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रूस-चीन दोस्ती और हमारी चिंताएं

पिछले हफ्ते रूस ने चीन के साथ मिलकर सोवियत युग के बाद का अपना सबसे बड़ा सैन्य अभ्यास किया। उन दिनों चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भी व्लादिवोस्तोक में आयोजित पूर्वी आर्थिक मंच की बैठक में शामिल होने के...

रूस-चीन दोस्ती और हमारी चिंताएं
हर्ष वी पंत, किंग्स कॉलेज लंदन, ब्रिटेनWed, 19 Sep 2018 11:19 PM
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पिछले हफ्ते रूस ने चीन के साथ मिलकर सोवियत युग के बाद का अपना सबसे बड़ा सैन्य अभ्यास किया। उन दिनों चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भी व्लादिवोस्तोक में आयोजित पूर्वी आर्थिक मंच की बैठक में शामिल होने के लिए रूस में ही थे। वहां उन्होंने रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ कैवीआर (मछली के अंडों से बना व्यंजन) और पैन्केक के साथ वोदका का लुत्फ भी उठाया। ऐसा कर वे कई संदेश दे रहे थे। एक पैगाम तो रूस और चीन के लोगों के लिए था। ये दोनों नेता सैन्य राष्ट्रवाद का इस्तेमाल कर अपने-अपने मुल्क में अपनी हैसियत मजबूत बना रहे थे। और दूसरा संदेश पश्चिम, खासकर अमेरिका के लिए था कि अब ये दोनों बड़ी ताकतें एक-दूसरे का हाथ थामने जा रही हैं। 

रूसी रक्षा मंत्रालय ने दावा किया है कि इस युद्धाभ्यास में करीब तीन लाख सैनिकों ने हिस्सा लिया। हालांकि रूस और चीन की सेनाएं पहले भी साझा बहुराष्ट्रीय अभ्यासों में एक साथ शामिल हो चुकी हैं, मगर ‘वोस्तोक- 2018’ में 30 विमानों के साथ चीन के 3,200 सैनिकों की हिस्सेदारी से इसे एक नया आयाम मिला है। रूस ने पिछले साल का युद्धाभ्यास ‘जापाद- 2017’ नाटो के साथ मिलकर पश्चिमी सीमा पर किया था, मगर ‘वोस्तोक- 2018’ युद्धाभ्यास उस इलाके में किया गया, जहां से कुछ ही दूरी पर तत्कालीन सोवियत संघ और चीन ने 1969 में एक वास्तविक जंग लड़ी थी। जाहिर है, यह बदलते समय का संकेत देता है।

स्वाभाविक ही है कि इस सैन्य कवायद पर अमेरिका की नजर रही। दरअसल, टं्रप प्रशासन ने हाल ही में अपनी नई राष्ट्रीय सुरक्षा नीति की घोषणा की है। इस नीति में रूस और चीन के साथ ‘सामरिक प्रतिस्पद्र्धा’ की बात कही गई है। फिर, अमेरिका के रिश्ते इन दोनों देशों के साथ बढ़ते प्रतिबंधों के कारण भी बिगड़े हुए हैं। हालांकि, अमेरिकी रक्षा सचिव जिम मैटिस ने इस युद्धाभ्यास को महत्वहीन बताते हुए लंबे समय तक रूस और चीन की दोस्ती कायम रहने पर शंका जाहिर की है।

रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने कहा है कि रूस ‘एक शांतिप्रिय देश’ है, मगर युद्धाभ्यास को उचित ठहाराते हुए उन्होंने इसे अपनी रक्षा में उठाया गया कदम बताया। एक संबोधन में उन्होंने कहा, ‘हमारे देश, हमारी मातृभूमि के प्रति हमारा यह कर्तव्य है कि हम इसकी संप्रभुता, सुरक्षा और राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए हमेशा तैयार रहें। और यदि जरूरत पडे़, तो अपने मित्र देशों की भी हरसंभव मदद करें’।

