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पेगासस से आगे खड़े खतरे

कभी इजरायल की सरकार जिस पेगासस स्पाईवेयर को अपनी उपलब्धि बताकर दुनिया भर के देशों को बेचा करती थी, अब उसे ही पेगासस बनाने वाली कंपनी के दफ्तरों पर छापा डालना पड़ रहा है। फ्रांस की सरकार ने जिस तरह से...

पेगासस से आगे खड़े खतरे
हरजिंदर, वरिष्ठ पत्रकार   Sun, 01 Aug 2021 09:28 PM
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कभी इजरायल की सरकार जिस पेगासस स्पाईवेयर को अपनी उपलब्धि बताकर दुनिया भर के देशों को बेचा करती थी, अब उसे ही पेगासस बनाने वाली कंपनी के दफ्तरों पर छापा डालना पड़ रहा है। फ्रांस की सरकार ने जिस तरह से इस मसले पर अपना विरोध जताया, उसके बाद इजरायल सरकार के पास कोई चारा भी नहीं था। दुनिया भर में इजरायल के साथ खड़ी होने वाली सरकारें वैसे ही बहुत कम हैं। ऐसे में, पश्चिमी यूरोप के एक महत्वपूर्ण देश को अपना विरोधी बनाना उसे महंगा पड़ सकता था। यह संकट कितना बड़ा था, इसे इससे भी समझा जा सकता है कि बात ज्यादा न बिगड़े, इसके लिए इजरायल को अपने रक्षा मंत्री को पेरिस भेजना पड़ा। फ्रांस का विरोध भी पूरी तरह जायज था। तो क्या इजरायल सरकार की ताजा सक्रियता से पेगासस पीड़ित लोग या देश और निजता व मानवाधिकारों की चिंता करने वाले कोई उम्मीद बांध सकते हैं? शायद नहीं।
वैसे उम्मीद बांधने का एक और कारण मौजूद है। संयुक्त राष्ट्र के एक प्रस्ताव को इन दिनों फिर से झाड़-पोंछकर निकाला गया है, जो इस तरह के स्पाईवेयर, यानी जासूसी सॉफ्टवेयर को खरीदने-बेचने पर पाबंदी लगाने की बात करता है। हालांकि, संयुक्त राष्ट्र के ऐसे प्रस्ताव अगर वाकई किसी काम के होते, तो दुनिया में आतंकवाद कब का खत्म हो गया होता और कहीं भी न अंतरराष्ट्रीय रंजिशें होतीं और न हथियारों की होड़।

इस पूरे मामले की जटिलता को समझने के लिए हमें पेगासस को समझना होगा। पेगासस एक व्यावसायिक स्पाईवेयर है, जिसे एनएसओ नाम की इजरायली कंपनी बनाती और दुनिया भर में बेचती है। ऐसी कंपनियों की बहुत सी बातें सार्वजनिक होती हैं, जैसे उनके स्वामित्व की जानकारी, उनके लाभ-हानि का खाता आदि। फिर ऐसी कंपनियों को ज्यादा बिक्री करने और ज्यादा लाभ कमाने के लिए अपना लगातार प्रचार करना होता है। ऐसे में, बहुत सारी बातें छिपी नहीं रह सकतीं, बावजूद तमाम सावधानियों के। लेकिन स्पाईवेयर के सभी मामलों में ऐसा नहीं होता।
तीन साल पहले जब गूगल आईफोन में इस्तेमाल होने वाले अपने एप की जांच कर रहा था, तब उसने पाया कि आईफोन में एक ऐसा स्पाईवेयर है, जो उपयोगकर्ताओं के संदेश और कई अन्य डाटा चुरा रहा है। आगे जांच में यह भी स्पष्ट हो गया कि सारा डाटा चीन के किसी ऐसे सर्वर में पहुंचाया जा रहा है, जो इस चोरी में चीन की सरकार के शामिल होने की ओर इशारा करता था। सरकारें या सरकारी संस्थाएं जब ऐसे काम करती हैं, तब सब कुछ चुपचाप होता है और बड़ी मुश्किल से या संयोगवश ही किसी को उसकी भनक लग पाती है। इसी घटना के बाद से चीन में बने सभी एप और सॉफ्टवेयर को पूरी दुनिया में शक की नजरों से देखा जाता है।
यह माना जाता है कि अगर जासूसी की कोई आधुनिक तकनीक संभव है, तो वह अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए के पास तो होगी ही। सीआईए में काम कर चुके व्हिसल ब्लोअर एडवर्ड स्नोडेन ने जो खुलासे किए हैं, वे इसके बारे में बहुत कुछ बताते हैं। सॉफ्टवेयर तकनीक के जानकार स्नोडेन ने ऐसे कुछ तरीकों का प्रदर्शन भी किया है, जिनके जरिये इस तरह की जासूसी से बचा जा सकता है। लेकिन स्नोडेन ने जब सीआईए छोड़ा था, तब से अब तक तकनीकी जासूसी वाली महारत काफी आगे बढ़ चुकी होगी।
अगर सीआईए ऐसा कर सकती है, तो ब्रिटिश खुफिया एजेंसी एमआई-5 ने ऐसी कोशिश नहीं की होगी, यह कैसे मान लिया जाए? साइबर जासूसी में रूस के कारनामे तो पिछले कुछ समय से दुनिया भर में चर्चा का विषय बने हुए हैं। और यह मानने का भी कोई कारण नहीं है कि इजरायल से विरोध जताने वाले फ्रांस की खुफिया एजेंसी डीजीएसई ने ऐसी कोशिश से परहेज किया होगा। खुद भारत ने भी ऐसे कामों के लिए नेशनल टेक्निकल रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन नामक संस्था बनाई है, जो सीधे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के मातहत काम करती है। अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में बनी यह संस्था कितनी सफल रही है, इसे हम नहीं जानते, लेकिन कुछ घपलों-घोटालों के लिए यह विवादों में जरूर रही है। वैसे यह भी माना जाता है कि सफल खुफियागिरी वही है, जिसकी सफलता-विफलता के बारे में किसी को खबर न लगे। ऐसे काम क्योंकि सरकारी एजेंसियां करती हैं, इसलिए अमूमन उनके बारे में बहुत ज्यादा पता नहीं चल पाता है। 
पेगासस सरकारी एजेंसी न होकर एक निजी कंपनी है, इसलिए विवाद उठते ही उसके बारे में बहुत कुछ पता चल गया। यह भी मालूम हो गया कि उसके स्पाईवेयर की कीमत कितनी है और यह भी कि जिन स्मार्टफोन की इससे जासूसी की जा रही है, यह उन सबकी कुल कीमत से भी हजारों गुना महंगा है। पहली नजर में यह धंधा काफी मुनाफे वाला लगता है, और इसलिए संभव है कि दुनिया भर की अन्य कंपनियां भी इस कारोबार में कूदने की कोशिश करें। यह भी हो सकता है कि कैलिफोर्निया की कोई कंपनी इसे विकसित करने का काम बेंगलुरु या गुड़गांव के किसी स्टार्टअप को सौंप दे। फिर, जो पाकिस्तान परमाणु बम बनाने की कोशिश कर सकता है, वह इसे बनाने की कोशिश क्यों नहीं करेगा?
पेगासस का मामला दरअसल एक ऐसी दुनिया में आया है, जो निजता के हनन के खिलाफ अपनी लड़ाई लगभग हार चुकी है। आपकी निजता हर क्षण बड़े पैमाने पर दुनिया भर के बड़े-बड़े सर्वरों के हवाले हो रही है। इसका एक मुकम्मल बाजार विकसित हो चुका है, जहां हमारी-आपकी निजता की बोली भी लगती है और इसकी खरीद-फरोख्त भी होती है। पेगासस जैसे स्पाईवेयर किसी की भी निजता को हड़पने का यही काम ज्यादा गहराई से करते हैं, लेकिन वे इस बाजार में नहीं आते। वे निजता के कारोबार में नहीं हैं, बल्कि वे निजता के राजनीतिक इस्तेमाल के लिए बनाए गए हैं, जो कई तरह से ज्यादा खतरनाक बात है।
जब तक दुनिया में निजता के हनन के तरीके मौजूद हैं, ऐसे स्पाईवेयर विकसित होते रहेंगे। क्या इन्हें रोका जा सकता है? खासतौर पर तब, जब इसके लिए लड़ने वाली ताकतें थक चुकी हैं और कई अदालतों में हार चुकी हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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