गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रीय राजधानी में जो घटित हुआ, वह न केवल दुखद, बल्कि निंदनीय भी है। गणतंत्र दिवस पर परेड या प्रभात फेरी की परंपरा है, लेकिन इस दिन अगर कोई मार्च या रैली निकाले, तो चिंता गैर-वाजिब नहीं। जो हुआ है, उसका अंदेशा था, लेकिन एक विश्वास भी था कि गणतंत्र दिवस की लाज कायम रहेगी। आज स्वयं किसान नेता कह रहे हैं कि हमारा आंदोलन कलंकित हुआ है। बड़ी संख्या में किसान सरकार की मर्जी के खिलाफ गए हैं। जगह-जगह पुलिस द्वारा लगाई गई बाधाओं का टूटना गवाही दे रहा है कि किसान एकमत नहीं हैं। उन किसान नेताओं को अवश्य घेरे में लेना चाहिए, जिन्होंने खुद किसान नेताओं की जुबान का मखौल उड़ाया है। भले किसानों या उनके नेताओं की मंशा ठीक रही हो, लेकिन मनमर्जी से मार्च निकालने से जो संदेश गया है, उसके निहितार्थ गहरे हैं, जिसकी विवेचना आने वाले अनेक दिनों तक होती रहेगी। अव्वल तो एकजुट दिख रहे किसानों में फूट पड़ चुकी है और इसके साथ ही यह आंदोलन अपना बहुचर्चित गरिमामय स्वरूप खो चुका है। एक तरफ किसान नेता कह रहे हैं कि असामाजिक तत्वों ने आंदोलन को बिगाड़ दिया, वहीं कुछ किसान नेता लाल किले के दृश्य देखकर खुशी का इजहार रोक नहीं पा रहे। किसी को यह प्रदर्शन दुर्भाग्यपूर्ण लग रहा है, तो कोई अभिभूत है। अब किसानों को पहले परस्पर बैठकर आगे के आंदोलन की दिशा तय करनी पडे़गी। पुलिस और किसान नेताओं ने जो रास्ता तय किया था, वह रास्ता पीछे छूट चुका है, उस पीछे छूटे रास्ते पर लौटने के लिए किसानों को नए सिरे से जोर लगाना पड़ेगा। दूसरा, अब यह प्रश्न खड़ा हो गया है कि सरकार आगे की बातचीत किससे करे? आगे की राह अनुशासित किसान तय करेंगे या अनुशासन की पालना न करने वाले? एक आंदोलन का संयम और भरोसा टूटा है, तो उसकी भरपाई कैसे होगी, दिग्गज किसानों और उनके कर्णधारों को ही बैठकर तय करना होगा। तीसरा, किसान अपनी मांगों पर पहले से ज्यादा अड़ेंगे और सरकार के सामने उन्होंने अपनी हदों का प्रदर्शन कर दिया है। जो हो चुका, उसे लौटाया नहीं जा सकता और न लाल किले के दृश्य जल्दी भुलाए जा सकते हैं। अक्सर आंदोलनों में देखा गया है कि हदें दर हदें टूटती चली जाती हैं। अब किसान नेताओं की चुनौती दोगुनी हो गई है, क्योंकि उनकी विश्वसनीयता और प्रासंगिकता पर सवाल खड़े हो गए हैं।
चौथा, अब सरकार की तुलना में पुलिस को ज्यादा तैयारी से रहना होगा। गणतंत्र दिवस पर पुलिस की तैयारी पर्याप्त नहीं थी, तभी किसानों के काफिले तय रास्ते से अलग बढ़ चले। दूसरी ओर, अगर पुलिस ने स्वयं किसानों को आगे बढ़ने दिया है, तो यह अच्छा संकेत नहीं है। ऐसा ही विश्वास भंग अन्य आंदोलन के समय भी हो सकता है। आंदोलन जब अपनी मांग से मुकरेंगे, तो दिल्ली की मिसाल दी जाएगी। हर जगह पुलिस से उम्मीद की जाएगी कि वह रास्ते से हट जाए। आने वाले दिनों में पुलिस को बताना होगा कि उसने किसानों को ऐसे क्यों बढ़ने दिया? क्या खुफिया एजेंसियों को कोई खबर नहीं थी?
जरूरी नहीं कि पुलिस हिंसा करके ही किसानों को रोकती, लेकिन कम से कम वह तो न होता, जो हो गया। यह गणतंत्र दिवस हमें सबक दे गया है कि एक जिम्मेदार नागरिक समाज और व्यवस्था के रूप में हमारा विकास शेष है।