फोटो गैलरी

Hindi News ओपिनियनअमन का कानून, दमन के तर्क

अमन का कानून, दमन के तर्क

केंद्रीय गृह मंत्रालय का पूरे मेघालय और अरुणाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों से सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम यानी अफ्स्पा को हटाने का फैसला स्थानीय लोगों की एक बड़ी मांग को मानना है। पूर्वोत्तर में इस...

अमन का कानून, दमन के तर्क
चंदन कुमार शर्मा, प्रोफेसर, तेजपुर विश्वविद्यालय, असमWed, 25 Apr 2018 10:32 PM
ऐप पर पढ़ें

केंद्रीय गृह मंत्रालय का पूरे मेघालय और अरुणाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों से सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम यानी अफ्स्पा को हटाने का फैसला स्थानीय लोगों की एक बड़ी मांग को मानना है। पूर्वोत्तर में इस अधिनियम के खिलाफ लोगों में काफी नाराजगी रही है। यह भी एक सच है कि इन इलाकों में सेना को कठिन परिस्थितियों में उग्रवादियों से मुकाबला करना पड़ता है, लेकिन इसके लिए इनके पास असीमित अधिकार नहीं होने चाहिए, क्योंकि उनके बेजा इस्तेमाल का खतरा बढ़ जाता है। पूर्वोत्तर के राज्यों के लिए अफ्स्पा एक ऐसा ही कानून रहा है। ऊपरी तौर पर इसे अमन के लिए बनाया गया कानून कहा जा सकता है, लेकिन स्थानीय स्तर पर यह दमन की राह पर जाता दिखता है।

अफ्स्पा की एक दिक्कत तो यह है कि इसकी जड़ गुलाम भारत में है। साल 1942 में जब भारत छोड़ो आंदोलन आकार ले रहा था, तो यह कानून ‘आम्र्ड फोर्सेस स्पेशल ऑर्डिनेंस’ के रूप में मौजूद था। इसी तरह, 1947 में बंटवारे के समय बने हालात को काबू करने के लिए असम, बंगाल, मध्य प्रांत जैसे इलाकों में सेनाओं को विशेष अधिकार दिए गए। आजाद भारत में भी ‘असम डिस्टब्र्ड एरिया एक्ट’ बना, जो नगालैंड (उस समय यह असम का हिस्सा था) में पनप रही नगा अलगाववादी ताकतों के खिलाफ था। यहां 1958 में अफ्स्पा लागू किया गया था। असम में तो साल 1990 में यह कानून लागू हुआ। वहीं मेघालय व अरुणाचल प्रदेश में अफ्स्पा 1991 में लगा। हालांकि इन दोनों राज्यों में कोई अशांति नहीं थी, पर क्योंकि इनकी सीमा असम से मिलती है और मेघालय के भीतर 20 किलोमीटर तक के सीमावर्ती क्षेत्र ‘डिस्टब्र्ड एरिया’ घोषित किए गए थे, इसलिए यहां भी यह कानून लागू किया गया। अच्छी बात यह है कि पिछले साल 1 अक्तूबर से इस ‘एरिया’ को घटाकर 10 किलोमीटर कर दिया गया, और अब मेघालय में तो अफ्स्पा पूरी तरह हटा ही दिया गया है। अरुणाचल प्रदेश के भी आठ पुलिस थाने इसके दायरे से बाहर कर दिए गए हैं। इस तरह, अब अरुणाचल प्रदेश के तीन जिलों (म्यांमार की सीमा के नजदीक) और आठ पुलिस थाना क्षेत्रों में ही यह कानून लागू है, जहां उल्फा और नेशनल सोशलिस्ट कौंसिल ऑफ नगालैंड यानी एनएससीएन (खापलांग) उग्रवादी सक्रिय हैं। खबर यह भी है कि असम सरकार भी इसे अपने यहां से हटाने की सोच रही है।

