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सियासी कलि-कथा और हमारी सुरक्षा

बात फरवरी 1988 की है। हम चुनिंदा पत्रकार राजीव गांधी के साथ स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में थे। बाहर बर्फबारी का माहौल था, पर दिल्ली के हुक्मरानों की टोली को पसीना आ रहा था। बोफोर्स की प्रेतछाया सरकार...

सियासी कलि-कथा और हमारी सुरक्षा
शशि शेखरSat, 10 Nov 2018 09:13 PM
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बात फरवरी 1988 की है। हम चुनिंदा पत्रकार राजीव गांधी के साथ स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में थे। बाहर बर्फबारी का माहौल था, पर दिल्ली के हुक्मरानों की टोली को पसीना आ रहा था। बोफोर्स की प्रेतछाया सरकार का पीछा करते-करते यहां तक आ पहुंची थी। 

समझने वाले समझ गए थे कि सच कुछ भी हो, पर ‘मिस्टर क्लीन’ कहे जाने वाले नौजवान प्रधानमंत्री सियासी चक्रव्यूह में घिर रहे हैं। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते जाएंगे, इस थोपी गई कालिख की कलौंछ बढ़ती जाएगी। बताने की जरूरत नहीं कि उन्हें बाद में सत्ताबदर होना पड़ा। राजनीति की कलि-कथा ने यहीं विराम हासिल नहीं किया। पिछले चुनाव 2-जी और कोयला कांड पर लड़े गए। इस बार दूसरे ‘मिस्टर क्लीन’ मनमोहन सिंह खेत रहे।

दोनों बार सियासी फलितार्थ भले ही समान रहा हो, पर कुछ प्रश्न अनुत्तरित रह गए। क्या भ्रष्टाचार हुआ था? अगर हां, तो जांच एजेंसियां उसे अंजाम तक पहुंचाने में असफल क्यों रहीं? राजीव गांधी के बाद उन पर आरोपों की बौछार करने वाले वीपी सिंह सत्ता में आए, पर वह वायदा निभाने में नाकाम रहे। क्यों? आजादी के गुजरे 70 वर्षों में देश में तरह-तरह की हुकूमतें और हुक्मरां आए-गए, पर सरकार की पारदर्शिता के नियम नहीं बनाए गए। क्यों? जो राजनेता लोकपाल और ऐसे नियमों से परहेज करते हैं, वे किस मुंह से कीचड़ की होली खेलते हैं? क्या राजनीतिक कदाचार हर दल को ‘सूट’ करता है? 

मौजूदा हालात तो ऐसा ही इंगित करते हैं।

बोफोर्स के मामले में आरोप लगाने वाले आज सरकार में हैं। उन्होंने जिस शत्रुहंता मंत्र का उपयोग 1980 के दशक में राजीव गांधी के लिए किया था, आज उसका इस्तेमाल खुद उन पर हो रहा है। राफेल लड़ाकू जहाजों पर हर रोज नए ‘रहस्योद्घाटन’ हो रहे हैं। राहुल गांधी 2019 के चुनाव में इसे ‘मारक मंत्र’ बनाने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसा होगा या नहीं, यह भविष्य के गर्भ में है, पर एक बात तय है, बोफोर्स से राफेल तक की तीन दशक लंबी यात्रा का एक ही फलितार्थ है- इससे हमारी सामरिक खरीद नीति धराशाई हो गई है। जिस देश की सीमाएं इस कदर संवेदनशील हों, उसके लिए यह शुभ शकुन नहीं है। 

हमारे सियासतदां जानते हैं कि सत्ता की सांप-सीढ़ी में एक ऊपर चढ़ेगा, तो दूसरा यकीनन नीचे गिरेगा, लेकिन यह गिरने-चढ़ने का खेल तभी तक चल सकता है, जब तक हमारी सीमाएं सुरक्षित रहें। उन पर यह इल्जाम आना अवश्यंभावी है कि वे देश के लिए पारदर्शी खरीद नीति बनाने में असफल साबित हुए हैं।

हमें भूलना नहीं चाहिए कि बोफोर्स ने भले ही राजीव गांधी पर कुछ समय के लिए कलंक लगा दिया हो, मगर उस तोप ने कारगिल हमले के वक्त पाकिस्तान के घुटने टिकवा दिए थे। क्या मालूम, कल राफेल के लड़ाकू हवाई जहाज यह कहानी दोहराते नजर आ जाएं? संविधान की शपथ लेकर विधानमंडलों में दाखिल होने वाले पता नहीं क्यों, इस तथ्य को भूल जाते हैं? इसका खामियाजा हमारी सेनाओं को उठाना पड़ता है। 

