न्यायिक नियुक्तियों का नया विवाद
उच्चतम न्यायालय में दो नए न्यायाधीशों की नियुक्ति ने न्यायिक नियुक्तियों के तौर-तरीकों पर विवाद की तरफ लोगों का ध्यान एक बार फिर आकर्षित किया है। पहले भी कई बार यह मुद्दा विमर्श में रहा है। खासतौर से...
उच्चतम न्यायालय में दो नए न्यायाधीशों की नियुक्ति ने न्यायिक नियुक्तियों के तौर-तरीकों पर विवाद की तरफ लोगों का ध्यान एक बार फिर आकर्षित किया है। पहले भी कई बार यह मुद्दा विमर्श में रहा है। खासतौर से न्यायिक नियुक्तियों के लिए आयोग के गठन के समय इस पर लंबी बहस चली थी। अंत में सर्वोच्च न्यायालय ने उस अधिनियम को ही निरस्त कर मामले का पटाक्षेप कर दिया था। ताजा संदर्भ कॉलेजियम द्वारा 10 जनवरी को अपनी ही पूर्व अनुशंसा पर पुनर्विचार करते हुए दो नए न्यायाधीशों दिनेश महेश्वरी और संजीव खन्ना के नाम की अनुशंसा करने का है। इस अनुशंसा को पांच दिनों में राष्ट्रपति की स्वीकृति मिल गई और अधिसूचना भी जारी हो गई, जबकि ये दोनों जज वरीयता सूची में 21वें और 33वें नंबर पर हैं। इसके पूर्व कॉलेजियम ने दिल्ली व राजस्थान उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश राजेंद्र मेनन व प्रदीप नंद्राजोग के नामों की अनुशंसा की थी। गौर करने की बात यह है कि इन दोनों के नामों को वापस करके इनसे कनीय दो लोगों की अनुशंसा किस परिस्थिति में की गई, यह बताया नहीं गया।
पूर्व अनुशंसा 12 दिसंबर, 2018 को कॉलेजियम की बैठक द्वारा की गई थी, जो लगभग महीने भर लंबित रहा। जब इस पर पुनर्विचार करते हुए दो नए नामों की अनुशंसा 10 जनवरी, 2019 को कॉलेजियम ने की, तो पांच दिनों के अंदर ही इसे राष्ट्रपति की स्वीकृति मिल गई। यह कॉलेजियम की कार्यशैली और न्यायिक नियुक्ति की प्रक्रिया पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। याद रहे, मौजूदा प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई के साथ उच्चतम न्यायालय के तीन अन्य न्यायाधीशों न्यायमूर्ति चेलमेश्वर, न्यायमूर्ति मदन लोकुर और न्यायमूर्ति कूरियन जोसेफ ने प्रेस कांफ्रेन्स करके तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा और उनके नेतृत्व वाली कॉलेजियम की कार्यशैली पर सवाल खड़े किए थे। उनके मुताबिक, सवार्ेच्च न्यायिक संस्थान में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा था। अब वर्तमान नियुक्तियों के संदर्भ में फिर पूर्व न्यायाधीश चेलमेश्वर ने एतराज जताते हुए कहा है कि इन्हीं सब कारणों से वह कॉलेजियम की बैठक में नहीं जाते थे। पूर्व प्रधान न्यायाधीश आर एम लोढ़ा ने भी कॉलेजियम द्वारा पहले की अनुशंसाओं को बदलने के औचित्य पर सवाल खड़े किए हैं। वर्तमान न्यायाधीश एस के कौल ने भी इसके विरोध में पत्र लिखा है
संविधान के अनुच्छेद 124 (2) में स्पष्ट उल्लेख है कि ‘उच्चतम न्यायालय और राज्यों के उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श करने के पश्चात, जिनसे राष्ट्रपति इस प्रयोजन के लिए परामर्श करना आवश्यक समझे, अपने हस्ताक्षर द्वारा, मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा उच्चतम न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश को नियुक्त करेगा और वह न्यायाधीश तब तक पद धारण करेगा, जब तक वह 65 वर्ष की आयु प्राप्त नहीं कर लेता है।’ यानी इन नियुक्तियों के लिए राष्ट्रपति अगर आवश्यक समझे, तभी उच्चतम न्यायालय से परामर्श लेना जरूरी है। संविधान के निर्वचन और व्याख्या का अंतिम अधिकार के तहत उच्चतम न्यायालय ने इस परामर्श को बाध्यकारी बना दिया है। यही नहीं, न्यायिक नियुक्तियों से संबंधित प्रभावकारी अधिकार उच्चतम न्यायालय ने धीरे-धीरे अपने कॉलेजियम के लिए हस्तगत कर लिया और अपनी अनुशंसा को राष्ट्रपति के लिए बाध्यकारी बना दिया। विधायिका हो या कार्यपालिका, हरेक सरकारी क्षेत्र में पारदर्शिता और जवाबदेही के सिद्धांत को तो न्यायपालिका मजबूती से लागू करती है,परंतु अपने कॉलेजियम की कार्यशैली में यही पारदर्शिता लाने से क्यों परहेज करती है, यह समझ से परे है।
संविधान (121वां) संशोधन विधेयक 2014 को, जिसे राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक भी कहते हैं, संसद के दोनों सदनों ने पारित किया था। इसके तहत न्यायिक नियुक्तियों में न्यायपालिका, कार्यपालिका और विभिन्न क्षेत्रों के प्रख्यात व्यक्तियों का दृष्टिकोण लेते हुए चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता लाने की मंशा व्यक्त की गई थी। साथ ही उच्च न्यायपालिका में नियुक्तियों को व्यापक आधार प्रदान करने और विख्यात संवेदनशील व्यक्तियों की सहभागिता के आधार पर अतिरिक्त पारदर्शिता, जवाबदेही आदि सुनिश्चित करने की मंशा जाहिर की गई थी। लेकिन अक्तूबर, 2015 में सर्वोच्च न्यायालय के पांच जजों वाली संविधान पीठ ने इसे असांविधानिक घोषित करते हुए कॉलेजियम व्यवस्था के तहत ही नियुक्ति करने का निर्णय दिया। अपने ही निर्णय और सिद्धांत के विपरीत योग्य उम्मीदवारों की सूची में से वरीय लोगों की अनुशंसा वापस लेकर सूची के 21वें और 33वें नंबर के लोगों को उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करके न्यायपालिका क्या संदेश देना चाहती है? उच्चतम न्यायालय को जनमानस में इसे लेकर बनी भ्रम की स्थिति दूर करनी चाहिए।
प्रसंगवश, 17 जनवरी के अखबारों में इन न्यायिक नियुक्तियों के समाचार के साथ-साथ उच्चतम न्यायालय के एक और निर्णय की खबर थी। इस मामले में राज्य सरकारों द्वारा पुलिस महानिदेशकों की नियुक्ति में वरीयता क्रम के आधार पर पारदर्शी तरीके से नियुक्ति करने के उच्चतम न्यायालय के पूर्वादेश पर पुनर्विचार याचिका दाखिल की गई थी। प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई के साथ न्यायमूर्ति एल एन राव और न्यायमूर्ति एस के कौल की पीठ ने कुछ राज्य सरकारों द्वारा दायर इस याचिका को खारिज कर दिया। ये सरकारें न्यूनतम योग्यताधारी पुलिस पदाधिकारियों में से नियुक्ति का अप्रतिबंधित अधिकार चाह रही थीं। न्यायालय ने अपने पूर्व के निर्णय के अनुसार राज्य सरकारों को योग्य उम्मीदवारों की सूची पहले संघ लोक सेवा आयोग को भेजने और आयोग द्वारा चुने गए तीन उम्मीदवारों में से ही किसी को पुलिस महानिदेशक नियुक्त करने के अपने पहले के निर्णय को कायम रखा। इसमें तर्क यह दिया गया है कि राज्य सरकारें पसंद के लोगों को महानिदेशक बनाने में वरीयता और पारदर्शिता का ख्याल नहीं करती हैं। राज्य सरकारों द्वारा वरीयता व पारदर्शिता को दरकिनार कर पसंद के पुलिस अधिकारी को महानिदेशक बनाने की संभावना को रोकने की व्यवस्था तो सुप्रीम कोर्ट ने दे दी, पर वरीयता और पारदर्शिता का यही सिद्धांत इसके कॉलेजियम द्वारा न अपनाना जनमानस को झकझोरता है।
भारतीय सांविधानिक व्यवस्था में न्यायपालिका का अहम स्थान है। सांविधानिक व्यवस्था के संरक्षणकर्ता के रूप में सवार्ेच्च न्यायालय की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। समय-समय पर उसने अपनी इस भूमिका को बखूबी निभाया भी है। इस मामले में भी न्यायपालिका को ही आत्म-नियामक की भूमिका निभानी होगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)