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स्पष्ट बहुमत और अनसुलझे सवाल

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण के साथ बुधवार को 16वीं लोकसभा का परदा गिर गया। आखिरी बैठक में एक ऐसा वक्त भी आया, जो पुनरावलोकन का था। प्रधानमंत्री ने सदन को संबोधित करते हुए कहा कि एक नए सांसद के...

स्पष्ट बहुमत और अनसुलझे सवाल
मनीषा प्रियम, राजनीतिक विश्लेषकFri, 15 Feb 2019 08:15 AM
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण के साथ बुधवार को 16वीं लोकसभा का परदा गिर गया। आखिरी बैठक में एक ऐसा वक्त भी आया, जो पुनरावलोकन का था। प्रधानमंत्री ने सदन को संबोधित करते हुए कहा कि एक नए सांसद के रूप में उन्होंने यहां से बहुत कुछ सीखा है। हालांकि प्रधानमंत्री ही नहीं, इस लोकसभा में डेढ़ सौ से ज्यादा सांसद पहली बार चुनकर पहुंचे थे। फिर, इस सदन की एक खासियत यह भी थी कि करीब तीन दशकों के बाद देश में किसी राष्ट्रीय दल को स्पष्ट बहुमत मिला था। जबकि धारणा यही है कि अल्पमत और गठबंधन में काम करने वाली सरकार पेचीदे नीतिगत मसलों पर शायद ही कडे़ फैसले ले पाती है। विशेष रूप से यूपीए-2 की सरकार को ‘पॉलिसी पैरालिसिस' यानी नीतिगत पक्षाघात का शिकार तक कहा गया। तब कइयों की राय थी कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अपनी छवि बेशक साफ हो, लेकिन 2-जी या कोलगेट घोटाले की वजह घटक दलों के मान-मनोव्वल में छिपी है।

बहरहाल, 16वीं लोकसभा में कई महत्वपूर्ण कदम उठाए गए। बैंकिंग सेक्टर की सेहत सुधारने के लिए नया बैंकिंग कोड बनाया गया, तो रीयल एस्टेट के लिए रेरा कानून। आतंकियों के खिलाफ पड़ोसी देश में जाकर सर्जिकल स्ट्राइक भी की गई। हालांकि इन सबसे बड़ा कदम नोटबंदी था। प्रधानमंत्री ने आठ नवंबर, 2016 की शाम टीवी पर अपने संबोधन में बताया कि देश में काला धन इतना बढ़ गया है कि 500 और 1,000 रुपये के नोटों को कानूनी रूप से हटाना होगा। उन्होंने यह भी कहा कि काला धन आतंकवाद का जरिया बन रहा है और नोटबंदी से एक साथ अर्थव्यवस्था, राजनीति और आतंकवाद- तीनों से इसका खात्मा हो जाएगा। लेकिन आज दो वर्ष के बाद भी ऐसा कोई ठोस लेखा-जोखा नहीं है कि कितना काला धन अर्थव्यवस्था में लौट आया और भय के मारे कितना काला धन रिजर्व बैंक के पास वापस जमा नहीं किया गया? जाहिर है, आर्थिक रूप से सरकार को नोटबंदी से फायदा हुआ या नहीं, और काला धन पकड़ा भी गया या नहीं, इस पर आज भी स्पष्टता नहीं है। 

नोटबंदी की वजह से आम लोगों को बेशक मशक्कत करनी पड़ी, लेकिन भाजपा को इससे राजनीतिक फायदा मिला। उसे उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत हासिल हुआ। इससे पहले पार्टी हरियाणा और महाराष्ट्र में अपनी सरकार बना चुकी थी, और पूर्वोत्तर के कई राज्यों में भी कमल खिल चुका था। स्थिति यह थी कि 2017 तक लोगों को यह विश्वास हो चला था कि भारतीय राजनीति भविष्य में कांग्रेस मुक्त हो जाएगी। लेकिन 2018 में राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनावों में भाजपा की सरकारों को हार का मुंह देखना पड़ा। यह संकेत था कि नोटबंदी के नकारात्मक असर को अब समाज और अर्थव्यवस्था महसूस करने लगे हैं। इसी तरह, केंद्र सरकार की एक अन्य बड़ी उपलब्धि जीएसटी (गुड्स ऐंड सर्विस टैक्स) थी। लेकिन इसे भी जमीन पर उतारने के लिए तमाम मुश्किलें सामने आईं और कई बार जीएसटी की दरों में संशोधन करना पड़ा। इससे अर्थव्यवस्था स्थिर नहीं हो पाई। 

