मालदीव में चीन का उलटा पड़ा दांव
यामीन की हार के सदमे से चीन अभी उबर नहीं पा रहा है। तकलीफ इतनी कि चुनाव परिणाम के 48 घंटे निकल जाने के बाद भी इब्राहिम मोहम्मद सोलिह को चीन ने बधाई तक नहीं दी। चार पार्टियों का महागठबंधन नहीं बनता और...
यामीन की हार के सदमे से चीन अभी उबर नहीं पा रहा है। तकलीफ इतनी कि चुनाव परिणाम के 48 घंटे निकल जाने के बाद भी इब्राहिम मोहम्मद सोलिह को चीन ने बधाई तक नहीं दी। चार पार्टियों का महागठबंधन नहीं बनता और मतपत्र के जरिए वोट नहीं डलते, तो अकेले इब्राहिम मोहम्मद सोलिह, यामीन जैसे अधिनायक को हरा पाने में समर्थ नहीं थे। नवनिर्वाचित राष्ट्रपति इब्राहिम मोहम्मद सोलिह, नाशीद की ही मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी (एमडीपी) के अध्यक्ष हैं। चार दलों के महागठबंधन में जेपी (जम्हूरी पार्टी), एपी (अधालत पार्टी) और मामून अब्दुल गयूम की पीपीएम (प्रोग्रेसिव पार्टी ऑफ मालदीव) के नेता सोलिह के साथ थे।
चीन की वजह से निवर्तमान राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन पांच साल में अधिनायक बनते चले गए थे। उनका मनोबल इतना बढ़ गया था कि फरवरी 2018 में सुप्रीम कोर्ट के दो जजों को जेल में डालने से भी हिचके नहीं। अपने चिर प्रतिद्वंद्वी मालदीव के चौथे राष्ट्रपति नाशीद की हालत तो ऐसी कर दी कि वह निर्वासन में चले गए। यामीन ने इमरजेंसी भी लगा दी। 30 वर्षों तक अखंड राज करने वाले पूर्व राष्ट्रपति मामून अब्दुल गयूम को भी जेल में डाल दिया। मामून और अब्दुल्ला यामीन सौतेले भाई बताए जाते हैं। उनके पिता अब्दुल गयूम इब्राहिम ने आठ शादियां की थीं, जिनसे 25 बच्चे हुए थे।
मालदीव में ‘घर टूटे, गंवार लुटे’ वाली परिस्थिति का फायदा चीनी परियोजनाओं को मिला। आज हालत यह है कि मालदीव, चीन का सबसे बड़ा देनदार देश है। उसने एक अरब 30 करोड़ डॉलर का कर्ज चीन को चुकता नहीं किया, तो उसे अपने कई सामरिक महत्व वाले द्वीप समूह चीन के पास गिरवी रखने होंगे। ठीक वैसे ही, जैसे श्रीलंका को हंबनटोटा बंदरगाह गिरवी रखना पड़ा।
चीन, ‘कर्ज लो और घी पियो’ की आदत पहले डलवाता है। फिर कर्ज से लदे देश के संसाधनों पर साहुकार की तरह कब्जा करता है। पूर्वी अफ्रीकी देश जिबूती में भी चीन ने यही खेल किया। पहले सामरिक रूप से महत्वपूर्ण जिबूती के दोरलाह बंदरगाह को चीन ने विकसित किया, वहां की कई परियोजनाओं में उसने पैसे लगाए, अंतत: कर्ज से लदे जिबूती के पास उस बंदरगाह को 99 वर्षों के लिए देना ही एकमात्र विकल्प बचा था। श्रीलंका के हंबनटोटा बंदरगाह के साथ वही हुआ है, और संभव है कि मालदीव भी उन्हीं स्थितियों से गुजरे। मालदीव, रिंग शेप वाले 26 प्रवालद्वीप समूहों (एटॉल) और एक हजार 192 कोरल आइलैंड का ऐसा देश है, जो हिंद महासागर में दिएगोगार्सिया के बाद सबसे अधिक सामरिक महत्व रखता है।
बाहर से तो यही दिख रहा है कि मालदीव में चुनाव सामान्य तरीके से संपन्न हुए हैं। मगर इसमें अमेरिका और ब्रिटेन की लगातार दिलचस्पी बनी रही है। नाशीद, ब्रिटेन के काफी करीब रहे हैं। गयूम ने नाशीद को 20 से अधिक बार गिरफ्तार कराया था। राजनीतिक गिरफ्तारियों का सिलसिला यामीन के शासन में भी दोहराया गया, जिसने नाशीद को पश्चिम की दया का पात्र बना दिया। ब्रिटेन ने नाशीद को इलाज के बहाने कैद से बाहर कराया था, और उन्हें सोची-समझी योजना के तहत श्रीलंका भेजा गया। ब्रिटेन और अमेरिका लगातार चाहते रहे कि चीन की कठपुतली वाले शासन की वहां से विदाई हो। विपक्ष एक महागठबंधन बनाए, ऐसे प्रयास कई देशों ने चुपचाप किए थे। कोलंबो, मालदीव की राजनीतिक हलचलों का कंट्रोल टावर बन चुका था, जहां से अमेरिकी-यूरोपीय राजनयिक रणनीति तय कर रहे थे।
