सड़कों पर शोर का अध्यात्म
क्या शोर में भी नशा होता है? हां, शोर भी नशा पैदा कर सकता है, खास तौर से अगर वह एक भीड़ के सिर पर चढ़कर बोल रहा हो। भले ही यह संगीत के नाम पर क्यों न पैदा किया जा रहा हो? अगर आप पश्चिमी उत्तर प्रदेश...
क्या शोर में भी नशा होता है? हां, शोर भी नशा पैदा कर सकता है, खास तौर से अगर वह एक भीड़ के सिर पर चढ़कर बोल रहा हो। भले ही यह संगीत के नाम पर क्यों न पैदा किया जा रहा हो? अगर आप पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक ऐसे ट्रक के बगल से गुजरें, जिस पर तेज आवाज में डीजे बज रहा हो और जिसके चारों तरफ किसी बाजारू बंबइया फिल्म की धुन पर कांवड़िए नाच रहे हों, तो उन्हें देखकर आपके मन में श्रद्धा नहीं, खौफ का अनुभव होगा। शोर के नशे में वे ट्रांस में लगते हैं। शोर-शराबा भीड़ के लिए नशे की तरह होता है।
यदि दुर्भाग्य से पूरी सड़क घेरकर बेतरतीब नाच रहे कांवड़ियों से कोई वाहन छू भी जाए, तो उसकी शामत आ जाएगी। इस साल दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई जिलों में इन तथाकथित शिवभक्तों के प्रकोप का शिकार कई वाहन और उनके चालक हुए। इन घटनाओं के जो विजुअल मीडिया पर वायरल हुए, उनमें से दो काफी दिनों तक अपने दर्शकों की स्मृतियों से ओझल नहीं हो सकेंगे। एक, राजधानी दिल्ली में एक असहाय महिला कार चालक अपनी जान बचाकर भाग रही है और कांवड़िए उसकी कार को पलटकर अपने डंडों से उसे तोड़ रहे हैं। दूसरा, अपनी बच्ची को स्कूल छोड़ने जा रहे मुजफ्फरनगर के एक असहाय पिता का है, जिसकी कार को उत्तेजित कांवड़िए घेरे हुए हैं और वह खुद को बच्ची के साथ वाहन के अंदर बंद करके डरी हुई नन्ही सी जान के मनोविज्ञान पर पड़ने वाले दीर्घकालिक दुष्प्रभाव के बारे में सोच रहा है।
डीजे के भुक्तभोगी जानते हैं कि उसका अध्यात्म और संगीत के कोमल भावों से कोई लेना-देना नहीं है। शोर-शराबे से भरे डीजे ध्वनि से जुड़े पर्यावरण के तमाम अदालती आदेशों और कानूनी प्रावधानों का खुला उल्लंघन करते हैं, पर अगर इसे अस्मिता से जोड़ दिया जाए, तो फिर कौन उन्हें रोकेगा? डीजे के प्रोत्साहन को पिछले दो दशकों में कांवड़ियों के समक्ष राज्य के समर्पण से जोड़कर देखा जा सकता है। राज्य के घुटना टेकने के कारण कांवड़ियों की अपेक्षाएं और मांगें भी साल-दर-साल बढ़ती गई हैं। फुटपाथ से शुरू होकर अब उनकी मांग आधी सड़क के अबाध इस्तेमाल तक पहुंच गई है। आधी भी वस्तुत: पूरी सड़क पर उनके कब्जे की पूर्वपीठिका है। धीरे-धीरे पूरी सड़क राज्य के आदेश से उनके लिए सुरक्षित कर दी जाती है। दिल्ली से देहरादून जाने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग-58 इसका एक उदाहरण है, जिस पर सावन मास के दौरान भारी वाहनों का चलना प्रतिबंधित हो जाता है और इस पर चलने वाले हजारों यात्री ज्यादा दूरी, समय और पैसे की मार सहते हुए असुविधाजनक यात्राएं करते हैं। भारत में क्षतिपूर्ति का कोई कानून नहीं है, जिसके तहत आम नागरिक अपने खोए समय या नष्ट हुई संपत्ति के लिए राज्य से मुआवजा मांग सके, इसलिए भी वे मनमाने आदेशों या अपनी हिफाजत के लिए बनी संस्थाओं की नालायकी को चुपचाप झेलने के लिए अभिशप्त हैं।
