फोटो गैलरी

Hindi News ओपिनियनसेना की जरूरतों पर ध्यान देने का वक्त

सेना की जरूरतों पर ध्यान देने का वक्त

भारत और पाकिस्तान के बीच एक बार फिर तनातनी का माहौल है। यह अफसोस की बात है कि जब-जब  पाकिस्तान को लगता है कि अमेरिका का हाथ उसके सिर पर है, वह उन्माद से भर जाता है। डोनाल्ड ट्रंप ने जब अमेरिका...

सेना की जरूरतों पर ध्यान देने का वक्त
जी डी बख्शी  रिटायर्ड मेजर जनरल Thu, 21 Feb 2019 08:14 AM
ऐप पर पढ़ें

भारत और पाकिस्तान के बीच एक बार फिर तनातनी का माहौल है। यह अफसोस की बात है कि जब-जब  पाकिस्तान को लगता है कि अमेरिका का हाथ उसके सिर पर है, वह उन्माद से भर जाता है। डोनाल्ड ट्रंप ने जब अमेरिका का कार्यभार संभाला था, तो उन्होंने पाकिस्तान को उसके रवैये के लिए आडे़ हाथों लिया था, लेकिन आज वह दूसरा राग अलाप रहे हैं। चूंकि अफगानिस्तान युद्ध उनके गले की फांस बन गई है, और उन्हें लग रहा है कि यह युद्ध अमेरिकी अर्थव्यवस्था में बड़ा सुराख कर रहा है। वह किसी भी सूरत में अफगानिस्तान से निकलना चाहते हैं। इसके लिए उन्हें फिर से पाकिस्तान की मदद की जरूरत आन पड़ी है। पाकिस्तान-पोषित आतंकी इसी खुमारी में हमारी सीमा के भीतर नापाक हरकतें करने की कोशिश कर रहे हैं।

पुलवामा हमले से स्वाभाविक ही पूरा देश आक्रोशित है। हमारी सेना से जवाबी कार्रवाई की उम्मीद की जा रही है। तो क्या भारत और पाकिस्तान में युद्ध होगा? अगर हां, तो यह किस स्तर का होगा? और, इसके परिणाम क्या हो सकते हैं? इसके साथ-साथ एक अहम सवाल यह भी है कि युद्ध के लिए हमारी सेना कितनी तैयार है? अफसोस की बात है कि जब भी पाकिस्तान कोई ओछी हरकत करता है और भारतीयों का आक्रोश अपने चरम पर होता है, तो गैर-सैन्य तरीके से पाकिस्तान पर दबाव बनाने की बात होती है। इसमें सिंधु जल समझौते को निरस्त करने, पाकिस्तान से मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा वापस लेने, उसे आंतकी राष्ट्र घोषित करने, दूतावास बंद करने और राजदूत को वापस बुलाने जैसी बातें की जाती हैं। मगर इन सब पर भी अमल नहीं किया जाता। इस बार जरूर पाकिस्तान से मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा वापस ले लिया गया है, लेकिन दोनों देशों के बीच व्यापार इतना कम होता है कि इससे शायद ही कोई फर्क पड़े।

साफ है, हमें पाकिस्तान से अब उसी की भाषा में बात करनी होगी। हमें वह भाषा अपनानी होगी, जो उसकी फौज को समझ में आए, क्योंकि तमाम फसाद की जड़ वही है। और फौज को समझाने का तरीका सैन्य कार्रवाई ही है। ऐसे में, सवाल यह है कि क्या हम इसके लिए तैयार हैं? कारगिल युद्ध के दौरान सेनाध्यक्ष जनरल वीपी मलिक से, जो उस समय तीनों सेनाओं के सर्वोच्च कमांडर भी थे, जब पूछा गया कि युद्ध के लिए आप कितने तैयार हैं, तो उन्होंने सिर्फ एक पंक्ति में इसका जवाब दिया था- ‘वी विल फाइट विद व्हाट वी हैव’, यानी जो हमारे पास है, हम उसी से दुश्मन का मुकाबला करेंगे। आज की स्थिति भी कमोबेश यही है। 

