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ब्रिटेन की अस्थिरता और हमारी उम्मीद

ब्रिटिश संसद की मौजूदा ब्रेग्जिट बिल पर रजामंदी न मिलने से इंग्लैंड में अनिश्चितता का माहौल बन गया है। हर तरफ सवाल यही है कि अब आगे क्या होगा? विश्व राजनीति में ब्रिटेन की हैसियत पर भी सवाल उठने लगे...

ब्रिटेन की अस्थिरता और हमारी उम्मीद
शशांक, पूर्व विदेश सचिवWed, 16 Jan 2019 09:06 PM
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ब्रिटिश संसद की मौजूदा ब्रेग्जिट बिल पर रजामंदी न मिलने से इंग्लैंड में अनिश्चितता का माहौल बन गया है। हर तरफ सवाल यही है कि अब आगे क्या होगा? विश्व राजनीति में ब्रिटेन की हैसियत पर भी सवाल उठने लगे हैं। हालांकि लेबर पार्टी के प्रमुख और ब्रिटिश संसद में नेता प्रतिपक्ष जेरेमा कॉर्बिन ने प्रधानमंत्री थेरेसा मे के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव आगे बढ़ा दिया है,पर ऐसा नहीं है कि मे के लिए अब सारे रास्ते बंद हो गए हैं। बेशक इस प्रस्ताव के पारित होने का अर्थ होगा, थेरेसा मे का अपनी कुरसी गंवाना, लेकिन ब्रिटिश प्रधानमंत्री के सामने अब भी कई विकल्प मौजूद हैं। इसीलिए सांसदों के इस एक निर्णय से यूरोपीय संघ और ब्रिटेन के रिश्तों का फैसला नहीं होने वाला। 
यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के हटने की अंतिम तारीख 29 मार्च है। ऐसे में, प्रधानमंत्री थेरेसा मे ‘प्लान बी’ के साथ आगे बढ़ सकती हैं, और उन्होंने इसके संकेत भी दिए हैं। मे ने कहा है कि वह विपक्षी नेताओं के साथ ‘सकारात्मक बातचीत’ कर रही हैं, लिहाजा इस बात की संभावना ज्यादा है कि प्रधानमंत्री यूरोपीय संघ से और अधिक रियायतें लेने की कोशिश करेंगी और नए प्रस्ताव के साथ संसद में आएंगी। अगर दूसरा प्रस्ताव भी संसद में पारित नहीं हो पाता, तो सरकार तीसरे विकल्प में अपने लिए उम्मीद खोज सकेगी। मगर यहां मुश्किल यह भी है कि प्रधानमंत्री का समर्थन उनकी पार्टी के कुछ सांसद भी नहीं कर रहे। इसीलिए थेरेसा मे को अपने सांसदों का विश्वास सबसे पहले जीतना होगा।
तमाम उपायों के बाद भी यदि सरकार ब्रेग्जिट बिल पर संसद का भरोसा नहीं जीत पाती है, तो इस मसले पर फिर से जनमत संग्रह हो सकता है। चूंकि ‘ब्रेग्जिट’ की प्रक्रिया को अगले दो महीने में उसके अंजाम तक पहुंचाना अनिवार्य है, इसलिए जनमत संग्रह फिलहाल एक मुश्किल काम लग रहा है। ठीक यही स्थिति आम चुनाव को लेकर भी है। अव्वल तो ब्रिटेन में ‘फिक्स्ड टर्म पार्लियामेंट ऐक्ट’ है, जिसका अर्थ है कि संसद पांच साल की अपनी अवधि पूरी करेगी। लेकिन यदि बीच में ही सरकार के अस्तित्व पर संकट आता है, तो नए चुनाव हो सकते हैं। मगर इससे पहले थेरेसा मे को सांसदों का विश्वास फिर से जीतने का एक मौका दिया जाएगा।
आगे की तस्वीर अभी पूरी तरह साफ नहीं है। आम जनता में भी इसे लेकर एक उलझन है। ब्रिटेन ने यूरोपीय संघ से बाहर जाने का फैसला कई कारणों से लिया था, जिनमें से एक बड़ी वजह प्रतिस्पद्र्धा थी। यह प्रतिस्पद्र्धा कई स्तरों पर रही है। मसलन, यूरोपीय संघ के सदस्य होने के नाते यूरोपीय देशों को कई रियायतें देना ब्रिटेन की मजबूरी थी। चूंकि इंग्लैंड आर्थिकी के लिहाज से विश्व का एक प्रमुख ठिकाना है, इसीलिए दूसरे यूरोपीय देशों से अनगिनत प्रतिभाएं ब्रिटेन आ रही थीं। इससे स्थानीय नौजवानों के लिए रोजगार के अवसर सिमट रहे थे। उन्हें दूसरे यूरोपीय देशों की प्रतिभाओं से कड़ा मुकाबला करना पड़ रहा था और कौशल में अपेक्षाकृत कमतर होने की वजह से उन्हें नुकसान भी हो रहा था। इसी तरह, अमेरिका के नजदीक होने के कारण ब्रिटेन विश्व राजनीति में अपनी एक अलग पहचान की ख्वाहिश भी पाले हुए था।  दरअसल, वह 20वीं सदी के शुरुआती वर्षों को फिर से जीना चाहता था, जब उसके शासन क्षेत्र में सूरज कभी डूबता नहीं था। मगर यूरोपीय संघ की छाया में उसके लिए उस मुकाम तक पहुंचना संभव नहीं दिख रहा था। तुर्की जैसे नाटो सदस्य देश भी उसकी राह के रोडे़ जैसे थे। ब्रिटेन यूरो मुद्रा अपनाने को लेकर भी बहुत संतुष्ट नहीं था। 
लेकिन जब ‘ब्रेग्जिट’ को लेकर यूरोपीय संघ से बातचीत आगे बढ़ी, तो तत्कालीन ब्रिटिश सरकार को यह एहसास हो गया कि यूरोपीय संघ उसे आसानी से छोड़ने को तैयार नहीं है। यूरोपीय संघ ने करीब 60 अरब यूरो वापस मांगने की बात कही, जो सब्सिडी आदि पर ब्रिटेन को उसने लाभ पहुंचाया था। फिर स्पेन, आयरलैंड जैसे देश ‘मुक्त आवागमन’ को लेकर ब्रिटेन के दायित्व को खत्म करने के पक्ष में नहीं हैं। इस तरह की बातें ही ब्रिटिश सांसदों के लिए चिंता का विषय थीं। ब्रिटिश सांसद अब भी अपनी सीमाओं पर नियंत्रण और देश में काम के वास्ते या बसने के लिए आने वाले लोगों की संख्या नियंत्रित करने के पक्ष में दिखते हैं, पर उनका ऐतराज उन दायित्वों को लेकर है, जो यूरोपीय संघ से अलग होने की सूरत में ब्रिटेन के हिस्से में आने की बात कही जा रही है।
जनमत संग्रह के बाद से अब तक यह साफ हो चुका है कि यूरोपीय संघ से अलग होने के बाद भी ब्रिटेन उन दायित्वों से पूरी तरह मुक्त नहीं हो सकेगा, जिसके सपने के साथ वहां के लोगों ने जनमत संग्रह का साथ दिया था। इसके अलावा, दूसरे यूरोपीय देशों की भी अपनी मांग है, जिसको पूरा करना ब्रिटेन के लिए जरूरी होगा। हालांकि इन तमाम मसलों में पश्चिम एशिया भी एक अहम कड़ी है, क्योंकि यूरोपीय संघ से बाहर निकलने के लिए ब्रिटेन पर इसलिए भी दबाव बढ़ा, क्योंकि वहां अस्थिर पश्चिम एशिया से लोगों की आमद बढ़ गई थी। चूंकि तुर्की पर अमेरिका ने दबाव बढ़ा दिया है, इसलिए आशंका यह जताई जा रही है कि सीरिया के बाद तुर्की से भागने वाले लोग ब्रिटेन आ सकते हैं। 
बहरहाल, भारत इसमें लिए अपनी उम्मीदें देख सकता है। जिस तरह से दुनिया भर में दक्षिणपंथ का उभार हुआ है और शरणार्थियों की समस्या बढ़ी है, उसमें चीन और भारत जैसे एशियाई देश नेतृत्व की भूमिका में सामने आ सकते हैं। अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों के साथ नए समझौते भी किए जा सकते हैं। हालांकि इसके लिए जरूरी है कि हम अपनी अर्थव्यवस्था को और अधिक मजबूत बनाएं। ऐसा करने पर ही बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत का रुख कर सकेंगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं) 

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