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लड़खड़ाती शांति-वार्ता की नई बाधा

सोमवार को चर्च समर्थित सिविल सोसायटी संगठन ‘फोरम फॉर नगा रिकन्सीलिएशन’ यानी एफएनआर ने यह एलान किया कि ‘आज हमें नई दिल्ली में चल रही केंद्र-नगा शांति वार्ता पर नए सिरे से विचार करने...

लड़खड़ाती शांति-वार्ता की नई बाधा
सुदीप चक्रवर्ती, वरिष्ठ पत्रकारThu, 17 Jan 2019 09:10 PM
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सोमवार को चर्च समर्थित सिविल सोसायटी संगठन ‘फोरम फॉर नगा रिकन्सीलिएशन’ यानी एफएनआर ने यह एलान किया कि ‘आज हमें नई दिल्ली में चल रही केंद्र-नगा शांति वार्ता पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है, ताकि केंद्र सरकार और नगा सियासी समूहों के बीच राजनीतिक विचार-विमर्श हो। और उसमें नगा लोगों की आवाज को समावेशी सहभागिता और पारदर्शिता के साथ उठाई जा सके।’

सामान्य रूप में यह बयान नगा सशस्त्र समूहों के लिए एक तमाचा है, बल्कि उस पूरी शांति प्रक्रिया की राजनीति के गाल पर ही थप्पड़ है, जिसे यह संगठन यानी एफएनआर ‘एकपक्षीय’ कहता रहा है। एफएनआर ने अपनी घोषणा को ‘नगा लोगों का जनादेश’ कहा है। बुनियादी तौर पर एफएनआर की अपेक्षाएं सही हैं। इसमें कोई बुराई नहीं हो सकती, क्योंकि नए सिरे से गौर करने से उस शांति-वार्ता को फायदा ही होगा, जिसकी घोषणा काफी धूम-धड़ाके के साथ खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगस्त 2015 में की थी। तब केंद्र सरकार और नेशनल सोशलिस्ट कौंसिल ऑफ नगालिम (इसाक-मुइवा) यानी एनएससीएन (आई-एम) के बीच एक ‘फ्रेमवर्क एग्रीमेंट’ की भी घोषणा हुई थी। गौरतलब है कि एनएससीएन (आई-एम) नगालैंड का सबसे बड़ा विद्रोही समूह है। अन्य बागी गुट इस एग्रीमेंट से बाहर थे, इसी तरह नगालैंड, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश और  असम की सरकारें भी इसमें नहीं थीं, जबकि मणिपुर, अरुणाचल और असम में भी नगा लोग बड़ी संख्या में रहते हैं, और इस वार्ता का असर उन पर भी पड़ना ही था। यानी नगा जनता इस प्रकिया से बडे़ पैमाने पर अलग  रह गई थी।

निश्चित रूप से केंद्र के वार्ताकार आर एन रवि ने लोगों और नेताओं के साथ काफी संवाद किया है, इसके बावजूद यह प्रक्रिया अधर में ही है। सितंबर 2017 में इस प्रकरण में एक मास्टर स्ट्रोक तब देखने को मिला, जब छह छोटे समूहों ने मिलकर समझौते का एक समानांतर मंच खड़ा कर दिया। इस तरह से उन्होंने एनएससीएन (आईएम) को पैगाम दिया कि इस प्रक्रिया में एक वही खिलाड़ी नहीं है। बाद के दिनों में एनएससीएन-खापलांग गुट में हुए विभाजन ने बर्खास्त नेता खांगो कोन्याक को शांति वार्ता का एक और दावेदार बना दिया। 

नगा गुट में विभाजन से केंद्र सरकार की समझौते की शक्ति भले बढ़े, मगर अपनी सोच को दुरुस्त मानकर नगा शांति-वार्ता की कवायद का मतलब अक्सर नगा इतिहास और संघर्ष की अनदेखी करना ही माना जाता रहा है, जिसके लिए उचित शब्दावली और दो झंडे जैसे प्रतीकों की दरकार होगी। इसके साथ ही भारतीय संविधान के अनुच्छेद 371 (ए) के तहत नगालैंड को मिले लाभों के संरक्षण की भी जरूरत होगी। यह अनुच्छेद नगाओं की ‘धार्मिक व सामाजिक परंपराओं’ की प्राथमिकता, ‘नगा परंपरा के कायदे-कानूनों व प्रक्रियाओं’, ‘नगा पारंपरिक कानूनों के मुताबिक नागरिक व आपराधिक न्याय संहिता पर आधारित प्रशासन’ और ‘भूमि व संसाधनों के हस्तांतरण तथा उन पर मालिकाना अधिकार’ भी देता है।

एक बात हमेशा उठती रही है कि अन्य बागी गुटों और नेताओं का क्या होगा? कैडरों को क्या समाज, पुलिस और विभिन्न बलों में सहज समायोजन हो सकेगा? फिर बेलगाम सत्ता और भारी धन संपदा से लैस हथियारबंद नेता, चारों राज्यों में स्वायत्त परिषद के सदस्य बनकर या नगालैंड के दो सदनात्मक व्यवस्था में भागीदारी करके ही संतुष्ट होंगे?  

बहरहाल, केंद्र सरकार की पुरानी आपत्तियां हों या फिर मौजूदा दांव; या फिर राज्य सरकारों की अकुशलता और भारी भ्रष्टाचार हो, पूर्वोत्तर भारत इन सबको झेलने को अभिशप्त रहा है। स्वाभाविक ही इस हालात ने जनता में क्षोभ पैदा किया है। इसने एफएनआर को भी क्षुब्ध किया है। एक तरफ, उसे बागी समूहों ने धोखा दिया है, तो दूसरी तरफ, केंद्र सरकार भी उससे एक दूरी बरतती रही है। दरअसल, साल 2008 से एफएनआर ने उन बागी समूहों के बीच संवाद कायम किया, जो इलाके में अपना प्रभाव स्थापित करने के लिए एक-दूसरे से लड़ रहे थे। इन बागी गुटों के बीच उत्तरी थाइलैंड के चियांग माई में दोस्ताना फुटबॉल मैच तक हुआ। लेकिन इन सबका कोई नतीजा नहीं निकला।

फिर फरवरी 2012 में एफएनआर ने जबर्दस्त जन-समर्थन का प्रदर्शन किया। तब दीमापुर में लगभग 50,000 लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा था, जिसमें बागी नेताओं के अलावा, चर्च व कबाइली नेता और जनता शामिल थी। सबने नगा विद्रोही गुटों में समझौते का समर्थन किया था। हालांकि वह भावना अब भी कायम है, लेकिन जिसे एफएनआर ‘जनादेश’ बता रहा है, उस सद्भाव खत्म हो चुका है। दरअसल, 2015 के  समझौते ने एफएनआर को अप्रासंगिक बना दिया। लेकिन सच्चाई यही है कि इस संगठन को कुछ सरकारी अधिकारी देशद्र्रोहियों का समूह मानते हैं, तो वहीं दूसरे तमाम लोग सच्ची शांति का जरूरी माध्यम।

पिछले सितंबर में एफएनआर ने बागी समूहों के ‘टैक्स’ के बोझ के खिलाफ चेतावनी जारी करते हुए आगाह किया था कि इससे सामाजिक मुसीबतें बढ़ सकती हैैं। उसने कहा था कि इस बोझ के कारण नगा राष्ट्रीय समूहों और स्वार्थी तत्वों व पार्टियों में भी गठजोड़ हो सकता है। एफएनआर जवाबदेही, पारदर्शिता, भरोसे और सम्मान की मांग करने के साथ-साथ शांति प्रक्रिया को हरसंभव संदेह रहित  बनाने की मांग भी कर रहा है। और यही है वह ‘पुनर्चिंतन’, यानी शांति वार्ता पर नए सिरे से गौर करने की जरूरत।
(ये लेखक के अपने विचार हैं) 

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