साझी संप्रभुता की जीएसटी
वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी कानून को मंजूर किया जाना हमारी संघीय राजनीति और आर्थिक सुधारों के इतिहास की एक ऐतिहासिक घटना है। हमारी संसद ने जीएसटी से जुड़े चार विधेयकों व संविधान संशोधनों को पारित...
वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी कानून को मंजूर किया जाना हमारी संघीय राजनीति और आर्थिक सुधारों के इतिहास की एक ऐतिहासिक घटना है। हमारी संसद ने जीएसटी से जुड़े चार विधेयकों व संविधान संशोधनों को पारित किया है, जिसे साझी संप्रभुता का पहला उदाहरण कहना गलत नहीं होगा। साझी संप्रभुता का अर्थ है, समग्र आर्थिक व सामाजिक कल्याण को बढ़ावा देने के लिए किसी नामित संस्था के पक्ष में संसद और विधानसभाओं द्वारा अपने कुछ अधिकार छोड़ना। हालांकि विधेयक पर चर्चा के अंतिम दौर में कांग्रेस और कुछ दूसरी पार्टियों ने एक छद्म मुद्दा उठाने की कोशिश जरूर की थी। कहा गया कि अप्रत्यक्ष कर की दरें तय करने का अधिकार जीएसटी परिषद को दिए जाने से इस मामले में संसद की संप्रभुता खंडित होगी। प्रस्तावित संशोधनों में संसद को जीएसटी परिषद की राय और ‘संघ व राज्यों’ द्वारा उठाए जाने वाले कदमों के बीच एक मध्यस्थ की भूमिका निभाने की सलाह दी गई। भला हो मनमोहन सिंह और पी चिदंबरम जैसे कुशल कांग्रेसी राजनेताओं का, जिनकी मदद से इस मसले पर व्यापक सहमति बन सकी।
असल में, यह मसला 101वें संविधान संशोधन अधिनियम पर चर्चा के दौरान कहीं अधिक प्रासंगिक था। यह अधिनियम आठ सितंबर, 2016 को अस्तित्व में आया है। इसी की धारा (4) में आर्टिकल 279-ए को शामिल किया गया है, जो साफ-साफ कहता है कि ‘जीएसटी परिषद जीएसटी से जुड़े मुद्दों पर केंद्र व राज्यों को सिफारिश देगी।’ बाद के चार कानून तो पहले के संविधान संशोधन से जन्मे थे, जो संप्रभुता में हनन संबंधी हालिया बहस को बेमानी बना रहे थे। प्रस्तावित संशोधनों को राज्यसभा ने भले ही मान लिया हो, लेकिन चूंकि वे धन विधेयक थे, इसलिए उन संशोधनों का कोई खास मतलब नहीं था। वैसे भी, साझी संप्रभुता की अवधारणा तो सामाजिक सरोकार के व्यापक सिद्धांतों और श्रेष्ठतम अंतरराष्ट्रीय आचरणों के अनुरूप है।
संप्रभुता की नींव भले ही प्राचीन रोमनकाल से भी पुरानी हो, साझी संप्रभुता की अवधारणा 18वीं सदी की देन है। उसी समय समाजशा्त्रिरयों ने इस विचार को व्यवस्थित रूप में गढ़ा। फिर यह संकल्पना आधुनिक राजनीतिक विचारों के साथ कदमताल करते हुए विकसित हुई है। देखा जाए, तो दुनिया की आर्थिक तस्वीर को पूरी तरह बदलने वाला वैश्वीकरण, बदलता आर्थिक परिदृश्य व राष्ट्रों की परस्पर निर्भरता भी इस ‘साझी संप्रभुता’ की अवधारणा से पैदा हुई है। तेज आर्थिक विकास दर को हासिल करती महत्वपूर्ण तरक्की, गरीबी उन्मूलन के उल्लेखनीय नतीजे और मानव कल्याण में सुधार भी अब संप्रभुता से जुड़ी है और यह व्यापक सामाजिक बेहतरी का हिस्सा है।
विभिन्न मुल्क ट्रेड ब्लॉक, कस्टम्स यूनियन, कॉमन मार्केट, मुक्त व्यापार क्षेत्र और आर्थिक संघ आदि बनाकर जिस तरह आर्थिक संबंध मजबूत कर रहे हैं और उससे लाभ उठा रहे हैं, उन सभी के केंद्र में भी साझी संप्रभुता ही है। यूरोपीय संघ इसका उल्लेखनीय उदाहरण है, जिसमें 28 मुल्कों ने मिलकर एक साझा बाजार अपनाया है, साझी मुद्रा अपनाई है। याद रखना चाहिए कि वस्तुओं, सेवाओं, पूंजी और लोगों की सीमा पार मुक्त-आवाजाही एक साथ काम करने का भाव पैदा करती है। और यह सब इसलिए संभव हो पाया है, क्योंकि इन तमाम देशों ने एक साझी संस्कृति या ‘सुप्रानेशनलिज्म’ (यूरोपीय संघ जैसी किसी एक संस्था को काफी अधिकार देना) को अपने यहां जीवंत किया है।
