फोटो गैलरी

Hindi News ओपिनियनएक कवि जिनकी प्रतिभा हम भूल गए

एक कवि जिनकी प्रतिभा हम भूल गए

कुछ पश्चिमी देशों में लेखक का कॉपीराइट निधन के 75 वर्ष बाद खत्म हो जाता है। भारत में यह अवधि 60 साल है। इसके अनुसार गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की रचनाओं पर शांति निकेतन का कॉपीराइट 2001 में खत्म हो...

एक कवि जिनकी प्रतिभा हम भूल गए
रामचंद्र गुहा, प्रसिद्ध इतिहासकारFri, 22 Jun 2018 10:34 PM
ऐप पर पढ़ें

कुछ पश्चिमी देशों में लेखक का कॉपीराइट निधन के 75 वर्ष बाद खत्म हो जाता है। भारत में यह अवधि 60 साल है। इसके अनुसार गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की रचनाओं पर शांति निकेतन का कॉपीराइट 2001 में खत्म हो गया, और महात्मा गांधी के सृजन पर नवजीवन प्रेस का नियंत्रण 2008 तक कायम रहा। पंडित नेहरू के संपूर्ण लेखन का कॉपीराइट मई 2024 तक सोनिया गांधी के पास रहेगा। इस नियम का उत्कृष्ट अपवाद तत्कालीन मद्रास राज्य में दिखा, जब 1949 में मद्रास सरकार ने सुब्रमण्यम भारती के संपूर्ण लेखन पर स्वत्वाधिकार (कॉपीराइट) हासिल करने की घोषणा की और पांच साल बाद ‘कॉपीराइट’ जनता को सौंप दिया, जिससे भारती के रचनाकर्म का बिना किसी कानूनी बाधा के मुद्रण या इस्तेमाल आसान हो गया। 

हाल ही में प्रकाशित पुस्तक हू ओन्स दैट सांग में चेन्नई के इतिहासकार एआर वेंकटचलापथी ने साहित्य के इतिहास के उन्हीं अद्भुत क्षणों का खुलासा किया है। किताब की शुरुआत सुब्रमण्यम भारती के जीवन के प्रसंगों को समेटे एक संक्षिप्त अध्याय से होती है। इसमें दक्षिण तमिलनाडु में पालन-पोषण, पत्रकारिता में उनके शुरुआती प्रयास, उनके अंदर देशभक्ति के उभार, फ्रांस शासित पांडिचेरी में निर्वासन, फिर मद्रास वापसी से लेकर 1921 में महज 38 वर्ष की उम्र में निधन तक को समेटा गया है। उनके एक प्रकाशक ने 1917 में लिखा- ‘तमिल भारती को जानते तो हैं, लेकिन उनकी असल शख्सियत से कुछ ही वाकिफ हैं। भारती एक महान विद्वान हैं ...वह तमिलनाडु के टैगोर हैं और तमिल देश के लिए वरदान।’ भारती का ज्यादातर साहित्य उनके जीवनकाल में प्रकाशित नहीं हो सका। उनकी प्रतिभा का असल प्रचार मृत्यु के बाद ही हुआ, जब पत्नी और सौतेले भाई की पहल पर उनकी तमाम पांडुलिपियों और किताबों का पुनर्प्रकाशन संभव हुआ। 

1930 के दशक में भारती के गीत न सिर्फ आम-जन की जुबां पर थे और जलसे-जुलूसों-भाषणों में ऊर्जा भर रहे थे, बल्कि पाठ्यक्रम से लेकर रंगमंच और सिनेमा का भी हिस्सा बन रहे थे। फिल्म निर्माताओं ने तो उनका ऐसा दोहन किया कि ‘भारती की रचनाओं को निजी इंसानी समूहों के चंगुल से बचाने’ की मुहिम ही छिड़ गई।
आजादी के कुछ ही दिन बाद अक्तूबर 1947 में प्रख्यात चिंतक और समाज सुधारक पी जीवानंदम ने आवाज उठाई- ‘भारती का लेखन आम तमिलों की संपत्ति है’, इसलिए ‘तमिल जनता और सरकार को इन्हें चंद निजी हाथों के चंगुल से मुक्त कराना होगा।’ इसे समर्थन मिला और ‘तमिलनाडु के इस अमर कवि’ के नाम पर ‘व्यापार’ का विरोध गति लेने लगा। तत्कालीन मद्रास राज्य के मुख्यमंत्री ओपी रामास्वामी रेड्डियार ने तो भारती-साहित्य का कॉपीराइट हासिल कर उनका संपूर्ण रचनाकर्म आम लोगों के लिए सुलभ बनाने में व्यक्तिगत रुचि दिखाई। 