निश्चित रूप से भारत, माले स्थित दूतावास के जरिए वहां की सारी गतिविधियों पर नजर रखे हुआ था। मगर कूटनीति में हल्कापन तब उजागर हुआ, जब 22 अगस्त को एक ट्वीट के जरिए बीजेपी के वरिष्ठ सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने यह संदेश दिया कि मालदीव के मतदान में धांधली होती है, तो भारत को धावा बोल देना चाहिए। स्वामी ने यह ट्वीट कोलंबो में निर्वासित रह रहे मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति नाशीद से मुलाकात के बाद किया था। यह कूटनीतिक गंभीरता नहीं थी। ऐसे बयानों के हवाले से चीन कुछ बड़ा खेल कर सकता था, जिसकी आशंका आखिर तक यूरोपीय प्रेक्षकों को थी। वैसे क्या यह संभव है कि 1988 जैसी स्थिति माले में पैदा हो जाए? तब की भू-राजनीतिक परिस्थितियां भिन्न थीं, जब तत्कालीन राष्ट्रपति गयूम के तख्ता-पलट प्रयासों को भारतीय सेना ने विफल किया था।
मगर क्या हम आगे भी बयानों के प्रक्षेपास्त्र दागकर चीन को मालदीव में परास्त करना चाहेंगे या फिर गंभीर किस्म की कूटनीति होगी? यामीन के पांच साल के शासन में चीन ने न सिर्फ इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास में काम किया है, बल्कि वहां का पर्यटन उद्योग चीन पर आश्रित हो चुका है। 2009 में मात्र 60 हजार चीनी टूरिस्ट मालदीव गए थे। 2015 में इनकी संख्या बढ़कर साढ़े तीन लाख से अधिक हो गई थी। 2017 में राजनीतिक उथल-पुथल के बावजूद चीनी पर्यटकों की संख्या तीन लाख से अधिक थी, जबकि पिछले साल यूरोप से आने वाले पर्यटकों की संख्या 74,322 थी। मालदीव के कई द्वीप समूहों पर चीनी निवेश वाले लग्जरी होटल, रिजॉर्ट, चीनी नव-धनाढ्यों और प्रोजेक्ट कर्मचारियों की कॉलोनियां नए निजाम के लिए सिरदर्दी का सबब बनेंगी।
सितंबर 2014 में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग मालदीव आए थे। उन्हीं दिनों गाधो द्वीप को चीन को लीज पर दिए जाने का समझौता हुआ। माले से 437 किलोमीटर दूर गाधो द्वीप को चीन, मराओ एटॉल के बाद, दूसरा मिलिट्री बेस के रूप में विकसित कर रहा है। चीन की महत्वाकांक्षी ‘मेरी टाइम सिल्क रूट’ का मालदीव महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है। शी की उस यात्रा में हुलहुले आइलैंड को, जहां अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा है, सेंट्रल माले आइलैंड से समुद्री रोड ब्रिज के जरिए जोड़ने का समझौता भी हुआ। दिसंबर 2017 में यामीन चीन गए। उन्होंने कुछ इस तरह का मुक्त व्यापार समझौता किया, जिसके आधार पर चीनी सामान बिना इंपोर्ट ड्यूटी के मालदीव के बाजार में भर गए। ये गड़े मुर्दे अब उखड़ने शुरू होंगे कि पूरे पांच साल पिछली सरकार ने कितने पैसे बनाए, और देश की संप्रभुता से किस तरह समझौता किया? भारत को मालदीव में जो कुछ करना है, अमेरिका-ब्रिटेन को भरोसे में लेकर खामोश तरीके से करना होगा। (ये लेखक के अपने विचार हैं)