भरोसा न हो, तो चीन और भारत के रक्षा बजट पर नजर डाल देखिए। पिछले एक दशक में हमारे इस ताकतवर पड़ोसी ने अपना प्रतिरक्षा व्यय
440 फीसदी बढ़ाया, जबकि हम छोटा ‘बेस’ होने के बावजूद 147 प्रतिशत पर ही अटके हुए हैं। यह हाल तब है, जब प्रतिरक्षा मामलों की संसदीय समिति सेना के साज-ओ-सामान की जीर्ण-शीर्ण स्थिति पर सवाल उठा चुकी है। इस समिति में पक्ष और विपक्ष, दोनों के प्रतिनिधि मौजूद होते हैं। संसदीय सुविधाओं और अवसरों का वे कैसे प्रयोग करते हैं, इसका एक उदाहरण पेश है।

हमारे सांसद सरकारी खर्च पर अपनी जानकारी बढ़ाने के लिए परदेस यात्राओं पर जाते हैं। यकीनन बहुतों ने न्यूजीलैंड की भी सैर की होगी। क्यों नहीं उन्होंने वहां के कर्ता-धर्ताओं से रक्षा खरीद पर कुछ सूत्र हासिल कर लिए? सांसद गण जानते ही होंगे कि ‘ट्रांसपेरेंसी  इंटरनेशनल’ ने जो ‘ग्लोबल डिफेंस एंटी-करप्शन इंडेक्स’ जारी किया था, उसमें यह खूबसूरत देश अपनी पारदर्शी नीति की वजह से शीर्ष पर था। इसी रिपोर्ट में रक्षा खरीद मामलों में भारत को संवेदनशील तौर पर गिरा हुआ पाया गया था। कमाल है! हमारे सत्तानायक एक तरफ भयवश जरूरी सैन्य सामान खरीदने से कतराते हैं और दूसरी तरफ, भ्रष्टाचार रोकने के मामले में वे कोई सार्थक कदम नहीं उठाते।

कोई आश्चर्य नहीं कि 1948 के जीप खरीद घोटाले से लेकर 2012 में उपजे तथाकथित टेट्रा ट्रक खरीद घोटाले में तमाम जांच-पड़ताल के बावजूद किसी नेता को सजा तो छोड़िए, प्रारंभिक मामला तक नहीं बना। ऐसा क्यों होता है? यहां मैं आपको स्वर्गीय प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से जुड़ा एक किस्सा सुनाना चाहता हूं। किसी ने उनसे बोफोर्स के मुद्दे पर सवाल पूछा, तो उन्होंने कहा था कि यह पुलिस के दारोगा का काम है, हमारा नहीं। अपराधों की जांच पुलिस की जिम्मेदारी है। चंद्रशेखर अपनी तेजी और तुर्शी के लिए जाने जाते थे। काश! किसी ने उनसे पूछा होता कि ऐसा कहने से पहले क्या आपने सोचा है कि राजनेताओं ने पुलिस तंत्र को इस लायक छोड़ा ही नहीं है कि वह निष्पक्ष जांच कर सके?

सीबीआई के झगडे़ ने इस तथ्य को सतह पर ला दिया है।

देश की सबसे बड़ी इस जांच एजेंसी की अंदरूनी खदबदाहट के सतह पर आने के बाद यह अंदेशा पैदा हो गया है कि हमारे देश में जांच के लिए कोई पारदर्शी संस्था नहीं बची है। इस झगडे़ में रॉ और आईबी की कथित संलिप्तता ने मामले को और उलझा दिया है। इससे पहले ईडी के वरिष्ठ अधिकारी झगड़ पडे़ थे। मामला आला अदालत तक पहुंचा, मगर उस वक्त सरकार समय रहते इस पर काबू पाने में सफल हो गई थी। गौरतलब है कि इन सभी संस्थाओं को नौकरशाही के चमकते  सितारे चलाते आए हैं। उनका अवमूल्यन डराता है।

जिस देश में भ्रष्टाचार से जूझने वाली संस्थाएं कलह की शिकार हों, गुप्तचर एजेंसियां इसमें भागीदारी निभा रही हों और सेना के पास मौजूं साज-ओ-सामान न हो, वह भला किस मुंह से खुद को महाशक्ति कह सकता है? 

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