पिछले दस साल में सैन्य साजो-सामान की खरीद-फरोख्त हद से अधिक बाधित की गई। यूपीए-दो सरकार में रक्षा खरीद को भ्रष्टाचार मुक्त बनाने की बात कहते हुए ज्यादातर समझौते नहीं किए गए, जबकि सच्चाई यह है कि हमारी ज्यादातर सैन्य सामग्रियां सोवियत दौर, यानी 1960-70 के दशक की हैं। इन्हें भी 1990 तक बदल लेना चाहिए था। मगर यह वक्त गुजरे भी दो दशक से अधिक हो गए हैं, और अब तक नई खरीद की दिशा में कोई ठोस काम नहीं हो सका है। 

वायु क्षमता पर आज पूरी सैन्य शक्ति का दारोमदार होता है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद के सभी युद्धों का सबक यही है कि अगर किसी देश की वायु सेना बेहतर है, तो वह मुल्क जमीन और पानी, दोनों जगह जीत हासिल कर सकता है। और अगर ऐसा नहीं है, तो थल सेना और नौसेना के बेहतर होने पर भी उसकी हार संभव है। अफसोस की बात यह है कि यह सबक हमारे नीति-नियंता भूल गए हैं। चीन और पाकिस्तान, दोनों चुनौतियों से पार पाने के लिए हमारी वायु सेना को 45 स्क्वाड्रन यानी दस्ते की जरूरत है। मगर हमारे पास 30 से भी कम स्क्वाड्रन हैं। मुश्किल यह भी है कि ये लगातार कम हो रहे हैं। अनुमान है कि साल 2030 तक इनकी संख्या महज 26 रह जाएगी। इसके मुकाबले पाकिस्तान की वायु सेना के पास 25 स्क्वाड्रन हैं, यानी आजादी के सात दशक के बाद हमारी ‘उपलब्धि’ यही है कि हमारे नेताओं ने हमारी वायु सेना को पाकिस्तान के बराबर ला खड़ा कर दिया है। हमारे लिए कितनी बड़ी चुनौती आने वाली है, इसका अंदाज इससे भी होता है कि चीन हमारे खिलाफ पाकिस्तान को 42 स्क्वाड्रन की मदद कर सकता है। 

रही बात थल सेना की, तो 1965 की जंग में हमारी ताकत 155 मिलीमीटर मीडियम तोपें थीं। इन तोपों की दो ब्रिग्रेड पाकिस्तान के पास भी थी, जो उसे अमेरिका से मिला था। इन तोपों का इस्तेमाल करते हुए पाकिस्तान ने अखनूर सेक्टर में हमें भारी नुकसान पहुंचाया था। हालांकि हमने जवाबी कार्रवाई लाहौर व सियालकोट में की और पाकिस्तान को वापस लौटने पर मजबूर होना पड़ा। इस घटना को साझा करने का मकसद यह बताना है कि मीडियम गन बेहतर हथियार होती हैं। ऐसी ही करीब 1,450 बोफोर्स गन हमने 1987 में खरीदने का लक्ष्य तय किया था, जिनमें से 450 गन स्वीडन से आनी थीं, और बाकी यहां बननी थीं। मगर जैसे ही बोफोर्स गन भारत आईं, यहां बवाल मच गया। उस भ्रष्टाचार में न तो नौकरशाहों तो सजा मिली, न नेताओं को। सजा मिली, तो सिर्फ भारतीय सेना को। उसके बाद लगभग 30 साल तक एक भी मीडियम गन सेना को खरीदने नहीं दिया गया।

गनीमत है, अब हमारी कंपनियों ने अटैग्स (एडवांस्ड टोड आर्टिलरी गन सिस्टम) गन बना लिए हैं। यह आज के समय में दुनिया भर में सबसे अच्छी मीडियम गन मानी जाती है। अगर इसकी खासियत देखें, तो अमेरिकी गन जहां 45 किलोमीटर तक मार सकती है, वहीं यह 48 किलोमीटर पर भी निशाना लगा सकती है। इतना ही नहीं, अमेरिकी गन एक मिनट में तीन राउंड फायर करती है, जबकि यह 30 सेकंड में छह राउंड। साफ है कि यह महत्वपूर्ण तोप है। फिर, गणतंत्र दिवस की परेड में हमने देखा ही अमेरिका से लाइट होवित्जर 155 मिलीमीटर गन भारत आने लगी है। के9 वज्र भी हमारे देश में बननी शुरू हो गई है। ये सभी खबरें संतुष्ट करती हैं। मगर दिक्कत यह है कि हमारे नौकरशाह निजी क्षेत्रों पर भरोसा ही नहीं करना चाहते। हमें इस मानसिकता को भी बदलने की जरूरत है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें