त्वरित टिप्पणी: बिहार के नए जनादेश से आगे की दास्ताँ

इन पंक्तियों के लिखे जाने तक अंतिम परिणाम आने शेष हैं पर यह साफ़ हो चुका है कि बिहार की जनता ने जनार्दन की भूमिका निभाते हुए एक बार फिर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की झोली में सत्ता की सौग़ात...

offline
त्वरित टिप्पणी: बिहार के नए जनादेश से आगे की दास्ताँ
Madan Tiwari शशि शेखर , नई दिल्ली
Tue, 10 Nov 2020 11:24 PM

इन पंक्तियों के लिखे जाने तक अंतिम परिणाम आने शेष हैं पर यह साफ़ हो चुका है कि बिहार की जनता ने जनार्दन की भूमिका निभाते हुए एक बार फिर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की झोली में सत्ता की सौग़ात डाल दी है। यह जीत उसके भागीदारों को पुलकित भले ही करे पर यह जनादेश कुछ अनकहे संदेश भी सत्तासदन को  सौंप गया है। सवाल उठ रहे हैं कि जीतने वाले कितना जीतेऔर हारने वाले कितना हारे? जवाब के लिए हमें जनादेश की परतें उघाड़नी होंगी।

नीतीश कुमार का जनता दल यूनाइटेड (जदयू) पहले के मुकाबले 29 सीटें कम पाकर, 42 सीटों पर सिमट कर रह गया है। इसलिए यह उनकी नहीं बल्कि एनडीए की जीत है। बताने की जरूरत नहीं कि 74 सीटें पाकर भारतीय जनता पार्टी अब ‘बड़े भाई’ की भूमिका में आ गई है। सियासत न जाने कब बड़े को छोटा और छोटे को बड़ा बना देती है? ऐसे में क्या नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बनना स्वीकार करेंगे? फैसला उनको करना है, क्योंकि भाजपा स्पष्ट कर चुकी है कि ज्यादा सीटें पाने के बावजूद वह नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री की कुरसी पर बैठा देखना चाहती है। एक सवाल यह भी उठता है कि इतनी बड़ी पार्टी के तौर पर उभरा भगवादल क्या 2024 का लोकसभा चुनाव भी नीतीश कुमार को आगे कर लड़ना चाहेगा? इसका जवाब भले ही भविष्य के गर्भ में हो पर अक्सर अतीत के दिशा संकेतों से आगत के अंदेशे उभरते हैं।

आंकड़े चीख-चीखकर कह रहे हैं कि खुद को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का हनुमान बताने वाले चिराग पासवान ने जदयू का आलोक फीका कर दिया। उन्होंने अपने अधिकतर प्रत्याशी उसके उम्मीदवारों के खिलाफ उतारे और कम से कम 30 सीटों पर उन्हें सांघातिक चोट पहुंचाई। यदि चिराग एनडीए के साथ चुनाव लड़ रहे होते, तो तस्वीर कुछ और होती। अब देखना यह है कि इस कारगुजारी के बावजूद क्या भारतीय जनता पार्टी केन्द्र की सत्ता में उन्हें हिस्सेदारी सौंपना चाहेगी? यदि वे अपने पिता रामविलास पासवान के निधन से खाली हुई सीट को भरते हैं, तो लोकसभा चुनावों को लेकर उठ रही आशंकाओं को नए पर मिल जाएंगे।