यह दिलचस्प है कि कुछ क्षेत्रों में मतभेद होने के बावजूद चीन आज रूस का एक महत्वपूर्ण साझीदार बनकर उभरा है। चूंकि पश्चिमी मुल्कों के साथ रूस के रिश्ते बिगड़ गए हैं, इसलिए व्यापार और सैन्य सहयोग में वह चीन के काफी करीब आ गया है। कुछ साल पहले तक यह सोचा भी नहीं जा सकता था। इतना ही नहीं, रूस में चीन का निवेश लगातार बढ़ रहा है। चीन सबसे ज्यादा तेल अब रूस से ही मंगवाने लगा है, और अगले कुछ वर्षों में वह चीन के प्राकृतिक गैस का सबसे बड़ा स्रोत भी बन जाएगा। ऐसे वक्त में, जब ज्यादातर देशों के साथ रूस के कारोबारी रिश्ते लुढ़क रहे हैं, चीन उसके लिए एक बहुमूल्य ठिकाना साबित हो रहा है।

जहां तक चीन का मामला है, तो रूस का युद्ध-कौशल सीखना उसके लिए काफी काम का है। हालांकि आधुनिकीकरण के मामले में उसकी सेना रूस को काफी पीछे छोड़ रही है, मगर असली जंग का उसका अनुभव सीमित है। सीरियाई संघर्ष में जिस तरह से रूस ने जंग में इस्तेमाल होने वाले सूचना व प्रौद्योगिकी तंत्र और संयुक्त सशस्त्र युद्ध तकनीक (नौसेना, वायु सेना और थल सेना की संयुक्त भागीदारी) को निखारा है, उसमें चीन के सैन्य जनरलों की काफी रुचि है। 

चीन को अपने साथ युद्धाभ्यास में शामिल करके रूस ने यह संकेत दिया है कि वह उसे आने वाले कुछ वर्षों में खतरे के रूप में नहीं देख रहा, जबकि कुछ  साल पहले तक ऐसा नहीं था। बेशक दोनों अब तक घनिष्ठ दोस्त नहीं बन सके हैं, लेकिन उनका रिश्ता इस हद तक जरूर आगे बढ़ा है कि ‘वोस्तोक- 2018’ जैसे साझा युद्धाभ्यास संभव हुए। अब दोनों मिलकर अमेरिका से मोर्चा लेने के लिए आगे बढ़ सकते हैं। हालांकि इस रिश्ते की अपनी सीमाएं भी हैं। रूस और चीन, दोनों अपने तईं ट्रंप प्रशासन को जवाब देने में जुटे हुए हैं। चीन की प्राथमिकता जहां अमेरिका के साथ अपने आर्थिक संबंधों को स्थिर बनाने में है, क्योंकि उसकी अर्थव्यवस्था को प्रतिबंधों के प्रतिकूल प्रभाव का सामना करना पड़ रहा है। वहीं रूस भी अपनी ताकत की हद समझता है। इस चीन-रूस मैत्री का वह जूनियर पार्टनर है और दक्षिण चीन सागर विवाद में उसकी ज्यादा रुचि भी नहीं है।

हालांकि चीन-रूस संबंध को इसकी सीमाओं के चश्मे से देखना उस सच से आंखें मूंदना होगा, जो इन्हें एक-दूसरे के करीब लाता है। सच यह है कि अमेरिकी नेतृत्व वाली वैश्विक व्यवस्था को चुनौती देने के लिए अब ये दोनों देश पहले से कहीं अधिक एक हुए हैं। देखा जाए, तो भारत के लिए यही असली चुनौती है। नई दिल्ली लंबे समय से मॉस्को के साथ करीबी रिश्ते का आग्रही रहा है। मगर रूस और चीन के संबंध जिस तेजी से बढ़ रहे हैं, उससे लगता है कि मॉस्को पर नई दिल्ली उतनी प्रभावी साबित नहीं हो सकी है। भारत के ऐतराज के बावजूद पाकिस्तान के साथ रूस के रिश्ते परवान चढ़ रहे हैं और मॉस्को अफगानिस्तान के मसले पर अपने सुर बदल रहा है। वह अब तालिबान के साथ बातचीत का मजबूत पक्षधर बन गया है। इतना ही नहीं, रूस ने भारत को यह सलाह भी दी है कि वह चीन की महत्वाकांक्षी परियोजना ‘बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव’ को चुनौती न दे। जिस तरह से विभिन्न मोर्चों पर चीन ने भारत के लिए चुनौतियां खड़ी की हैं, उन्हें देखते हुए अगले महीने जब रूसी राष्ट्रपति भारत में होंगे, तब चीन और रूस की बढ़ती नजदीकियों का मसला उनके साथ बातचीत के एजेंडे में सबसे ऊपर होना चाहिए। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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