पिछले कुछ वर्षों से डाक कांवड़ नाम के एक नए चलन से नागरिकों को जूझना पड़ रहा है, जिसमें कांवड़ियों को पैदल चलने का कष्ट भी नहीं उठाना पड़ता। गंगा जल के स्रोत और शिव मंदिर तक की यात्रा का अधिकांश दो-पहिया या चार-पहिया वाहनों से तय किया जाता है। बेतरतीब भागते इन वाहनों को देखकर समझा जा सकता है कि कानून-कायदों का उनके लिए क्या महत्व है? उन्हें अनुशासित करने की जगह मुकामी पुलिस का पूरा ध्यान उन्हें अपने इलाके से बाहर निकालने पर रहता है।
कांवड़ यात्रा राज्य द्वारा भीड़ के सामने पूरी तरह से समर्पण की गाथा है। पिछले दो दशकों के दौरान राज्य ने नागरिकों की हिफाजत और ट्रैफिक प्रबंधन जैसी अपनी जिम्मेदारियों से पूरी तरह मुंह मोड़ लिया है। वे सैलाब की तरह गुजरते हैं और राज्य चुपचाप रास्ते भर उनके द्वारा किए जाने वाले विनाश को टुकुर-टुकुर देखता रहता है। मार्ग में पड़ने वाले अल्पसंख्यकों के गांव, आम-अमरूद से लदे बाग या सड़कों पर चल रहे वाहन उनके द्वारा किए जाने वाले विनाश की गाथाएं सुनाते रहते हैं। सड़कों पर राज्य की सर्वाधिक दृश्यमान उपस्थिति पुलिस उनके सामने असहाय दिखती है। इस साल कई जगहों पर जब उसने सड़क पर अनुशासन कायम करने की कोशिश की, तो उसी की पिटाई हुई। खुद पुलिस ने कांवड़ियों पर आसमान से फूल बरसवाए और बाजारों में उनके गले में माला डलवाई- संदेश बड़ा साफ था कि वे कानून से ऊपर हैं। यह कथा साल-दर-साल चलती रहती है। ज्यादा शोरगुल होने पर कुछ एफआईआर दर्ज भी होती हैं, पर यह देखना भी मुनासिब होगा कि उनमें हुआ क्या? क्या कभी किसी मुकदमे में दोषियों को सजा मिली भी?
इन यात्राओं का एक दिलचस्प अर्थशास्त्र विकसित हो गया है। इकट्ठे किए गए चंदों से रास्ते भर भव्य तंबुओं और उनमें चौबीस घंटे चल रहे भंडारों की व्यवस्था की जाती है। चंदे की रसीदों या ऑडिट की बात भी सोचना हास्यास्पद है। ये सुविधाएं भीड़-भाड़ वाली सड़कों पर कहीं भी खड़ी की जा सकती हैं और कोई जरूरी नहीं कि इनके लिए सक्षम प्राधिकारियों से अनुमति ली ही गई हो। बेरोजगारी से जूझते अनिश्चित भविष्य वाले नौजवानों को इन यात्राओं से एक खास तरह की पहचान भी मिलती है। अल्प अवधि के लिए ही सही, यह यात्रा उन्हें अपनी निरुद्देश्य भटकती जिंदगी में एक लंगर जैसी प्रतीत होती है। इसलिए भी साल-दर-साल यात्राओं में भीड़ बढ़ती जा रही है।
हमें ध्यान रखना चाहिए कि कुछ उद्दंड लोगों की वजह से उन शांत स्वभाव के कांवड़ियों की छवि भी खराब होती है, जो विशुद्ध धार्मिक कारणों से मीलों पैदल चलते हैं और तमाम कष्टों में भी जिनकी श्रद्धा अक्षुण्ण रहती है। हाल में एक चैनल पर चल रही बहस में एक सामान्य से भागीदार का यह कथन कि कांवड़ियों के पास से गुजरते हुए उसे दहशत सी होती है, हजारों-लाखों सच्चे श्रद्धालुओं का अपमान है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)