नोटबंदी की मार से अर्थव्यवस्था उबर भी नहीं पाई थी कि उसे जीएसटी का दूसरा झटका लगा। इससे भाजपा के पुराने वोट बैंक रहे व्यापारी वर्ग भी त्रस्त हो गए। यह स्थिति इंदौर और सूरत जैसे भाजपा के गढ़ों में भी देखी गई। नतीजतन, अब हिंदीभाषी इलाकों में भी भाजपा और नरेंद्र मोदी की सरकार के विरोध में भी एक आवाज सुनी जा रही है, जो वास्तव में मुद्दों पर आधारित है। अभी किसानों के सामने संकट है, उन्हें बाजार में फसलों का उचित मूल्य नहीं मिल पा रहा, और ग्रामीण इलाकों के बैंकों में अब भी पर्याप्त पैसे नहीं हैं। इसके साथ-साथ बेरोजगारी के मुद्दे पर भी नौजवानों में नाराजगी है। ग्रामीण इलाकों में खासकर अगडे़ वर्गों के नौजवान खुद को असहाय पा रहे हैं। उन्हें न तो आरक्षण का लाभ हासिल है और खेती-किसानी कमजोर होने की वजह से उनके पास न इतना पैसा है कि वे अपना कोई उद्यम चला सकें। देखा जाए, तो हिंदीभाषी इलाकों के ग्रामीण नौजवानों के सामने ही अब सबसे ज्यादा संकट है। इन नौजवानों के लिए अपने तईं आगे बढ़ने की कोई पहल कर पाना काफी कठिन हो गया है। इन तमाम चुनौतियों के बीच विश्व हिंदू परिषद ने राम मंदिर बनाने का नारा फिर से छेड़ दिया, यानी हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में भाजपा की हार के बीच उत्तर प्रदेश में धर्म और असंतुष्टि की राजनीति एक नए शिखर पर पहुंच गई है।

इन्हीं परिस्थितियों में भाजपा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चुनावी मैदान में उतरेगी। उसके पास अपनी उपलब्धियां गिनाने के लिए जन-धन, उज्ज्वला और स्वच्छ भारत जैसी योजनाएं हैं। ‘स्किल इंडिया' जैसे कार्यक्रमों का जिक्र करने से भाजपा परहेज कर सकती है, क्योंकि बेरोजगारी के मुद्दे पर वह शायद चुप ही रहे। हालांकि अंतिम क्षणों में आर्थिक आधार पर अगड़ों को भी आरक्षण देने और तेलंगाना की रायतु बंधु योजना की तर्ज पर सीमांत किसानों को एक निश्चित राशि बतौर सहायता देने की घोषणा की गई है। लेकिन ये दोनों फैसले उसके पक्ष में गए हैं या नहीं, इसका फैसला आने वाले वक्त में ही हो सकेगा।

इसी बीच, विपक्ष राफेल लड़ाकू विमान सौदे का पेचीदा मसला बार-बार उठाता रहेगा। यह अभी तक साफ नहीं हो सका है कि इस सौदे में कुछ गलत हुआ है या नहीं, लेकिन इससे जुड़े कई सवाल हैं, जो परेशान करते हैं। मसलन, हिन्दुस्तान एरोनॉटिक्स की बजाय इन लड़ाकू विमानों को बनाने का इकरारनामा किस आधार पर रियालंस डिफेंस का दिया गया, जबकि उसके पास ऐसे विमानों को बनाने का कोई अनुभव नहीं है? इन्हीं गुत्थियों के बीच मामला अब फिर से आम मतदाता के विवेक पर छोड़ दिया गया है। बेशक लोकसभा में भाजपा का विरोध खासा नहीं रहा, पर अब कई राज्यों के क्षत्रप पार्टी के खिलाफ मुखर हैं। नजरें स्वाभाविक तौर पर चुनाव आयोग की घोषणा पर टिक गई हैं। 

(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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