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संसद में अवरोध की राजनीति

नोक-झोंक, रोक-टोक, आकस्मिक व्यवधान, व्यंग्य-विनोद, हाजिर जवाबी और तर्क चातुर्य ऐसी विधाएं हैं, जो संसद की कार्यवाही को जीवंत बनाती हैं। ये मौलिक बहस का सृजन और साथ ही सांसदों की तत्क्षण स्फूर्त बोलने...

संसद में अवरोध की राजनीति
देवेन्द्र सिंह असवाल, पूर्व अपर सचिव, लोकसभाWed, 04 Apr 2018 09:21 PM
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नोक-झोंक, रोक-टोक, आकस्मिक व्यवधान, व्यंग्य-विनोद, हाजिर जवाबी और तर्क चातुर्य ऐसी विधाएं हैं, जो संसद की कार्यवाही को जीवंत बनाती हैं। ये मौलिक बहस का सृजन और साथ ही सांसदों की तत्क्षण स्फूर्त बोलने की क्षमता का निर्माण करती हैं। यह तभी संभव है, जब संसद निर्धारित अवधि पर मिले, पर्याप्त बैठकें हों, वैचारिक उदारता हो और सबसे बड़ी बात है कि सदन सुचारू रूप से चले। संविधान में व्यवस्था है कि संसद के दो सत्रों के बीच छह महीने या इससे ज्यादा का अंतर नहीं होगा। यद्यपि हमारी संसद वर्ष में तीन बार राष्ट्रपति द्वारा आहूत की जाती है, पर विश्व की कुछ प्रमुख         संसदों की तुलना में देखें, तो भारतीय संसद की औसत वार्षिक बैठकों और कार्यवाही का समय बहुत कम है। इंग्लैंड की प्रतिनिधि सभा औसतन वर्ष में 140 दिन, 1670 घंटे, अमेरिका में 136 दिन, 2000 घंटे, ऑस्ट्रेलिया में 64 दिन, 626 घंटे काम करती है, जबकि भारत में 64 दिन, 337 घंटे काम होता है। 

पंद्रहवीं लोकसभा में कुल 357 बैठकें हुईं और केवल 1344 घंटे सदन बैठा, जिसमें 891 घंटे अवरोध और स्थगन के कारण खराब हुए। यह स्थिति हुई, जब 2-जी स्पेक्ट्रम, आदर्श सोसाइटी, कॉमनवेल्थ गेम्स, कोयला खदानों के आवंटन जैसे मामले संसद में आए। अलग तेलंगाना के गठन को लेकर संसद की बैठकें बार-बार स्थगित हुईं। साथ ही संसद में अवरोध का एक अशोभनीय तरीका- तख्तियां लेकर सदन के मध्य में आना- शुरू हुआ और वह भी सत्ता पक्ष के कुछ असंतुष्ट सदस्यों द्वारा। सोलहवीं लोकसभा के पहले कुछ सत्र तो सहज, निर्बाध चले, पर पिछले सत्र से दोनों सदनों की बैठकें लगातार स्थगित होने लगीं। अवरोध का नवोन्मेशी तरीका, कुछ सदस्यों का सदन के मध्य में तख्तियां लेकर आना, एक घोर आपत्तिजनक गैर-संसदीय प्रवृत्ति बन गई है। नियम के अनुसार, जब सदस्य सदन के मध्य में आ जाएं, तो पीठासीन अधिकारी कार्यवाही स्थगित करने को बाध्य हो जाते हैं। वर्तमान सत्र में तो टकराव व अवरोध के कारण मंत्रिमंडल में अविश्वास के प्रस्ताव पर चर्चा को अध्यक्ष ने यह कहकर अस्वीकृत कर दिया कि सदन व्यवस्थित नहीं है, तो दूसरी ओर अव्यवस्था और शोर-शराबे के बीच कई विधेयक और वर्ष 2018-19 का बजट बिना चर्चा के ही पारित कर दिए गए।  

