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नई जमीन तलाशती राजनीति

चुनावी राजनीति में कई बार छोटी दिखने वाली राजनीतिक पार्टी या राजनीतिक शक्ति महत्वपूर्ण हो उठती है। लोकतांत्रिक संयोग उसे सहसा महत्वपूर्ण बना देता है। कुछ सप्ताह पहले कर्नाटक विधानसभा चुनाव का पूरा...

नई जमीन तलाशती राजनीति
बद्री नारायण, प्रोफेसर, जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थानSun, 17 Jun 2018 10:00 PM
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चुनावी राजनीति में कई बार छोटी दिखने वाली राजनीतिक पार्टी या राजनीतिक शक्ति महत्वपूर्ण हो उठती है। लोकतांत्रिक संयोग उसे सहसा महत्वपूर्ण बना देता है। कुछ सप्ताह पहले कर्नाटक विधानसभा चुनाव का पूरा विमर्श दो दलों- कांगे्रस और भाजपा पर केंद्रित था। चुनाव के बाद उपजी स्थितियों के कारण सहसा जनता दल (सेकुलर), जो तीसरे नंबर की पार्टी थी, महत्वपूर्ण हो उठी। इस घटना का दूसरा महत्वपूर्ण निहितार्थ राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक दलों की एक नई गोलबंदी का संकेत भी था, जो जल्द ही महत्वपूर्ण होने वाला है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनाव इसी साल अक्तूबर-नवंबर में होने वाले हैं। इन राज्यों का चुनाव विमर्श अभी तक कांग्रेस और भाजपा, दो दलों पर केंद्रित रहा है। इस बार बहुजन समाज पार्टी (बसपा) तीसरे पक्ष या यूं कहें कि तीसरी शक्ति के रूप में उभरने लगी है। इन राज्यों में बसपा के महत्वपूर्ण होने के क्या कारण हैं? 

पहला कारण तो यही है कि इन राज्यों में दलित आबादी की अच्छी संख्या है। मध्य प्रदेश में 15.12 प्रतिशत, राजस्थान में 17.83 प्रतिशत और छत्तीसगढ़ में 12.6 प्रतिशत आबादी के साथ दलित मतदाता महत्वपूर्ण हो गए हैं। वे एक तो पूरे राज्य में फैले होने के कारण अनेक सीटों पर जीत-हार को प्रभावित करते हैं, दूसरे मध्य प्रदेश में बुंदेलखंड के रीवा, सतना, भिंड, मुरैना वगैरह में निर्णायक भूमिका अदा करते हैं। मध्य प्रदेश में लगभग 62 ऐसे विधानसभा क्षेत्र हैं, जहां की जीत-हार दलित मतों के ध्रुवीकरण से तय होती है। दलित आधार मतों की अच्छी संख्या और कुछ क्षेत्रों में उनके सघन बसाव के कारण बसपा यहां आधार तल पर एक अंतर्निहित राजनीतिक शक्ति है। एक समय मध्य प्रदेश में बसपा के 11 विधायक चुनाव जीतकर आए थे। साल 2013 के चुनाव में बसपा को मध्य प्रदेश में 6.40 प्रतिशत मत मिले थे और भाजपा को कांग्रेस से आठ प्रतिशत के आस-पास ज्यादा मत मिले थे। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि अगर कांग्रेस और बसपा ने मिलकर चुनाव लड़ा होता, तो 2013 के चुनाव का परिणाम कुछ और होता। यही स्थिति छत्तीसगढ़ में है, जहां जांजगीर-चंपा, रायगढ़ और बस्तर आदि क्षेत्रों में दलित मत निर्णायक भूमिका में हैं। वहां भी बसपा अकेले जीतने की स्थिति में तो नहीं है, पर अकेले प्रभावी राजनीतिक दलों को हराने की स्थिति में है। बसपा के शुरुआती दिनों में कांशीराम ने 1984 का चुनाव छत्तीसगढ़ से ही लड़ा था। राजस्थान में भी भौगोलिक रूप से इसके कई भागों में फैला हुआ दलित जनमत अनेक सीटों पर चुनाव परिणाम को तो प्रभावित करता ही है, साथ ही उत्तर प्रदेश की सीमा से लगे लगभग 11 विधानसभा क्षेत्रों में उनका मत निर्णायक भूमिका अदा करता है।

