फोटो गैलरी

Hindi News ओपिनियनचीन की बढ़ती ताकत और हमारी दुविधा

चीन की बढ़ती ताकत और हमारी दुविधा

इस महीने की शुरुआत में सेंट्रल मिलिटरी कमिशन (सीएमसी) के शीर्ष अधिकारियों की एक बैठक में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) को युद्ध के लिए तैयार रहने का आदेश दिया, क्योंकि...

चीन की बढ़ती ताकत और हमारी दुविधा
हर्ष वी पंत, प्रोफेसर, किंग्स कॉलेज लंदन Tue, 15 Jan 2019 09:13 PM
ऐप पर पढ़ें

इस महीने की शुरुआत में सेंट्रल मिलिटरी कमिशन (सीएमसी) के शीर्ष अधिकारियों की एक बैठक में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) को युद्ध के लिए तैयार रहने का आदेश दिया, क्योंकि उनकी राय में देश को अभूतपूर्व जोखिम और चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। बैठक में उन्होंने कहा, ‘सभी सैन्य इकाइयों को न सिर्फ राष्ट्रीय सुरक्षा और विकास से जुड़ी प्रमुख प्रवृत्तियां सही ढंग से समझनी चाहिए, बल्कि अप्रत्याशित मुसीबत, संकट और युद्ध के प्रति अपनी समझ मजबूत करनी चाहिए’। यह बताते हुए कि ‘दुनिया ऐसे बड़े बदलावों से गुजर रही है, जो सदी में पहले नहीं देखे गए, और चीन अब भी विकास के लिए सामरिक अवसर की खोज में है’ जिनपिंग ने ‘सभी क्षेत्रों में उन्नत कामों को आगे बढ़ाने और मजबूत व कुशल ज्वॉइंट-ऑपरेशन कमांडिंग संस्थानों के विकास में तेजी लाने की जरूरत’ पर बल दिया, ताकि सेना की युद्ध जीतने की क्षमता व्यापक रूप से बढ़ाई जा सके। जिनपिंग ने सशस्त्र बलों के प्रशिक्षण के लिए एक आदेश पर भी हस्ताक्षर किए, जो सीएमसी का इस वर्ष का पहला आदेश है। यह प्रशिक्षण पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की सभी इकाइयों के लिए जरूरी है।

शी जिनपिंग सेना की सक्रियता के लिए खासे उत्साहित रहे हैं और पदभार संभालने के बाद से ही पीएलए को अपनी लड़ाकू क्षमता बढ़ाने पर जोर देते रहे हैं। साल 2017 में कम्युनिस्ट पार्टी की 19वीं कांग्रेस में उन्होंने कहा था कि 2035 तक चीन अपने सशस्त्र बलों को आधुनिक बना लेगा और 2050 तक इसकी गिनती एक ‘विश्व स्तरीय’ सेना में होने लगेगी, जो तमाम परिस्थितियों में लड़ने व जीतने में सक्षम होगी। पिछले साल उन्होंने दक्षिण चीन सागर और ताइवान की निगरानी करने वाली सैन्य इकाई को भी अपनी मुश्किल परिस्थितियों का आकलन करने व क्षमताएं बढ़ाने का आदेश दिया था, ताकि किसी भी आपात स्थिति को वह संभाल सके। कहा यह भी गया कि 2018 में चीन के लगभग 20 लाख सैनिकों ने 18,000 से अधिक सैन्य अभ्यासों में हिस्सा लिया, जबकि 2016 में अभ्यासों का आंकड़ा 100 था। 

जाहिर है, शी जिनपिंग और चीन के लिए सैन्य आधुनिकीकरण सर्वोच्च प्राथमिकता में है, क्योंकि विवादित समुद्री सीमा अंतरराष्ट्रीय माहौल को प्रभावित करने लगी है। मगर इससे भी अधिक उनका यह कदम विदेश नीति में सेना को प्रभावी रूप से शामिल करना है, जो अब एक नियम सा बनता जा रहा है और दूसरे देशों के लिए चिंता का कारण भी। अमेरिका और चीन के बीच तनाव बढ़ रहा है और इसके खात्मे के संकेत भी नहीं हैं। ट्रंप प्रशासन दबाव कम करने के मूड में नहीं है। हाल ही में अमेरिकी उप-राष्ट्रपति माइक पेंस ने बीजिंग पर आरोप जड़ते हुए कहा कि ‘चीनी कम्युनिस्ट पार्टी तकनीक चुराकर बड़े पैमाने पर हल को तलवार बना रही है’। अमेरिका के कार्यवाहक रक्षा मंत्री पैट्रिक शानहन ने भी अमेरिकी सैन्य नेतृत्व को सिर्फ ‘चीन, चीन और चीन’ तक सीमित रहने को कहा था। जाहिर है, वह चीन को सत्ता संघर्ष की उभरती ताकत बता रहे थे। अमेरिकी नौसेना दक्षिण चीन सागर में ‘फ्रीडम ऑफ नेविगेशन एक्सरसाइज’ करती ही रहती है।

