हनियेह की हत्या से क्या हार जाएगा हमास
पहले हिजबुल्लाह कमांडर फउद शुकर और उसके चंद घंटे बाद ही हमास नेता इस्माइल हनियेह को मार गिराने की घटना क्या पश्चिम एशिया को और अस्थिर करेगी? वास्तव में, लेबनान और ईरान में हुई इन दोनों कार्रवाइयों...
पहले हिजबुल्लाह कमांडर फउद शुकर और उसके चंद घंटे बाद ही हमास नेता इस्माइल हनियेह को मार गिराने की घटना क्या पश्चिम एशिया को और अस्थिर करेगी? वास्तव में, लेबनान और ईरान में हुई इन दोनों कार्रवाइयों में कोई तारतम्य नहीं है, सिवाय इसके कि ये दोनों आतंकी समूह इजरायल के खिलाफ आक्रामक रहे हैं। हिजबुल्लाह लेबनान सीमा से लगातार सक्रिय रहा है, और फउद शुकर की मौत को उस गोलान हाइट्स हमले का जवाब बताया गया है, जिसमें हिजबुल्लाह आतंकियों ने मिसाइल हमले से फुटबॉल खेल रहे इजरायली बच्चों को निशाना बनाया था। जबकि, हमास गाजापट्टी से आक्रामकता दिखाता रहा है। 7 अक्तूबर, 2023 की घटना के बाद तो हमास और इजरायल के बीच शह-मात का मानो निर्णायक खेल चल रहा है।
बेशक, इस्माइल हनियेह पर हमले की इजरायल ने जिम्मेदारी नहीं ली है, लेकिन हमास के शीर्ष नेताओं के खिलाफ वह ऐसी कार्रवाइयां करता रहा है। इसकी शुरुआत 2004 से हुई, जब हमास के संस्थापक शेख अहमद यासीन को अहले सुबह मस्जिद से बाहर आते ही मार गिराया गया। इसके बाद दूसरे नंबर के नेता माने जाने वाले अब्दुल अजीज अल-रंतीसी को भी इसी तरह मिसाइल हमले से ढेर किया गया। माना गया था कि इससे हमास कमजोर पड़ जाएगा, लेकिन इस्माइल हनियेह ने पहले बतौर प्रधानमंत्री और फिर 2017 में स्वेच्छा से पद छोड़ते हुए कतर, तुर्किये ईरान जैसे कई देशों से समर्थन जुटाने में सफलता प्राप्त की। इजरायल की सुरक्षा एजेंसियों को चकमा देते हुए उन्होंने हमास को हथियार भी दिलवाए और रसद-सामग्रियां भी। इसी के कारण वह लंबे अरसे से इजरायल की आंखों में खटकने लगे थे, जिसकी परिणति उनकी हत्या के रूप में सामने आई है।
सवाल है, अब आगे क्या होगा? इस हत्या की कई तरह से व्याख्या की जा रही है। एक सोच यह है कि हमास नेता को पहले भी इसी तरह मारा जाता रहा है और चूंकि यह एक कट्टर इस्लामी जमात है, इसलिए बडे़ और मित्र-देश शायद ही खुलकर उसका साथ देंगे। वैसे भी, इजरायल को तभी घेरा जा सकेगा, जब वह इसकी जिम्मेदारी लेगा, लेकिन उसके पूर्व के रिकॉर्ड को देखते हुए इसकी संभावना नहीं लगती। यदि कोई कमेटी बनाकर इजरायल को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास किया भी गया, तो हो सकता है कि सुरक्षा मसला बताकर वह इस हमले को जायज ठहराए। उसका यह तर्क काम भी करेगा, क्योंकि हमास की हिंसक गतिविधियां जगजाहिर हैं।
दूसरा तर्क यह है कि हमास के मित्र-देश इस हत्या को लेकर राजनीतिक रूप से नाराजगी दिखाएं। इजरायल के खिलाफ इन देशों ने ही हमास को खड़ा किया है। मगर दिक्कत यह है कि पिछले दस महीने से जारी इजरायली हमलों में हमास बिखर-सा गया है। उसके नेता जहां-तहां छिपे हुए हैं और उसके प्रति स्थानीय लोगों का समर्थन भी घट रहा है। यही कारण है कि ईरान या तुर्किये जैसे देश छद्म रूप से जवाबी कार्रवाई को आगे बढ़ा सकते हैं।