भारती भी अंबेडकर की तरह मृत्यु के बाद ज्यादा लोकप्रिय हुए। वह गांधी के करीब दिखते हैं, जब उनकी तमाम गलत-सही व्याख्याएं होती हैं, जिनकी रेंज बहुत ज्यादा है। वेंकटचलापथी लिखते हैं- ‘चूंकि भारती आधुनिक तमिल संस्कृति के निर्माण का केंद्रबिंदु बन चुके हैं, वैचारिक संसार अपने दायरे में उनकी व्याख्या करना, उन्हें अपने खांचे में फिट करना चाहता है।’

कल्कि जैसे राष्ट्रवादी लेखक ‘महज देशभक्त कवि’ कहकर उनके क्रांतिकारी विचारों को दरकिनार करते हैं, तो द्रविड़ आंदोलन से जुड़े भरतिदासन, उनके समाज सुधारक और जाति-विरोधी बातों के बरअक्स अंग्रेज विरोधी विचारों को दबाते हैं। सी राजगोपालाचारी जैसे परंपरावादी लोगों ने तो कविताओं में हिंदू तत्वों की मौजूदगी के आधार पर उन्हें वैदिक कवि मात्र ठहराने में कसर नहीं छोड़ी। एक प्रकाशक उनकी अनवरत टैगोर से तुलना करता रहा, यह अलग बात है कि भारती स्वयं टैगोर से बहुत प्रभावित थे। 

दुर्भाग्यवश भारती तमिलनाडु के बाहर उतना नहीं जाने गए, जितना बंगाल के बाहर टैगोर। शायद इसलिए कि भारती का जीवन महज 40 साल रहा, और टैगोर 80 साल तक जीवित रहे। अप्रतिम देशभक्ति के बावजूद भारती को ‘तमिल देश’ से बाहर कांग्रेसियों ने भी कभी नहीं सराहा, जबकि टैगोर की हमेशा प्रशंसा हुई और गांधी-नेहरू तक ने उन्हें खासी प्रसिद्धि दिलाई। एक कारण यह भी कि बंगाली बौद्धिक बिना किसी प्रयास के भी बहुभाषी होता है, लेकिन अन्य भाषा-भाषी पिछड़ जाते हैं। यही कारण है कि टैगोर का लेखन और जीवन वृत्त ठीक उसी तरह बंगाल के बाहर देश ही नहीं, दुनिया में भी चर्चित हुआ, जिस तरह बंगाली समाज में। इसका कारण उनके साहित्य का अंग्रेजी में अनुवाद और व्यापक प्रसार था। तमिल मूल के ज्यादातर विद्वान या तो मातृभाषा तमिल में काम करते दिखेंगे या फिर वैश्विक भाषा में। दोनों में समान अधिकार रखने वाले दुर्लभ हैं।

असमय मृत्यु के कारण भी टैगोर की तुलना में भारती अपने भाषाई समुदाय के बाहर काफी हद तक अज्ञात रहे, लेकिन एक मायने में इतिहास ने उनके साथ सदाशयता बरती। शांति निकेतन ने टैगोर के कॉपीराइट पर जैसा उत्साह दिखाया, उसने उनके काम का समग्र और रचनात्मक मूल्यांकन भी सीमित किया। दूसरी ओर, जैसा कि वेंकटचलापथी लिखते हैं- भारती का रचना संसार बहुत जल्द ही कॉपीराइट से मुक्त हो गया। ‘कलाकारों को नए-नए प्रयोग के साथ उनके गीतों को नए सांगीतिक रूपों में ढालने की छूट मिली।’ भारती बड़े फलक पर जाने गए।

वेंकटचलापथी हमें इस कहानी के कई पात्रों से मिलाते हैं, जिनमें भारती की पत्नी और बच्चों के साथ ही उनके काम से खुद को मालामाल करने वाले फिल्म निर्माता और राजनेता भी हैं। हू ओन्स दैट सांग  पढ़ते हुए लग सकता है कि भारती पर तत्काल एक संपूर्ण बायोग्राफी (जीवनी) की जरूरत है, और शायद एक बायोपिक की भी। इसके सारे गुणसूत्र भी यहां मौजूद हैं। एक रचनात्मक प्रतिभा है, उसकी निजी त्रासदियां हैं, बीमारी और दवाएं हैं... और है रोमांस भी। और भी बहुत कुछ, जो भारती को जानने के लिए जरूरी है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें