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कई मायने हैं इस मुलाकात के

आज रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मुलाकात होने वाली है। यह बैठक रूसी शहर सोची में होगी, जिस पर सभी की निगाहें स्वाभाविक तौर पर लगी हुई हैं। प्रधानमंत्री...

कई मायने हैं इस मुलाकात के
शशांक, पूर्व विदेश सचिवSun, 20 May 2018 09:08 PM
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आज रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मुलाकात होने वाली है। यह बैठक रूसी शहर सोची में होगी, जिस पर सभी की निगाहें स्वाभाविक तौर पर लगी हुई हैं। प्रधानमंत्री मोदी की यह यात्रा सिर्फ इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि व्लादिमीर पुतिन ने हाल ही में चौथी बार राष्ट्रपति पद की शपथ लेकर खुद को दुनिया का एक ताकतवर नेता साबित किया है। बल्कि यह इसलिए भी अहम है कि जर्मनी की चांसलर एंजला मर्केल तीन दिन पहले ही पुतिन से मिलकर वापस लौटी हैं और आज से तीसरे दिन फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों मॉस्को में होंगे। कहने की जरूरत नहीं कि ये सभी देश ईरान के साथ परमाणु करार से अमेरिका के पीछे हटने से बैखलाए हुए हैं।

प्रधानमंत्री मोदी एक अनौपचारिक मुलाकात के लिए रूस में हैं। कोई भी यह सवाल कर सकता है कि जब मोदी और पुतिन की मुलाकात पहले से शंघाई सहयोग संगठन (चीन) की बैठक और फिर ब्रिक्स समिट में तय है, तो फिर अचानक यह मुलाकात क्यों जरूरी हो गई? शंघाई सहयोग संगठन की बैठक अगले महीने हो रही है और ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका का संगठन) की बैठक जुलाई में दक्षिण अफ्रीका में प्रस्तावित है। मगर मेरा मानना है कि दोनों शीर्ष नेताओं की यह अनौपचारिक बैठक कई वजहों से जरूरी थी। असल में, इन दिनों क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय हालात तेजी से बदल रहे हैं। औपचारिक बैठकों में एजेंडा पहले से तय होता है और विचार-विमर्श के लिए ज्यादा समय भी नहीं मिलता, इसलिए एक अनौपचारिक मुलाकात में कुछ खास मसलों पर पहले से एकमत होना कोई गलत कदम नहीं है।
इन मसलों में सबसे महत्वपूर्ण ईरान के साथ परमाणु करार से अमेरिका का पीछे हटना हो सकता है। इस पर विमर्श इसलिए जरूरी है, क्योंकि अमेरिकी राजनयिक कह रहे हैं कि परमाणु समझौते के बाद जिन-जिन देशों ने ईरान से जिस भी तरह के संबंध बनाए हैं, वे सब उससे वे रिश्ते तोड़ लें। हालांकि औपचारिक रूप से सिर्फ परमाणु रिश्ते खत्म करने की बात कही जा रही है, पर राजनयिकों के बयान के कई गूढ़ अर्थ निकल रहे हैं। 

अच्छी बात है कि ईरान के साथ हमारा कोई परमाणु रिश्ता नहीं है। हम उससे मूलत: तेल का आयात करते हैं। प्रतिबंध के दौर में यह कम था, मगर जब से बंदिशें हटाई गई थीं, हम पहले से ज्यादा कच्चा तेल वहां से मंगाने लगे थे। इसके अलावा, हम उसके चाबहार बंदरगाह को भी विकसित कर रहे हैं। ऐसे में, अमेरिकी फैसले का दुष्प्रभाव हम पर न पड़े और पहले से ही अस्थिर पश्चिम एशिया की अस्थिरता और ज्यादा न बढ़े, इसके लिए हमारी पूर्व-तैयारी जरूरी है। रूस इसमें हमारी मदद कर सकता है। वह उस पी-5 प्लस वन यानी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांचों स्थाई देश और जर्मनी में से एक है, जिसने 2015 में ईरान के साथ साझी व्यापक कार्ययोजना (बोलचाल में परमाणु समझौते) पर दस्तख्त किए थे। नई परिस्थिति में ऊर्जा-जरूरत हम रूस से पूरी कर सकते हैं। ईरान को लेकर बन रहे वैश्विक समीकरण के लिए भी रूस से एकमत होना जरूरी है।