इस कानून के खिलाफ पूर्वोत्तर के लोगों का गुस्सा भी गलत नहीं है। यहां के लोगों को इस कानून से खट्टे अनुभव ही ज्यादा मिले हैं। असल में, यह कानून किसी ‘नॉन कमिशंड’ सैनिक को भी हद से अधिक अधिकार देता है। अगर सैनिक को यह लगता है कि किसी शख्स से कोई खतरा है, तो वह न सिर्फ उसे बिना वारंट के गिरफ्तार कर सकता है, बल्कि गोली भी मार सकता है। संदेह के आधार पर वह किसी घर की तलाशी ले सकता है, और सबसे बड़ी बात यह है कि उस सैनिक पर कोई मुकदमा भी नहीं चल सकता। कुछ विश्लेषक अशांत इलाकों में अफ्स्पा की खूब वकालत करते हैं, पर पूर्वोत्तर से इसके दुरुपयोग की खबरें ज्यादा आई हैं। जिसे हम राष्ट्रीय मीडिया कहते हैं, वह इस स्थिति को करीब-करीब नजरअंदाज करता रहा है, लेकिन स्थानीय अखबार ऐसी खबरों से भरे रहते हैं। यहां पर हमेशा ही सवाल यह उठता रहा है कि उग्रवाद के खिलाफ लड़ने के नाम पर पूरे समाज पर ‘फौजी शासन’ थोप देना भला कहां तक उचित है? इरोम शर्मिला ने इन्हीं सबको देखते हुए साल 2000 में अपना ऐतिहासिक अनशन शुरू किया था। 

इस कानून के खिलाफ लोगों के आक्रोश ने उस वक्त नया मोड़ लिया, जब मणिपुरी महिला थंगजाम मनोरमा के बलात्कार और हत्या की सूचना आई। आरोप था कि इस बर्बर कांड में असम राइफल्स के कुछ जवान शामिल थे और उनके खिलाफ सुबूत होने का दावा भी किया गया था, पर उन्हें कोई सजा नहीं मिली। इस विरोध को तब और हवा मिली, जब नवंबर 2004 में बने जस्टिस जीवन रेड्डी आयोग ने ‘सिंबल ऑफ हेट’ यानी नफरत का प्रतीक कहकर अफ्स्पा को गलत बताया था। संयुक्त राष्ट्र जैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी इस कानून पर सवाल उठाए गए हैं और हमारी शीर्ष अदालत भी इसके खिलाफ अपना मत जाहिर कर चुकी है। 

इस लिहाज से यह सचमुच  सुकूनदेह है कि सरकार ने इस कानून को कुछ इलाकों से हटाने का फैसला लिया है। यह एक अच्छी पहल है। मगर मैं इसे शुरुआती कदम मानता हूं, क्योंकि अभी तक यह साफ नहीं हो सका है कि भविष्य में इन क्षेत्रों में यदि अशांति बढ़ी, तो इसका फिर से इस्तेमाल होगा या नहीं। स्थानीय लोगों का भरोसा जीतने के लिए इस कानून को पूरी तरह हटाना ही उचित है। कोई भी यह कह सकता है कि ऐसा करने से यहां की अलगाववादी ताकतें फिर से सिर उठा सकती हैं, मगर इससे इत्तफाक रखने की कोई वजह नहीं दिखती। हमारा कानून इतना सक्षम है कि वह ऐसी शक्तियों को जरूरी सजा दे सके। हां, इनमें कुछ कमियां हैं, जिन्हें दूर करने की जरूरत है। 

आज पूर्वोत्तर को रचनात्मक नजरिए और चौतरफा विकास की जरूरत है। अफ्स्पा चूंकि एक अलोकतांत्रिक और गैर-जिम्मेदारी वाला कानून है, इसलिए इसे पूरी तरह से खत्म करना चाहिए। जरूरत यहां की कुछ अन्य मांगों पर भी गौर करने की है। जैसे, प्रस्तावित नागरिकता (संशोधन) विधेयक को रद्द करना। स्थानीय लोग मानते हैं कि इस विधेयक के लागू होते ही यहां मौजूद अवैध हिंदू बांग्लादेशी स्वत: भारत के नागरिक बन जाएंगे, जिससे यहां का पूरा सामाजिक ताना-बना बिगड़ जाएगा। इसके अलावा, यहां के लोग अरुणाचल प्रदेश में प्रस्तावित बड़े बांधों के भी खिलाफ हैं। इन बांधों के बन जाने से स्थानीय लोगों के रहन-सहन पर बड़ा असर पड़ेगा। हालांकि इसे लेकर उठाई जा रही मांगों को लगातार नजरअंदाज किया जा रहा है। ऐसे में पूर्वोत्तर के लोगों का विश्वास जीतने के लिए केंद्र व राज्य, दोनों सरकारों को मिलकर एक संवेदनशील समग्र नीति बनानी होगी, और उसी पर आगे बढ़ना होगा। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें