झुलसी नीतियां और जंगल की आग
पहाड़ों में जंगल की आग ने एक बार फिर से जोर पकड़ लिया है। उत्तराखंड में अभी तक लगभग 3,000 हेक्टेयर जंगल राख हो चुके हैं और करीब 1,337 बार आग लौट-लौटकर आई है। यह सब कुछ शुरू हुआ फरवरी महीने से और अभी तक...
पहाड़ों में जंगल की आग ने एक बार फिर से जोर पकड़ लिया है। उत्तराखंड में अभी तक लगभग 3,000 हेक्टेयर जंगल राख हो चुके हैं और करीब 1,337 बार आग लौट-लौटकर आई है। यह सब कुछ शुरू हुआ फरवरी महीने से और अभी तक तांडव जारी है। सबसे ज्यादा नुकसान पौड़ी जिले में हुआ है, जहां 1,621 हेक्टेयर जंगल 527 बार आग की बलि चढ़े। इसके बाद अल्मोड़ा में 398 हेक्टेयर जंगल को आग लील गई, लगभग 140 और 109 हेक्टेयर जंगल क्रमश: उत्तरकाशी व टिहरी में खत्म हो गए। पैसों में इसे तौल लें, तो करीब 58 लाख का नुकसान हुआ। शायद ही उत्तराखंड का कोई ऐसा जिला बचा हो, जहां इस दावानल ने हाहाकार न मचाया हो। इस बार की आग भी कुछ उसी तर्ज पर दिखाई दे रही है, जैसी 2016 में दिखी थी, जिसमें 4,048 हेक्टेयर जंगल जलकर राख हो गए थे। अगर यही गति बनी रही, तो यह भी मान लीजिए कि पिछला आंकड़ा पार होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा, क्योंकि जून की तपिश इस आग को बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी। और सिर्फ उत्तराखंड ही नहीं, हर जगह पहाड़ों पर यही हो रहा है। जम्मू-कश्मीर में इसी आग की वजह से वैष्णो देवी यात्रा तक रोकनी पड़ गई। हिमाचल के कसौली में वायुसेना छावनी से लगे जंगल भी धू-धू कर जल उठे, जिसे बुझाने के लिए वायुसेना के पूरे अमले का उतारना पड़ा।
यह हर साल होता है, पिछले एक दशक में हमने वनाग्नि से 22,023. 82 हेक्टेयर जंगल खोए हैं। मामला सिर्फ क्षेत्रफल का नहीं, इसमें हमने कई दुर्लभ वनस्पतियां, पशु-पक्षी भी खोए हैं। प्राणी सर्वेक्षण विभाग के अनुसार, उत्तराखंड के जंगलों में भड़क रही आग से 4,543 प्रजातियों के जीव-जंतुओं का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। कोई भी वन एक लंबे संबंध के बाद पारिस्थितिकी स्थायित्व बना पाता है। यह एक सामंजस्य है, जो हवा, मिट्टी, पानी, वन्यजीव व पशु-पक्षी आदि से जुड़ा होता है। इस रिश्ते को किसी आर्थिक आकलन से नहीं समझा जा सकता। वनों की आग और उसके दुष्परिणामों को हम मात्र संख्या में मापते हैं। हम यह तय नहीं करते कि भविष्य में इसके दुष्परिणाम और घातक सिद्ध होंगे, क्योंकि यह तंत्र आने वाले समय में पर्यावरण को साधने में योगदान करेगा।
जंगल की आग की एक खास बात यह है कि इसे शुरुआती दौर में ही थामा जा सकता है। उसके बाद इसे नियंत्रित करना काफी कठिन और जोखिम भरा होता है। इसमें अक्सर जनहानि भी होती है। जंगल की आग को शुरुआती दौर में न थाम पाने का सबसे बड़ा कारण है गांवों और जंगलों का बदलता रिश्ता। इसके मूल में है- 1988 की वन नीति।
