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विपक्षी एकता को मिला नया सूत्रधार

साल 2019 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू विपक्ष को एक करने में जुट गए हैं। उनकी मुलाकात राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल, अखिलेश यादव, मायावती, शरद पवार, एचडी...

विपक्षी एकता को मिला नया सूत्रधार
नीरजा चौधरी, वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषकSun, 11 Nov 2018 11:18 PM
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साल 2019 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू विपक्ष को एक करने में जुट गए हैं। उनकी मुलाकात राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल, अखिलेश यादव, मायावती, शरद पवार, एचडी देवगौड़ा जैसे तमाम दिग्गज राजनेताओं से हो चुकी है। माना जा रहा है कि वह उन सभी दलों के संपर्क में भी हैं, जो एनडीए के विरोधी खेमे में हैं। क्या चंद्रबाबू नायडू अपनी इस रणनीति में सफल होंगे? क्या 2019 का चुनाव एनडीए के लिए भारी पड़ने वाला है? एकजुट विपक्ष निश्चित तौर पर मतदाताओं को प्रभावित करेगा, मगर यह किस हद तक असरदार होगा, यह भी एक बड़ा सवाल है।

बहरहाल, चंद्रबाबू नायडू की इस पूरी कवायद के कई अर्थ निकाले जा सकते हैं। पहला, विपक्षी दलों को एकजुट करने के लिए किसी सूत्रधार की जरूरत लंबे अरसे से महसूस की जा रही थी। वह एक ऐसा सूत्रधार हो, जो पहल करे, सभी नेताओं से बात करे, रोजाना मिले-बैठे और एक-दूसरे की बात कराए। चंद्रबाबू नायडू इस ढांचे में फिट बैठते हैं। 1996 में वह ऐसा कर भी चुके हैं। एक जगह तो उन्होंने कहा भी है कि ‘दे आस्क मी टु डू इट’। इसका अर्थ है कि कुछ खास नेताओं ने उन्हें ऐसा करने के लिए कहा है। हालांकि यह किसने कहा है, यह अब तक साफ नहीं है।

दूसरा अर्थ है कि अब यदि विपक्षी एकता की बात होगी, तो उसमें कांग्रेस भी शामिल रहेगी। बिना कांग्रेस नए गठबंधन की ताकत अधूरी मानी जाएगी। दरअसल, अब तक तमाम क्षेत्रीय पार्टियों का रवैया यही था कि पहले वे एकजुट हो जाएं और फिर यह तय हो कि उसमें कांग्रेस रहे या नहीं? तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के अध्यक्ष के चंद्रशेखर राव ने एक बार कहा था कि ‘हम सिर्फ फेडरल फ्रंट बनाएंगे’। कांग्रेस के साथ आगे बढ़ने की उनकी मंशा नहीं थी। मगर चंद्रबाबू नायडू के मैदान में उतरने के बाद अब यह लगने लगा है कि तमाम क्षेत्रीय पार्टियां कांग्रेस को साथ लेने पर एकमत हो गई हैं।

चंद्रबाबू नायडू की नजदीकियां कांग्रेस से तब बढ़ीं, जब वह एनडीए से अलग हो गए थे। तेलंगाना में चुनावी समीकरण के तहत दोनों पार्टियां एक साथ आ गई हैं, लेकिन आंध्र प्रदेश में भी ऐसा होगा, यह अभी साफ नहीं किया गया है। नजर इस पर रहेगी कि तेलंगाना के चुनावी गठबंधन का आंध्र प्रदेश में कैसा असर पड़ता है? कुछ लोगों की नजर में यह उसी पार्टी का दामन थाम लेना है, जो आंध्र प्रदेश के बंटवारे के लिए जिम्मेदार है। जबकि दूसरा धड़ा मानता है कि तेलंगाना एक सच्चाई है, इसलिए पुरानी कहानी मानकर उस प्रकरण पर मिट्टी डाल देनी चाहिए। ऐसे में, केंद्र की सियासत के लिए चंद्रबाबू नायडू का आगे बढ़ना उनकी मजबूरी भी जान पड़ती है।