अब आते हैं तेजस्वी पर। यह एक खुला सच है कि 2015 का विधानसभा चुनाव राजद और जदयू ने मिलकर लड़ा था। तब लालू यादव खुद गठबंधन की अगुवाई कर रहे थे। इस बार वे जेल में थे। यकीनन, सारा दारोमदार अकेले तेजस्वी पर था। इस बार उनके साथ नीतीश कुमार जैसा पार्टनर नहीं था और इस खालीपन को वे कांग्रेस एवं वामदलों से पूरा करना चाहते थे। चुनाव से ऐन पहले हम, वीआईपी और राष्ट्रीय लोक समता पार्टी महागठबंधन से छिटक गए थे। यकीनन कुनबा कमजोर हो गया था। इसके बावजूद उन्होंने बेरोजगारी का मुद्दा उठाया और बड़ी संख्या में भीड़ को आकर्षित करने में सफल रहे पर यह स्पष्ट है कि वे मतदाताओं को समूचा विश्वास दिलाने में नाकाम रहे । कुछ नौजवान उन्हें नए मिले जरूर पर महिलाओं ने एनडीए का साथ नहीं छोड़ा । नतीजा सामने है। क्या  ‘जंगलराज’’ की अवधारणा अभी तक क़ायम है?  यहाँ यह सवाल भी उठता है, अगर महागठबंधन का कुटुंब इस तरह बिखरा न होता तो नतीजे कैसे होते?

 यही वजह है कि मुझे यह कहने में संकोच नहीं कि चुनाव हारने के बावजूद तेजस्वी पहले से कहीं अधिक कद्दावर साबित होकर उभरे हैं।

यहां वाम मोर्चे की चर्चा करना जरूरी है। इस चुनाव में 16 सीटें अर्जित कर उन्होंने जोरदार वापसी की है। उन्होंने राजद को और राजद ने उन्हें जरूरी दमखम प्रदान किया है। है न अजब संयोग? भाजपा का भीषण उभार और वामदलों की तरक्की एकसाथ! कौन कहता है कि राजनीति में वैचारिक संघर्ष के दिन विदा हो गए? पाँच सीटें अर्जित कर असदउद्दीन ओवैसी भी एक ताक़त के तौर पर उभरे हैं । चिराग़ पासवान की तरह उन्होंने महागठबंधन का खेल बिगाड़ा पर चतुराई के साथ खुद को भी खड़ा किया । महाराष्ट्र के बाद बिहार उनकी भावी राजनीति का मार्ग प्रशस्त करने जा रहा है । क्या वामदल भी देश के पैमाने पर ऐसी कोई रणनीति रखते हैं?

यहां यह भी गौरतलब है कि कोरोना, पलायन, चीन और आर्थिक तंगी के बावजूद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपना आकर्षण बरकरार रखने में कामयाब हुए हैं। भाजपा उनके बिना राजनीतिक दल के तौर पर इतने बड़े उभार की कल्पना भी नहीं कर सकती थी। सिर्फ बिहार नहीं बल्कि देश के अन्य राज्यों में भी जहां उप चुनाव हुए हैं, भगवादल को जबर्दस्त सफलता मिली है। चुनाव दर चुनाव अपना आकर्षण बरकरार रखने की क्षमता मोदी के अलावा इस दौर के किसी और नेता में नहीं है।

ऐसे में भगवा काडर का और महत्वाकांक्षी हो जाना लाजिमी है। कुछ सियासी समीक्षक इसीलिए 10 नवंबर को उपजे जनादेश को अंतिम नहीं मानते। हो सकता है कि सत्ता की चौहद्दियों में छिपे चौसरों पर कुछ अनजान मोहरे अपनी बारी आने का इंतजार कर रहे हों । हालाँकि, यह वक्त एनडीए की पुन: ताजपोशी का है। उम्मीद है इस बार वे पहले के मुक़ाबले विकास की जनाकांक्षा का ज़्यादा सम्मान करेंगे।

चलते-चलते एक डिस्क्लेमर, अभी अंतिम नतीजे आने शेष हैं। हो सकता है मैंने जो आंकड़े ऊपर लिखे हैं, इनमें मामूली हेरफेर हो जाए। कृपया माफ़ कीजिएगा।

Twitter Handle: @shekharkahin 
शशि शेखर के फेसबुक पेज से जुड़ें
shashi.shekhar@livehindustan.com

हमें फॉलो करें
ऐप पर पढ़ें

ओपिनियन की अगली ख़बर पढ़ें
Bihar Result
होमफोटोवीडियोफटाफट खबरेंएजुकेशनट्रेंडिंग ख़बरें