तुर्किये ने तो कुछ दिनों पहले इजरायल के घर में घुसने की धमकी भी दी थी, लेकिन इजरायल ने भी जवाब देने में देरी नहीं की। अब उसकी प्रतिक्रिया क्या रहती है, यह देखने वाली बात होगी। हां, तेहरान सीधी कार्रवाई कर सकता है, क्योंकि हनियेह बतौर सरकारी मेहमान उसके यहां आए थे, जहां उनको मार गिराया गया है। पिछले साल दमिश्क हमले में अपने दो सैन्य कमांडरों को खोने के बाद उसने इजरायल पर मिसाइल और ड्रोन से हमला किया भी था।
मगर ऐसी किसी जवाबी कार्रवाई के अपने नुकसान भी हैं। दरअसल, कोई भी देश क्षेत्रीय तनाव को बढ़ाना नहीं चाहता। यह उनके लिए घाटे का सौदा हो सकता है, क्योंकि ईरान हो या तुर्किये, किसी की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। यह देखते हुए कि अब सीधी जंग लंबी चलने लगी है, कोई भी नया मोर्चा खोलने से इन देशों की अर्थव्यवस्था कमजोर ही होगी। इतना ही नहीं, इन दिनों पश्चिम एशियाई देशों में आंतरिक उथल-पुथल भी तेज है। ईरान न सिर्फ अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों में उलझा हुआ है, बल्कि पिछले दिनों उसने अपने राष्ट्रपति को भी खो दिया। वहां नौजवानों की अपनी सरकार से नाराजगी भी बढ़ रही है, जिसे थामना उसके लिए एक बड़ी चुनौती है। वहीं तुर्किये में राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन की लोकप्रियता लगातार गिर रही है। सऊदी अरब जैसे तेल बहुल खाड़ी के देश भी किसी नए तनाव के पक्ष में नहीं हैं, क्योंकि इससे उनकी तेल की आपूर्ति शृंखला प्रभावित हो सकती है और उनको आर्थिक घाटा हो सकता है।
वैसे, इन कार्रवाइयों पर खुद इजरायल के अंदर भी मतभेद हैं। वहां की राजनीति इस मसले पर बंटी हुई है। विपक्ष का आरोप है कि नेतन्याहू सरकार ऐसा करके न सिर्फ हमास के कब्जे में फंसे इजरायलियों के जीवन से खेल रही है, बल्कि देश में आक्रामक माहौल बनाए रखकर सियासी लाभ लेना चाहती है। मगर प्रधानमंत्री नेतन्याहू इन आरोपों को खारिज करते रहे हैं। हालांकि, उनका जनाधार भी इन दिनों कम हुआ है।
इन सबसे अमेरिका की स्थिति अजीबोगरीब हो गई है। इजरायल-हमास युद्ध रुकवाने के लिए उसने कूटनीतिक पहल तेज कर दी थी। इजरायल को मिलने वाली मदद को रोककर उसने नेतन्याहू पर दबाव बनाने की भी कोशिश की थी। मगर इन हमलों के बाद शांति के सभी प्रयास बेपटरी हो गए हैं। अब नजर इस बात पर बनी रहेगी कि कैसे बाइडन प्रशासन इजरायल को शांति की राह पर चलने को मजबूर कर पाता है?
जाहिर है, पश्चिम एशिया में हाल-फिलहाल कोई बड़ी उथल-पुथल नहीं होने वाली। हां, हमास कुछ हद तक प्रतिरोध कर सकता है, लेकिन वह कितना बड़ा होगा, यह अभी नहीं कहा जा सकता। इजरायल ऐसी कार्रवाइयों से भले हमास का सांगठनिक ढांचा खत्म कर दे, लेकिन जब तक वैचारिक रूप से उसे खत्म नहीं किया जा सकेगा, तब तक इस आतंकी समूह का सफाया नहीं हो सकता। यही कारण है कि दुनिया के तमाम शांतिप्रिय देश वार्ता की मेज पर ऐसे मसले का हल तलाशने की बात कहते रहे हैं। कोई भी राष्ट्र इस तरह की कार्रवाई को जायज नहीं ठहरा रहा। हालांकि, सच यह भी है कि ताकतवर देश अपने दुश्मनों के खिलाफ ऐसे गुप्त अभियान करते रहे हैं। बहरहाल, अब सबकी नजर जवाबी कार्रवाइयों पर टिक गई है। हमास-इजरायल जंग अभी जारी रहेगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)