हालांकि इस प्रयास का एक पहलू चंद्रबाबू नायडू का अपमान भी हो सकता है। यह सही है कि एक खास राजनीति के तहत उन्होंने एनडीए का साथ छोड़ा था, मगर जिस तरह से वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने की कोशिश करते रहे और प्रधानमंत्री ने करीब एक महीने तक उन्हें वक्त नहीं दिया, इससे वह अपमानित महसूस कर रहे थे। जाहिर है, वह अब आर-पार की लड़ाई के मूड में आ गए होंगे।

मगर सवाल यह है कि उनकी यह कवायद कितनी दूर तक जाएगी? फिलहाल इसका साफ-साफ जवाब तो नहीं दिया जा सकता, मगर यह तय है कि विपक्ष का एक होना जमीनी से अधिक मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालेगा। यह एकता छह राज्यों में जमीनी असर डालती दिख रही है। ये राज्य हैं- उत्तर प्रदेश, जहां मायावती और अखिलेश यादव का एक साथ आना भाजपा को भारी नुकसान पहुंचा सकता है। दूसरा बिहार, जहां विपक्ष लगभग एकजुट हो चुका है, सिर्फ कुछ छोटी-छोटी पार्टियों को जोड़ना बाकी है। महाराष्ट्र भी इस कतार में शामिल है, जहां एनसीपी और कांग्रेस का गठबंधन बड़ा खेल कर सकता है। फिर, झारखंड, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में यह संभावित विपक्षी एका सीटों में बदलती दिख रही है। अगर इन सभी राज्यों में भाजपा के साथ उसकी सीधी चुनावी टक्कर हुई, तो उसे सौ के करीब सीटों का फायदा हो सकता है। बाकी जगह इसका मतदाताओं पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ेगा।

इस एकता को लेकर कई दल इसलिए भी उत्साहित हैं, क्योंकि 2014 के चुनाव में 31 फीसदी वोट भाजपा को मिले थे। इसका अर्थ है कि विपक्षी दलों के पास 69 फीसदी मत हैं। अगर इस मत का बड़ा हिस्सा गोलबंद हो जाता है, तो भाजपा के लिए मुश्किलें बढ़ सकती हैं। मगर एक सच यह भी है कि विपक्ष के पास नरेंद्र मोदी की तरह सर्वस्वीकार्य और चमत्कारिक चेहरा नहीं है। लिहाजा उसे मोदी की इस छवि का काट निकालना होगा। हालांकि उसके लिए राहत की बात यह है कि प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा की लोकप्रियता इन दिनों कम हुई है। बेशक कई लोग अब भी प्रधानमंत्री में काफी उम्मीदें देख रहे हैं, पर जिस तरह तमाम चीजों में मूल्य-वृद्धि हो रही है, वह सीधे-सीधे लोगों को प्रभावित कर रही है। मेरा मानना है कि सीबीआई, आरबीआई या राफेल जैसे मुद्दे लोगों को उस हद तक प्रभावित नहीं करेंगे, जितना कि उन पर महंगाई असर डालेगी। इसीलिए नजर मोदी-अमित शाह की जोड़ी पर भी रहेगी कि वह इसका क्या तोड़ निकालती है?

जनता के इस बदलते मूड को विपक्षी नेतागण भांप गए हैं। उन्हें अब अपने लिए उम्मीदें दिखने लगी हैं। मगर इस एकता की दिशा तभी तय होगी, जब पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों का जनादेश सामने आएगा। अगर इनमें से दो राज्यों में भी कांग्रेस जीतती है, तो लोगों का रुझान उसकी तरफ बढ़ जाएगा। ठीक यही हालत भाजपा की भी है। यदि वह विधानसभा का अपना किला बचा ले गई, तो लोकसभा चुनाव में वह पूरे आत्मविश्वास के साथ विपक्षी एकता का मुकाबला करेगी। यानी जनता के बदलते मूड का इशारा भी है विपक्षी एकता की यह नई कवायद।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

 

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