एक समय था, जब ऐसी आग को बुझाने के लिए सारा गांव दौड़ पड़ता था। आज वे मूकदर्शक बने रहते हैं। पहले घर गांव में जंगल की आग बुझाना शिक्षा का एक हिस्सा होता था। यह एक संस्कार के रूप में हमारे बीच में था। आज जब कोई रिश्ता नहीं बचा, तो आने वाले समय में नई पीढ़ी को संस्कार कौन देगा? नीतिकारों ने मान लिया है कि ऐसी आग बुझाना वन विभाग का सीधा दायित्व है। लेकिन इस आकलन से वे चूक गए कि लाखों हेक्टेयर वनों की रक्षा मुट्ठी भर वनकर्मी नहीं कर सकते। इसके लिए जन-सहभागिता ही प्रभावी हो सकती है, जो हमारी परंपरा में थी। उत्तराखंड में सरकार ने 3,899 वनकर्मियों को वनाग्नि से निपटने के लिए तैयार जरूर किया है, लेकिन नतीजा हम इस फैलती आग को देखकर समझ सकते हैं।
कोई ऐसा बड़ा प्रयोग भी नहीं हुआ, जो ऐसे दावानल का मुकाबला कर सके। हमने पारिस्थितिकी को इस तरह ढालने की कोशिश नहीं की, जो वनाग्नि से खुद ही जूझ सकती हो। हैस्को ने वर्ष 2010 में वन विभाग के ही साथ ऐसा प्रयोग साधा था, जिसमें 44 हेक्टेयर वनभूमि में 1,000 जलछिद्र और 181 चेकडैम बनाए, जो किसी भी तरह की वर्षा जल को एकत्रित करने में समर्थ हो। ये जलछिद्र वर्षा के पानी को समेटने का काम करते हैं। इस साधारण प्रयोग से दो चमत्कार हुए। पहला, इस जंगल से जुड़ी नदी में पानी की मात्रा 200 लीटर प्रति सेकंड बढ़ गई और साथ में पर्याप्त नमी होने के कारण जंगल की सतह हरी-भरी रही। इसका सीधा असर आग पर पड़ा। इस वनभूमि में तब से आग बुझाने का यह प्राकृतिक तरीका बड़ा काम आया है।
यह प्रयोग चीड़ के वनों के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है, जो आग की बड़ी चपेट में आती है। यह हमारा वन कुप्रबंधन ही है कि आज 17 प्रतिशत अकेले वन क्षेत्र चीड़ के ही कब्जे में है। और इस क्षेत्र का बढ़ना तय है, क्योंकि कमजोर होता वन तंत्र इसी तरह की प्रजातियों को पनपाएगा। यह तय है कि वनों की विकराल आग के पीछे इन प्रजातियों का सबसे बड़ा योगदान है। चीड़ के वनों में पारिस्थितिकी परिवर्तन आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। इन वनों में नमी नहीं होती और इसकी पत्तियां वनभूमि को तेजाबी बना देती हैं, इसलिए वहां अन्य प्रजातियां जगह नहीं बना पातीं। इन वनों में छोटे-बडे़ जलछिद्र मिट्टी की प्रकृति को बदल देंगे व चौड़ी पत्ती की प्रजातियों को नियंत्रण भी देंगे। ये सार्थक प्रयोग शुरुआती चर्चा में हैं, चाहे वह नदियों में पानी बढ़ाने की बात हो या वनों की अग्नि से जूझने की।
वनाग्नि से मुक्त होने के लिए जहां एक तरफ नीतिकारों को झकझोरने की आवश्यकता है, तो वहीं दूसरी तरफ गांव की भागीदारी बढ़ाने के लिए नए सिरे से कोशिशों की जरूरत है। इन दोनों के ही साथ पारिस्थितिकी तंत्र को समझते हुए बड़ी रणनीति बनाने का भी समय है, क्योंकि हमें नहीं भूलना चाहिए कि यह आग मात्र वनों को नहीं लील रही, शीघ्र ही इसके दुष्परिणामों का ताप हम तक भी पहुंचेगा। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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