यूरोपीय संसद को इसकी प्रेरणा अपने संविधान से मिली है, जो यह कहता है कि ‘एक साझा भविष्य के निर्माण के लिए आम लोगों और यूरोप के देशों की इच्छा का सम्मान करते हुए यह संविधान यूरोपीय संघ की स्थापना करता है, जिसे तमाम सदस्य देश अपने साझे उद्देश्य को पाने के लिए जरूरी शक्तियां प्रदान करते हैं।’ साझी संप्रभुता का विचार दरअसल किसी एक संस्था को ‘जरूरी ताकत देने’ की मांग करता है, ताकि साझे उद्देश्य हासिल किए जा सकें। कहना गलत न होगा कि भारत भी अब इसी ओर बढ़ रहा है। यह सही है कि इस प्रक्रिया में दो या दो से अधिक संस्थाएं व्यापक सामाजिक व आर्थिक हित में एक होती हैं और उनकी स्वायत्तता का कुछ नुकसान होता है, जो तर्कसंगत भी है। मगर यही तो वह बुनियादी सिद्धांत है, जो पर्यावरण, कारोबार और सीमा-शुल्क प्राथमिकताओं को लेकर होने वाले बहुराष्ट्रीय करारों का आधार है। संयुक्त राष्ट्र, विश्व व्यापार संगठन, विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे संगठन भी तो इसीलिए अस्तित्व में आ सके , क्योंकि कई मुल्कों ने सामूहिक रूप से अपने साझे हितों को आगे बढ़ाने का फैसला लिया।
बेशक हमने पहली बार साझी संप्रभुता की तरफ कदम बढ़ाए हों, मगर सियासी तौर पर भारत हमेशा से एक ही इकाई रहा है। चूंकि अब यह व्यावसायिक संघ की ओर बढ़ चला है, इसलिए प्राकृतिक संसाधनों के उचित बंटवारे जैसे दूसरे संघीय मसलों के निपटारे में साझी संप्रभुता के विचार का उचित इस्तेमाल किया जाना चाहिए। जरूरत यह भी है कि कर प्रशासन की दक्षता में सुधार लाने और जीएसटी परिषद सचिवालय की शोध क्षमताओं को बढ़ाने के लिए इनपुट टैक्स क्रेडिट (आईटीसी) को प्राथमिकता में रखा जाए। दूसरे वैचारिक या आर्थिक उद्देश्यों के लिहाज से जीएसटी पर कुछ अतिरिक्त भार डालने की इजाजत किसी को नहीं दी जा सकती। हालांकि इससे इनकार नहीं कि आर्थिक विकास के लिए निहित प्रोत्साहन से कई तरीकों से अप्रत्याशित फायदा भी मिलता रहा है।
बहरहाल, कई तरह के टैक्स स्लैब और शराब व पेट्रोलियम जैसे महत्वपूर्ण वित्तीय उत्पादों को इससे बाहर रखना आर्थिक रूप से कतई सुखदायी नहीं माना जा सकता। अनुपालन और प्रशासनिक लागतें ज्यादा हो सकती हैं और निर्माताओं द्वारा अपने उत्पादों के गलत वर्गीकरण के लिए भी इसमें प्रोत्साहन की व्यवस्था है। तब भी, जीएसटी परिषद का मूलमंत्र तमाम बाधाओं को पार करके अपने अपेक्षित लक्ष्य तक पहुंचना ही होना चाहिए। आर्थिक दबाव खत्म करने के लिए जरूरी है कि वस्तुओं व सेवा करों के लिए अप्रत्यक्ष कर की दरें तय करते वक्त राजस्व निष्पक्षता को सर्वोपरि रखा जाए। जीएसटी प्रेरित विकास, अनुकूल वैश्विक आर्थिक परिदृश्य और घरेलू सुधारों से निश्चय ही भविष्य में इसकी दरें तय करने की हमारी क्षमता बेहतर होगी। मौजूदा वक्त जीएसटी का ही है। जॉन एफ केनेडी ने भी तो यही कहा है कि जब सूर्य चमक रहा हो, छत की मरम्मत तभी करनी चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)