तंग दायरों को तोड़ते रहे वाजपेयी
अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल में एक सचिव के तौर पर मुझे उनके साथ काम करने का सौभाग्य मिला था। वैसे 1984 में जब वह जापान के दौरे पर थे, तब मैं भी वहीं पर था। उस समय भी उनके साथ मुझे वक्त...
अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल में एक सचिव के तौर पर मुझे उनके साथ काम करने का सौभाग्य मिला था। वैसे 1984 में जब वह जापान के दौरे पर थे, तब मैं भी वहीं पर था। उस समय भी उनके साथ मुझे वक्त बिताने का अवसर मिला। अटलजी के व्यक्तित्व की कुछ ऐसी खूबियां थीं, जो उन्हें अपने समकालीन राजनेताओं की भीड़ से अलग करती थीं। सबसे बड़ी विशेषता तो यही थी कि उन्हें दलगत वैचारिकी के किसी संकीर्ण खांचे में नहीं फिट किया जा सकता। उनके पास एक राष्ट्रीय नजरिया था और उन्होंने वैश्विक अर्थव्यवस्था से भारत को जोड़ने की जरूरत को बखूबी समझा।
जब उनके एक सचिव के तौर पर मुझे नियुक्त किया गया, तब उन्होंने काफी लचीला रुख अपनाते हुए तमाम आर्थिक विभाग मुझे सौंप दिए थे। अटलजी एक दूरदर्शी राजनेता थे, इसीलिए उन्होंने ‘आर्थिक सलाहकार परिषद’ और ‘व्यापार व उद्योग परिषद’ के गठन की जरूरत समझी। उनके दिमाग में यह विचार आया कि एक ऐसी छोटी संस्था होनी चाहिए, जहां ड्रॉइंग रूम जैसे माहौल में प्रधानमंत्री अपने विचार साझा कर सकें। व्यापार व उद्योग परिषद के लिए उनके दिमाग में रतन टाटा, मुकेश अंबानी जैसे चर्चित नाम पहले से थे। पूरब से मैंने उन्हें आरपी गोयनका का नाम सुझाया। लेकिन ब्रजेश मिश्र (वाजपेयी के प्रधान सचिव) ने कहा कि गोयनका तो सोनिया (गांधी) का पोस्टर छापने में व्यस्त हैं। सोनिया गांधी तब कांग्रेस की अध्यक्ष थीं। अटलजी ने फौरन जवाब दिया, ‘काम के आदमी हैं कि नहीं? अगर हैं, तो फिर उन्हें आप अवश्य रखें।’
अटलजी ने जिन क्षेत्रों पर खास फोकस किया, उनमें से एक टेलीकॉम क्षेत्र भी था। उन्हें विरासत में एक ऐसी स्थिति मिली थी, जिसमें टेलीकॉम लाइसेंस की मांग करने वाली तमाम निजी कंपनियां राजस्व उगाही के लक्ष्य के तौर पर अवास्तविक राशियां कोट कर रही थीं। बैंकों का डूब कर्ज (एनपीए) एक बड़ा संकट था। अदालतें उन्हें तलाश रही थीं। उन दिनों जगमोहन टेलीकॉम मंत्री हुआ करते थे। प्रधानमंत्री वाजपेयी काफी चिंतित थे। उन्होंने एक दिन पूछा- हमें क्या करना चाहिए? मैंने उनसे कहा कि जगमोहन गारंटी को भुनाना चाहते हैं, लेकिन टेलीकॉम क्षेत्र के लिए इसे लेकर वास्तविक आर्थिक चिंताएं हैं। इस पर वाजपेयीजी ने कहा- ‘फिर हम यह क्यों कर रहे हैं? इस मामले को फौरन सुलझाया जाए।’ जगमोहन को इस मामले से अलग कर दिया गया। सोली सोराबजी को जिम्मेदारी सौंपी गई। सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में भरोसा दिया गया। हमने राजस्व-साझीदारी का नया मॉडल तैयार किया और टेलीकॉम क्षेत्र में फिर से अपनी बादशाहत कायम की।
एक बार हम न्यूयॉर्क के दौरे पर थे। तय कार्यक्रम के मुताबिक, प्रधानमंत्री को अगले दिन कारोबारियों और उद्यमियों से मिलना था। वाजपेयीजी ने हमसे कहा कि कुछ नई बात होनी चाहिए। ब्रजेश मिश्र और मैंने कहा कि हमें टेलीकॉम क्षेत्र को नियंत्रण मुक्त करना चाहिए और इंडस्ट्री को इसकी लागत व फायदे आंकने का मौका देना चाहिए। उन्होंने कहा कि हमें इस दिशा में आगे कदम बढ़ाना चाहिए।
गठबंधन के दलों और साथियों के साथ अटलजी का व्यवहार काफी विलक्षण था। एक बार उन्होंने मुझे कहा कि ‘चंद्रबाबू नायडू ने कभी कुछ नहीं मांगा, किसी मंत्रालय की मांग नहीं की, फिर भी वह हमारा समर्थन करते रहे हैं। वह जो कुछ भी चाहते हैं, उन्हें आप दीजिए। उनको मेरे पास आने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए।’ हमने उनकी समस्याएं दूर कीं।
बेहद मुश्किल और तनाव भरे पलों में भी अटल बिहारी वाजपेयी का एक चुटकुला, एक मजाकिया वाक्य पूरे माहौल को बदलने के लिए काफी होता था। आर्थिक सुधारों को रफ्तार देने के लिए उन्हें काफी आंतरिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, फिर भी उन्होंने निरंतर बदलाव, सुधार, उत्पादकता और उदारीकरण का समर्थन किया। एक बार उनके आर्थिक फैसलों को लेकर पार्टी के भीतर और बाहर बढ़ती आलोचनाओं को देखते हुए मैंने उनसे पूछा कि मंत्रिमंडल के कुछ साथी ही इन फैसलों के खिलाफ दिख रहे हैं, क्या हमें नीतियों में कुछ संशोधन करने की जरूरत है? वाजेपयी का जवाब था, ‘आप अपना काम कीजिए। मेरी राय में नीतियां सही हैं। मैं अपना काम करूंगा, जो कि विरोधी लोगों से निपटने का है।’ आर्थिक सुधारों को विस्तार देना और भारत को नेतृत्व की हैसियत में पहुंचाना हमेशा ही उनका मकसद था।
विदेश नीति के मोर्चे पर उनके प्रयासों ने देश की सरहद के बाहर उनकी साख व लोकप्रियता को विस्तार दिया था। खासकर अमेरिका से मित्रता की उनकी कोशिशों और पाकिस्तान यात्रा ने दुनिया भर में उनकी अच्छी मंशा को पहुंचाया। अटलजी के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रहे ब्रजेश मिश्र ने भी उन्हें कई जटिल फैसले लेने में मदद की थी। जसवंत सिंह और स्ट्रोब टालबोट््ट वार्ता को वाजपेयीजी ने अपनी मौन सहमति दी थी और इसी बातचीत ने पोकरण परीक्षण के बाद से तनावपूर्ण आ रहे दोनों देशों के रिश्तों को एक नई दिशा दी और यह संबंध दोनों मुल्कों के बीच स्ट्रैटेजिक पार्टनरशिप में तब्दील हुआ। अटल बिहारी वाजपेयी में यह योग्यता थी, उनकी साख ऐसी थी और उनका कद ऐसा था कि वह विरोधाभासों में सामंजस्य बिठा लेते थे। इस मामले में गिने-चुने लोग ही उनकी बराबरी कर सकते हैं। (ये लेखक के अपने विचार हैं)