दूसरा मसला उत्तर कोरिया का हो सकता है। इन दिनों उसके परमाणु कार्यक्रम को बांधने की कोशिशें जोरों पर हैं। मगर बीच-बीच में अमेरिका और उत्तर कोरिया, दोनों पक्षों से तनातनी की खबरें भी आई हैं। ऐसी खबरें शांति प्रक्रिया को बेपटरी करती हुई दिख रही हैं। चीन के बाद भारत ही वह देश है, जिसका दोनों कोरियाई मुल्कों के साथ अच्छे व्यापारिक रिश्ते हैं। इस लिहाज से देखें, तो अमेरिका व उत्तर कोरिया में बनती बात यदि बिगड़ती है, तो उसका नुकसान भारत को भी हो सकता है। 

एक मसला खुद रूस से जुड़ा है। अमेरिकी चुनाव में कथित दखल देने और यूक्रेन व सीरिया की गतिविधियों का हवाला देकर अमेरिकी प्रशासन रूस पर प्रतिबंध लगाने की तैयारी में जुटा हुआ है। इसके अलावा, अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप का एक फैसला यह भी कहता है कि यदि कोई देश रूस के साथ रक्षा व खुफिया क्षेत्र में कारोबार करता है, तो उस पर अमेरिका प्रतिबंध लगा सकता है। रूस के साथ हमारा रक्षा व परमाणु ऊर्जा संबंध जगजाहिर है। यह ‘टाइम टेस्टेड’ है, यानी मुसीबत के समय इस रिश्ते ने हमें मजबूती दी है। जैसे, आजाद भारत जब-जब जंग में धकेला गया, रूस हमारे साथ खड़ा रहा। आज भी हमारी रक्षा-जरूरतों का करीब 62 फीसदी हिस्सा रूस पूरा करता है। ऐसी सूरत में, अमेरिकी प्रतिबंध की जद में हम भी हैं। रूस के बहाने लगने वाली बंदिशें हमें ज्यादा नुकसान पहुंचा सकती हैं। 

कुछ लोग तर्क देते हैं कि हमें अमेरिका की अधिक जरूरत है। उसके साथ हम ‘स्ट्रैटीजिक पार्टनरशिप’ की बात कर रहे हैं। इसे 21वीं सदी की उल्लेखनीय दोस्ती भी बता रहे हैं। मगर मेरा मानना है कि ये तमाम कवायदें अमेरिकी प्रतिबंध लागू होते ही निरर्थक हो जाएंगी। रही बात अमेरिका के करीब जाने की, तो जिस तरह के हमारे संंबंध रूस के साथ हैं, अमेरिका के साथ उस ऊंचाई तक पहुंचना फिलहाल संभव नहीं दिख रहा। इसके लिए हमें वाशिंगटन के साथ तमाम तरह के समझौते करने होंगे, जिसमें जाहिर तौर पर लंबा वक्त लगेगा। फिर रूस एक जांचा-परखा दोस्त है, जिसे खोना हमारे हित में नहीं होगा। 

इसी दोस्त की हैसियत से मोदी-पुतिन मुलाकात में पाकिस्तान-रूस दोस्ती पर भी चर्चा हो सकती है। पिछले कुछ महीनों में मास्को और इस्लामाबाद की नजदीकियां बढ़ी हैं, जिसमें चीन मध्यस्थ की भूमिका में रहा है। इस दोस्ती का सीमित रहना ही हमारे हित में है। संभवत: नए बाजार ढूंढ़ने के लिए मास्को ऐसा कर रहा है। ऐसे में, रूस को यह बताना लाजिमी है कि वह पाकिस्तान के साथ संबंध बढ़ाए, पर इसका ख्याल भी रखे कि भारत की सुरक्षा के साथ कोई समझौता न हो।

साफ है कि मोदी और पुतिन की मुलाकात प्रासंगिक है। इसके तात्कालिक नतीजे हमें नहीं ढूंढ़ने चाहिए, क्योंकि यह दूरगामी असर डालने वाली हो सकती है। महत्वपूर्ण मित्र देशों व पड़ोसियों के साथ संबंध सुधरना मौजूदा वक्त की सबसे बड़ी जरूरत है। सरकार इसी दिशा में आगे बढ़ती दिख रही है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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