व्यवधान के कारण राष्ट्र को कितनी हानि होती है, इसके अनुमान लगाए जाते हैं। संसद के वार्षिक बजट को वर्ष के 365 दिनों से विभाजित करके संसद चलाने की दैनिक लागत निकालकर एक सरल मूल्यांकन किया जाता है, जो मेरे विचार में दोषपूर्ण है। लगातार अवरोध और सदन के बार-बार स्थगन से संसद की कितनी कार्य-क्षमता क्षीण होती है, छवि धूमिल और संसदीय लोकतंत्र की अवधारणा का ह्रास होता है, इसका मौद्रिक आकलन नहीं हो सकता। अवरोध और लगातार स्थगन दर्शाते हैं कि ऐसे सांसदों का विश्वास बहस में कम, और संसद के भीतर धरना देने में ज्यादा है। संसद में देश की ज्वलंत समस्याओं, जनता की आशाओं और अपेक्षाओं पर चर्चा होनी चाहिए, ताकि उनका यथासंभव निराकरण हो सके, कार्यपालिका की स्वच्छंदता पर अंकुश रहे और सरकार संसद और जनता के प्रति जवाबदेह रहे। जनता अपने प्रतिनिधि इस आशय से चुनती है कि संसद में सुचिंतित बहस हो, सांसद अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें, ताकि अच्छे कानून बनें। पर आज स्थिति यह है कि लोक-प्रतिनिधि, अपवादों को छोड़कर, राजनीतिक दलों के संसदीय बांकुरे बन रहे हैं और लोक-प्रतिनिधि कम। ऐसा लगता है कि ऐसे माननीय सदस्य अपने निजी विवेक को दबाकर केवल अपनी पार्टी का हुक्म बजाते हैं। सारी सोच अपनी पार्टी के हित और अपना अगला चुनाव जीतने तक सिमट गई है। कई बार वरिष्ठ सांसद ऐसी आपत्तिजनक, गैर-संसदीय और असांविधानिक व्यवहार पर अपना रोष प्रकट कर चुके हैं। वयोवृद्ध लालकृष्ण अडवाणी ने तो इसी लोकसभा में क्षुब्ध होकर कहा था कि उनका ‘इस्तीफा देने का मन करता है’। 
एक कहावत है कि लोकतंत्र में अल्पसंख्यक अपनी बात रखते हैं और बहुसंख्यक अपने मन की करते हैं। शायद इसी कारण से संसदीय लोकतंत्र को कई  विधिशास्त्री बहुसंख्यकों की तानाशाही कहते हैं। पर अब नजारा बदल गया है। अब अल्पसंख्यक अवरोध पैदा करते हैं और बहुसंख्यक चर्चा नहीं करते या नहीं कर पाते। कुछ तख्तीधारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को पटरी से उतार रहे हैं, उसे जबरन ‘डिरेल’ कर रहे हैं। हर सांसद और राजनीतिक दल को संसद में अपना मत प्रकट     करने का सांविधानिक अधिकार है। यदि वे असंतुष्ट         हैं, असहमत हैं, तो अपना मत सदन में प्रकट कर सकते हैं, या विरोध दर्ज करते हुए बहिर्गमन कर सकते हैं। लेकिन इसकी बजाय ऐसा तरीका अपनाया जाता है कि सदन की कार्यवाही ठप्प करने पर पीठासीन अधिकारी विवश हो जाते हैं। 

क्या सदन को बार-बार स्थगित करना ही विरोध और असहमति व्यक्त करने का तरीका बन जाएगा? क्या धरना-प्रदर्शन संसद के अंदर बहस और विरोध की अभिव्यक्ति का पर्याय बन जाएंगे? क्या अब वह समय आ गया है कि संसद के कामकाज में व्यवधान डालने वाले सांसदों की सदस्यता रद्द करने पर विचार हो? यह भी आवश्यक है कि सांसदों का महत्व केवल सरकार के गठन और सरकार बचाने तक सीमित न रहे और वे राष्ट्रीय मुद्दों पर अपनी अंतरात्मा की सुनें, ताकि स्पष्ट संदेश जाए कि वे पार्टी की कठपुतली नहीं। सत्ता पक्ष का विशेष उत्तरदायित्व है कि सदन के बाहर भी प्रतिपक्ष से संवाद के मार्ग खुले रखे, संवाद की पहल करे, विश्वास और समन्वय बनाए और ‘को-ऑपरेटिव फेडरलिज्म’ के सिद्धांत का पालन करते हुए क्षेत्रीय दलों और विपक्ष का सहयोग प्राप्त करे। संसद में वाद-विवाद हो, सारगर्भित रचनात्मक चर्चा हो और सुस्थापित नियमों के अनुसार संसद की कार्यवाही चले और अध्यक्ष इंग्लैंड की प्रतिनिधि सभा के अध्यक्ष की तरह सदन के सभी वर्गों का विश्वास अर्जित करे, तभी विश्व का यह सबसे बड़ा लोकतंत्र श्रेष्ठता की ओर बढ़ पाएगा। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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