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पाकिस्तान को यूएन में हराना जरूरी

जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर हुए हमले के बाद आतंकियों और उनके सरपरस्त पाकिस्तान के खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई की मांग भारत के हर कोने से उठ रही है। खबर है कि केंद्र सरकार इसके...

पाकिस्तान को यूएन में हराना जरूरी
शशांक पूर्व विदेश सचिव Tue, 19 Feb 2019 09:56 PM
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जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर हुए हमले के बाद आतंकियों और उनके सरपरस्त पाकिस्तान के खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई की मांग भारत के हर कोने से उठ रही है। खबर है कि केंद्र सरकार इसके लिए सैन्य कार्रवाई और राजनयिक दूरी बनाने समेत तमाम विकल्पों पर गौर कर रही है। ऐसा ही एक रास्ता पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग करने का है, जिसकी तरफ वित्त मंत्री अरुण जेटली ने खुलकर इशारा भी किया है। लेकिन क्या ऐसा संभव है? यदि हां, तो फिर इसकी रूपरेखा क्या होगी?
दक्षिण एशियाई सहयोग संगठन ‘सार्क’ का 19वां सम्मेलन इन सवालों का कुछ हद तक जवाब देता है। साल 2016 में यह सम्मेलन इस्लामाबाद में प्रस्तावित था। मगर तब पाकिस्तान-पोषित आतंकियों ने कश्मीर के ही उरी सेक्टर में आर्मी बेस कैंप पर हमला करके हमारे करीब डेढ़ दर्जन जवानों को शहीद कर दिया था। लिहाजा, भारत ने दक्षेस की उस बैठक में शिरकत करने से इनकार कर दिया। नई दिल्ली को अफगानिस्तान, बांग्लादेश जैसे सदस्य देशों का साथ तो मिला ही, भूटान, श्रीलंका और मालदीव ने भी उस सम्मेलन में न जाने का फैसला किया, जबकि वे पाकिस्तानी सरजमीं पर फल-फूल रहे आतंकवाद से सीधे तौर पर प्रभावित नहीं रहे हैं। नतीजतन, पाकिस्तान को शर्मसार होकर वह सम्मेलन रद्द करना पड़ा। ऐसी ही एक कोशिश 2008 के मुंबई हमले के बाद हुई थी। तब बेशक इस्लामाबाद के सत्ता-प्रतिष्ठानों में बैठे जिम्मेदार लोग उस कत्लेआम की जिम्मेदारी भारत के अतिवादी संगठनों पर डालने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन बाद में अंतरराष्ट्रीय दबावों के मद्देनजर पाकिस्तान को लश्कर-ए-तैयबा कमांडर और हमले के मुख्य सरगना जकीउर रहमान लखवी को हिरासत में लेना पड़ा था।
जाहिर है, पहले के ऐसे तमाम प्रयासों में हमें काफी हद तक सफलता मिली है। इस समय भी, पुलवामा हमले के दो दिनों बाद जब अर्जेंटीना के राष्ट्रपति मॉरिसियो मैक्री दिल्ली पहुंचे, तो उन्होंने इस घटना की कड़ी निंदा करते हुए भारत का पूरा साथ देने का भरोसा दिया। उन्होंने न सिर्फ आतंकवाद को वैश्विक शांति का दुश्मन माना, बल्कि दुनिया के सभी देशों को इसके खिलाफ एकजुट होने का आह्वान भी किया। दीगर बात है कि अर्जेंटीना उस जी-20 का भी सदस्य है, जिसके तहत ‘फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स’ ने आतंकी फंडिंग करने के कारण पाकिस्तान को अपनी ‘ग्रे-लिस्ट’ में डाल रखा है। 