जवाब में चीन ने भी कहीं तीखी प्रतिक्रिया जाहिर की। बीजिंग ने जहां अमेरिकी युद्धपोत के हांगकांग जाने का आदेश रद्द कर दिया, वहीं वाशिंगटन से अपने प्रमुख नौसैन्य अधिकारी को भी वापस बुला लिया। रूस से हथियारों की खरीद पर अमेरिकी प्रतिबंध को धता बताते हुए उसने मॉस्को से हथियार खरीदे और ताइवान का पक्ष लेने वाले अमेरिकी बयानों को मजबूती से नकार दिया। हाल ही में जिनपिंग ने ताइवान की औपचारिक स्वतंत्रता को खारिज करने और चीन के साथ ‘शांतिपूर्ण एकीकरण’ को स्वीकारने का आह्वान किया। उन्होंने हांगकांग की तरह ‘एक देश, दो प्रणाली’ की अवधारणा के अनुरूप आगे बढ़ने की बात कही। ताइवान को अपने पाले में रखने के लिए चीन ने सैन्य इस्तेमाल से भी इनकार नहीं किया है। चीनी प्रमुख ‘मातृभूमि का एक इंच टुकड़ा’ भी न सौंपने की कसम पहले खा चुके हैं और उन्होंने ताइवान के आसपास सैन्य अभ्यास भी बढ़ा दिया है। हालांकि ताइवान की राष्ट्रपति साई इंग-वेन ने जिनपिंग की ‘एक देश, दो प्रणाली’ सलाह को साफ-साफ खारिज कर दिया है और कहा है कि 2019 में ताइवान की प्राथमिकता अपने लोगों की आजीविका में सुधार लाने के अलावा लोकतंत्र की रक्षा करना और अपनी संप्रभुता को बचाना है।

दरअसल, घरेलू आर्थिक मंदी और विदेशों से बढ़ते दबाव के कारण जिनपिंग सेना को लेकर इस तरह की बयानबाजी कर रहे हैं, ताकि अपने देशवासियों का भरोसा बनाए रख सकें। हालांकि इससे भी इनकार नहीं है कि चीन के इस सैन्य आधुनिकीकरण के कारण अमेरिका और चीन के बीच सैन्य अंतर घटने लगा है। बेशक अमेरिकी नौसेना तकनीकी रूप से कहीं ज्यादा उन्नत है, लेकिन चीन की नौसेना भी मजबूती से आगे बढ़ रही है। बेड़े में नए स्टील्थ लड़ाकू और लंबी दूरी के बमवर्षक शामिल किए गए हैं और चीन के युद्धपोत उन्नत राडार और नियंत्रण प्रणाली से लैस हो रहे हैं। इसी महीने की शुरुआत में चीन ने एक नए प्रकार के विशाल हवाई बम का परीक्षण किया, जो अमेरिका के सबसे शक्तिशाली गैर-परमाणु हथियार ‘मदर ऑफ ऑल बॉम्ब्स’ के जवाब में तैयार किया गया है। चीन के हथियार अमेरिकी संस्करण के मुकाबले छोटे और हल्के माने जाते हैं। उन्नत रक्षा तकनीक के मामले में भी वह तेजी से अगुवा बनता जा रहा है, जिसका गंभीर असर वैश्विक सत्ता के तकनीकी संतुलन पर पड़ेगा। 
रही बात भारत की, तो भारतीय सेना भी तेजी से आधुनिक बन रही है, लेकिन यह काम नियमित रूप से नहीं हो रहा। यहां खासतौर से चीन द्वारा सीमा पर पेश की जा रही चुनौतियों के संदर्भ में एक सामंजस्यपूर्ण रणनीति का अब भी अभाव दिख रहा है। चूंकि वैश्विक सैन्य तस्वीर तेजी से बदल रही है, इसीलिए भारतीय गैर-परमाणु और परमाणु सैन्य ताकत को भी बदलते समय से कदमताल मिलाना होगा। हमें समझना होगा कि पुरानी सोच ज्यादा दिनों तक कारगर नहीं रहती।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें