकों में सख्त लॉकडाउन की आवश्यकता है, क्योंकि इसके आधे से भी अधिक जिलों में संक्रमण दर दोहरे अंकों में पहुंच गई है। हालांकि, राज्य सरकार को विश्वास है कि मजबूत स्वास्थ्य ढांचे से वह हालात संभालने में सफल रहेगी। लिहाजा, केंद्र को राज्य का समर्थन करना चाहिए। केरल मॉडल के राजनीतिकरण से हर किसी को बचना चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)