पाकिस्तान को वित्तीय मदद देने वाले बड़े देशों में शामिल सऊदी अरब ने भी पुलवामा हमले के साथ-साथ उस आतंकवाद की पुरजोर निंदा की है, जो इस्लामाबाद के सत्ता व सैन्य प्रतिष्ठानों द्वारा पोषित है। अमेरिका ने बेशक 20 अरब डॉलर से अधिक की इमदाद पाकिस्तान को दी है, लेकिन उसने भी इस हरकत को लेकर इस्लामाबाद की सख्त आलोचना की है। हालांकि चीन का रुख अब तक इस पर साफ नहीं है। उसकी इस लुका-छिपी की कई वजहें हैं। सबसे बड़ा कारण तो यही है कि पाकिस्तान ने अपनी काफी जमीन और बंदरगाह ‘वन बेल्ट वन रोड’ (अब इसे ‘बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव’ कहा जाता है) के तहत उसे सौंप रखे हैं। चूंकि दुनिया का सबसे ताकतवर देश बनने की राह में यह परियोजना चीन के लिए काफी अहमियत रखती है, इसलिए वह पाकिस्तान का साथ छोड़ना नहीं चाहता। जैश-ए-मोहम्मद के कमांडर मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र की वैश्विक आतंकी सूची में डलवाने की नई दिल्ली की कोशिशों को वह इसीलिए विफल करता रहा है। 
लेकिन इस बार उसके ऊपर भी दबाव साफ महसूस किया जा रहा है, जिसका बड़ा कारण अफगानिस्तान है। दरअसल, अमेरिकी फौज के काबुल से निकलने के बाद सभी देश वहां अपनी-अपनी संभावनाएं देख रहे हैं। रूस के साथ मिलकर चीन भी वहां अपनी बड़ी भूमिका के सपने संजो रहा है। अब चूंकि अफगानिस्तान का रुख पाकिस्तान को लेकर काफी आलोचनात्मक है, तो बीजिंग के लिए दुविधा की स्थिति बन गई है। हमारे लिए अच्छी बात यह भी है कि ईरान ने भी भारत का साथ देने का भरोसा दिया है। ऐसे में, संभव है कि इस बार पड़ोसी देशों के साथ-साथ उसे आर्थिक सहायता देने वाले 
बड़े देशों की तरफ से भी उस पर दबाव पडे़। इसका शुरुआती असर तो दिखने भी लगा है। कल जब पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान पुलवामा पर अपना बयान दे रहे थे, तब उनकी भाषा अपेक्षाकृत संयत तो थी ही, उन्होंने सुबूत देने पर इस हमले की हरसंभव जांच करने की बात भी कही।
ऐसे में, पी 5+1 देश (संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांचों स्थाई देश- चीन, फ्रांस, रूस, ब्रिटेन, अमेरिका और एक अन्य देश जर्मनी) की जिम्मेदारी काफी अहम बन जाती है। देखना होगा कि ये तमाम मुल्क पुलवामा हमले को कैसे देखते हैं? हालांकि इतिहास यही बताता है कि व्यक्तिगत तौर पर तो पाकिस्तान को अलग-थलग करने में हम सफल रहे हैं, लेकिन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में चीन के वीटो के कारण इस बाबत कोई प्रस्ताव पास करा पाना हमारे लिए मुश्किल हो जाता है।
बहरहाल, तमाम कूटनीतिक प्रयासों के साथ-साथ हमारी कोशिश कश्मीर में हालात सामान्य बनाने की भी होनी चाहिए। घाटी को लेकर बार-बार बेनकाब होने के बाद भी पाकिस्तान यही दुष्प्रचार करता रहा है कि स्थानीय लड़ाके वहां अशांति पैदा कर रहे हैं। हमें यह कोशिश करनी चाहिए कि पाकिस्तान को ऐसा कुछ कहने का मौका न मिले। कश्मीर के लोगों, खासकर नौजवानों में यदि कहीं कोई अविश्वास है, तो उसे दूर किया ही जाना चाहिए। इसी का फायदा सीमा पार बैठे आतंकी उठाते हैं। फिर, ‘लॉ ऑफ ट्रीटीज’ यही कहता है कि अगर दो देशों के बीच युद्ध जैसे हालात बनते हैं, तो पूर्व के सभी समझौते निरस्त किए जा सकते हैं। अभी पाकिस्तान हमारे खिलाफ छद्म युद्ध में जुटा है, इसलिए भारत अपने तईं हरसंभव कदम उठाने को स्वतंत्र है। ‘सर्वाधिक तरजीही राष्ट्र’ यानी मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा केंद्र सरकार ने फिलहाल वापस ले लिया है, मगर उस पर सिंधु जल समझौते को निरस्त करने का जन-दबाव भी काफी ज्यादा है। जाहिर है, हमारी हुकूमत जो भी रास्ता अपनाएगी, वह अनुचित नहीं होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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