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थर्ड अंपायर बनाम नवाज शरीफ

एक क्रिकेट-पागल समाज में स्वाभाविक ही है कि मैच फिक्सिंग शब्द राजनीतिक विमर्श का भी हिस्सा बन जाए। एक वक्त हॉकी और स्क्वैश जैसे खेलों के पावर हाउस पाकिस्तान के पास अब ले-देकर क्रिकेट ही बचा है- वह भी...

थर्ड अंपायर बनाम नवाज शरीफ
विभूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिकारीMon, 18 Jun 2018 09:43 PM
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एक क्रिकेट-पागल समाज में स्वाभाविक ही है कि मैच फिक्सिंग शब्द राजनीतिक विमर्श का भी हिस्सा बन जाए। एक वक्त हॉकी और स्क्वैश जैसे खेलों के पावर हाउस पाकिस्तान के पास अब ले-देकर क्रिकेट ही बचा है- वह भी आधा-अधूरा। 2009 में श्रीलंकाई क्रिकेट टीम पर हमले के बाद किसी भी महत्वपूर्ण क्रिकेट राष्ट्र ने पाकिस्तान का दौरा नहीं किया और अपने घरेलू टेस्ट भी उसे दुबई जाकर खेलने पड़ते हैं। आईपीएल की तर्ज पर और ईष्र्या में शुरू हुए पीएसएल के बमुश्किल दो-एक मैच पाकिस्तान में हो पाते हैं, शेष दुबई में खेले जाते   हैं। इन सबके बावजूद क्रिकेट को लेकर दीवानगी पर कोई फर्क नहीं पड़ा है, इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि उसकी शब्दावली मीडिया में छाई रहती है। दो महीने से भी कम समय बाकी है, जब पाकिस्तान में अगला चुनाव होना है और अजूबा ही सही, एक क्रम में लगातार तीसरी बार वहां चुनी हुई सरकार बनने जा रही है। ऐसे में, अगर टेलीविजन की बहसों या अखबारों में बार-बार मैच फिक्सिंग शब्द सुनाई या दिखाई दे, तो समझ लेना चाहिए कि एक क्रिकेटप्रेमी राष्ट्र अपनी बेबसी और झुंझलाहट का इजहार खेल की शब्दावली में कर रहा है। दिलचस्प है कि इस बार मैच फिक्सिंग पाकिस्तान क्रिकेट के सबसे बडे़ नायक इमरान खान के पक्ष में होने जा रही है।

पाकिस्तान की राजनीतिक बिसात पर शह और मात का फैसला अक्सर फौज की चाल से होता है। 2013 के आम चुनाव के एक साल के अंदर ही इमरान खान ने नवाज सरकार के खिलाफ जबर्दस्त आंदोलन छेड़ा था और छह महीने तक सरकार ठप्प सी रही। उस समय का एक विजुअल लोगों की स्मृति में टंका-सा है, जिसमें सेनाध्यक्ष से मिलकर लौट रहे इमरान अपने समर्थकों को दिलासा दे रहे हैं कि बस, तीसरे अंपायर की उंगली उठने ही वाली है। इशारा साफ था कि तीसरा अंपायर यानी फौज सरकार के खिलाफ निर्णायक हस्तक्षेप करने जा रही है। यह अलग बात है कि तत्कालीन घरेलू व वैश्विक परिस्थितियां ऐसी नही थीं कि सेना हाल में चुनी सरकार को बदल सके और उसे खामोश रह जाना पड़ा। पर इस पूरे घटनाक्रम का असर यह पड़ा कि अगले तीन वर्षों तक एक अपंग सरकार चली और चुनावी साल आते-आते मुस्लिम लीग (नून) को नवाज शरीफ की जगह शाहिद खाकान अब्बासी को प्रधानमंत्री बनाना पड़ा। इस बार फौज को साथ मिला है सुप्रीम कोर्ट का। परदे के पीछे दोनों के गठजोड़ ने ही वह परिस्थिति पैदा कर दी है, जिसे पाकिस्तानी मीडिया मैच फिक्सिंग कह रहा है।

यह एक आम जानकारी है कि नवाज और इमरान, दोनों पाक सेना की निर्मिति हैं। जुल्फिकार अली भुट्टो जैसे पारंपरिक राजनेता के मुकाबले तानाशाह जिया उल हक ने नवाज शरीफ को खड़ा किया और जब नवाज ने उड़ना शुरू किया, तो इमरान मैदान में उतारे गए। वह कई अर्थों में मुल्ला-मिलिट्री गठबंधन को मुफीद लगते हैं। विलायत में शिक्षा हासिल करने के कारण उनकी छवि एक आधुनिक मनुष्य की है, पर मदरसों से निकले तालिबान भी उन पर विश्वास करते हैं, फौज का उन्होंने कभी विरोध नहीं किया और फिर क्रिकेट के पीछे दीवाने राष्ट्र को इस खेल का अकेला विश्व कप उन्हीं के नेतृत्व में तो मिला है। सब कुछ राष्ट्र-नायक बनाने के लिए आदर्श था, पर फौज की योजना के सामने रुकावट एक ऐसी बाधा बनी, जिसके बारे में उन्होंने कोई तैयारी नहीं की थी। यह थी उनके चित्त की अस्थिरता। चाहे शादियों व तलाक के मसले हों या राजनीतिक फैसलों के, इमरान की अपरिपक्व जल्दबाजी और निर्णयों को पलटने की उनकी आदत ने अक्सर उन्हें हास्यास्पद ही बनाया है।
 
नवाज शरीफ को हटा तो दिया गया, पर जिस तरह उनकी सभाओं में भीड़ उमड़ी है, उसने साफ कर दिया कि उन्हें हरा पाना मुश्किल होगा। इससे मैच को फिक्स करने में सेना व न्यायपालिका को ओवर टाइम खेलना पड़ रहा है। उन्हें पद से अयोग्य घोषित करना और उन्हीं की तरह के आरोपों पर इमरान को बरी करना ही काफी नहीं था, जरूरी था कि उन्हें जेल भेजकर सत्ता की दौड़ से हमेशा के लिए दूर कर दिया जाए। इसके लिए चीफ जस्टिस ने न्यायिक मर्यादाओं की सारी हदें पार करते हुए नवाज के खिलाफ अदालतों में मुकदमे कायम कराए और स्वयं उनका पर्यवेक्षण शुरू कर दिया। पूरी कोशिश  है कि चुनावों के नतीजे आने से पहले ही नवाज को सजा सुना दी जाए। पूर्व फौजी तानाशाह परवेज मुशर्रफ को अदालत की पेशी से बच निकलने में मदद करने वाली सेना और सुप्रीम कोर्ट नवाज शरीफ को लंदन के अस्पताल में मृत्यु शय्या पर पड़ी अपनी पत्नी को देखने जाने की छूट देने को भी तैयार नहीं हैं। ट्रायल कोर्ट को चीफ जस्टिस ने आदेश दिया कि छुट्टियों में भी सुनवाई हो और ईद के मौके पर नवाज की लंदन यात्रा पर रोक लगाने की असफल कोशिश की गई। मकसद साफ है, किसी तरह आम चुनाव के पहले नवाज को सजा सुनाना। 

यदि आप इन दिनों पाकिस्तानी चैनलों पर चल रही बहसों को सुनें, तो आपका ध्यान उस साफगोई पर गए बिना नहीं रहेगा, जिसमें रिटायर्ड फौजी अफसर यह विश्वास व्यक्त कर रहे हैं कि नवाज की सजा बस कुछ दिनों की बात है। प्रिंट में भी इसी तरह की भविष्यवाणियां भरी पड़ी हैं। एक माहौल बन रहा है कि इमरान और उनकी पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ सत्ता में आ रही है। अब तक हुआ भी यही है कि अमूमन वही जीतता है, जिसे फौज चाहती है। नतीजतन, राजनीतिक हलकों में भगदड़ सी मची है। हर पार्टी का ढुलमुल यकीन इमरान की पार्टी में भागा चला जा रहा है। 

अभी नहीं कहा जा सकता कि इस मैच फिक्सिंग का क्या नतीजा होगा, पर अगर इमरान जीते, तो फौज ज्यादा ताकतवर होकर उभरेगी, भारत-पाकिस्तान संबंधों में सुधार की संभावनाएं धूमिल होंगी और मजहबी कट्टरपंथियों को खाद मिलेगी। नवाज की सहानुभूति में जन-उभार को देखकर यह भी कहा जा सकता है कि नब्बे के दशक में इस्लामी जम्हूरी इत्तेहाद बनाकर बेनजीर भुट्टो का रास्ता रोकने में असमर्थ सेना शायद इस बार भी जनता का फैसला बदलवा न पाए। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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