दलित जनमत के एक बड़े हिस्से में आजकल विभिन्न कारणों से सरकारों के प्रति नाराजगी का भाव दिख रहा है। बसपा इसी नाराजगी के भावों को गोलबंद करके अपना राजनीतिक मूल्य बढ़ाने में लगी है। अगले चुनाव में भाजपा चाहेगी कि बसपा कांग्रेस के साथ न मिलकर अकेले लड़े, ताकि चुनावी संग्राम त्रिकोणात्मक बने। वहीं कांग्रेस गैर-भाजपा वोटों का बंटवारा रोककर संघर्ष को भाजपा बनाम कांगे्रस गठबंधन बनाना चाहेगी। उसे पता है कि इसका नतीजों पर असर काफी ज्यादा होगा। कांग्रेस 2019 के आम चुनाव को भी देख रही है, जहां यह समीकरण काफी कारगर हो सकता है। इस बीच बसपा ने भी अपनी रणनीति बदल दी है। पहले वह राजनीतिक गठबंधन के पक्ष में नहीं रहती थी। लेकिन कर्नाटक चुनाव में मिली छोटी सफलता ने उसके मन में अन्य राज्यों में भी गठबंधन के माध्यम से अपनी जगह बनाने की रणनीति पर चलने की महत्वाकांक्षा विकसित की है। गठबंधन के माध्यम से सीटें जीतना, फिर सरकार में जगह बनाकर अपनी राजनीति को मजबूती देना, बसपा की उत्तर प्रदेश से बाहर अपनी शक्ति के प्रसार की आगामी रणनीति होगी।

गठबंधन में बेहतर हिस्सेदारी के लिए इन राज्यों में बसपा बूथ से लेकर राज्य स्तर तक अपने संगठन को मजबूत बनाने में लगी है। मध्य प्रदेश में एक समय कांशीराम ने अनेक दलित नेताओं को क्षेत्रीय क्षत्रप के तौर पर उभारने की कोशिश की थी। बाद में यह प्रक्रिया रुक गई। मायावती ने फिर से कांशीराम की उसी रणनीति को धार देते हुए मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में राज्य स्तर के नेतृत्व को विकसित करने का प्रयास किया है। बसपा इन राज्यों में अपनी शक्ति का प्रसार करने के लिए बूथ स्तर तक कमेटियां तो बना ही रही है, अनेक लोकप्रिय आंदोलनों, गोलबंदी की मुहिम भी चला रही है। इन राज्यों का दलित मध्यवर्ग, शिक्षित तबका और युवा वर्ग सोशल मीडिया और अन्य संचार माध्यमों से बसपा के कार्यक्रमों को लोकप्रिय बनाने में लगा है।

कांग्रेस बसपा के इस जनाधार का इस्तेमाल करके भाजपा विरोधी माहौल को गहराना चाहेगी। वहीं भाजपा एक अलग रणनीति पर काम कर रही है। वह हर जगह प्रभावी दलित जाति के बरअक्स छोटी-छोटी दलित जातियों का मोर्चा अपने पक्ष में बनाने की रणनीति पर सक्रिय है। इसी रणनीति ने साल 2014 के आम चुनाव और उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में बसपा के आधार मतों में उसे सेंध लगाने में सफलता दिलाई थी। भाजपा अनुसूचित जाति व जनजाति अधिनियम का मुद्दा, रोहित वेमुला की घटना, ऊना कांड और हाल ही में हुई दलित अत्याचार की अन्य घटनाओं से पैदा आक्रोश को खत्म करने के लिए भी कई तरह के कार्यक्रम कर रही है। अपने कार्यक्रमों में आंबेडकर को प्रतीकात्मक महत्व दे, दलितों से सीधा संवाद कर, उनमें छोटी दलित जातियों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व देकर वह कांग्रेस और बसपा के संभावित गठजोड़ से बनने वाली दलित गोलबंदी को रोकना चाहेगी। 

भाजपा के इन प्रयासों का परिणाम क्या होगा, यह तो अभी देखना है, किंतु इतना तय है कि आगामी विधानसभा चुनाव में इन राज्यों में दलित मतों की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। साथ ही, बसपा ‘तीसरा पक्ष’ बन गठबंधन की राजनीति से सत्ता परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनाव 2019 के संसदीय चुनाव के लिए विपक्ष की गोलबंदी के भावी मॉडल की रूपरेखा भी तय कर करेंगे। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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