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भाजपा को तलाशनी होगी नई जमीन

पांच राज्यों के चुनावी नतीजे एक बार फिर देश में बहुलवादी लोकतंत्र की स्थापना कर रहे हैं। ये उस को-ऑपरेटिव फेडरलिज्म यानी सहयोगात्मक संघवाद की नीति को ही आगे बढ़ा रहे हैं, जिसकी बात नरेंद्र मोदी...

भाजपा को तलाशनी होगी नई जमीन
मनीषा प्रियम राजनीतिक विश्लेषकTue, 11 Dec 2018 11:38 PM
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पांच राज्यों के चुनावी नतीजे एक बार फिर देश में बहुलवादी लोकतंत्र की स्थापना कर रहे हैं। ये उस को-ऑपरेटिव फेडरलिज्म यानी सहयोगात्मक संघवाद की नीति को ही आगे बढ़ा रहे हैं, जिसकी बात नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी और पिछले आम चुनाव के दरम्यान किया करते थे। देश की चुनावी राजनीति अब भी गरीब, किसान और ग्रामीण क्षेत्रों के इर्द-गिर्द सिमटी हुई है, और यह माना जाना चाहिए कि नीतिगत तौर पर जिस ‘रर्बन’ यानी ग्रामीण और शहरी सान्निध्य की बातें की जाती रही हैं, उन पर जमीनी काम नहीं हो सका है। जब किसानी में कोई फायदा न हो और खेती-मजदूरी में भी आसार न दिख रहे हों, तो ग्रामीण भारत आज भी पलायन करके अपना गुजर-बसर करता है।

यही वजह है कि कभी चावल बाबा कहे जाने वाले भाजपा के दिग्गज मुख्यमंत्री रमन सिंह को छत्तीसगढ़ में जनता ने धान पर न्यूनतम दरों में बढ़ोतरी के मुद्दे पर ही बाहर का रास्ता दिखा दिया है। मध्य प्रदेश में भी शिवराज सिंह चौहान ने बेशक छात्राओं और युवतियों के लिए योजनाएं चलाईं, और सड़क-बिजली जैसे साधन पूरे प्रदेश को उपलब्ध कराए, मगर बीते वर्षों में यहां किसानों की हालत खराब हुई है। इन वर्षों में उपज तो बढ़ी, मगर अन्नदाताओं को बाजार के भाव नहीं मिल सके। जब तक मुख्यमंत्री भावांतर योजना का एलान करते, तब तक किसानी की कमर टूट चुकी थी और बिचौलिया वर्ग हावी हो चुका था। खेती-किसानी के यही मामले राजस्थान में बेरोजगारी के साथ जुडे़ और मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे मतदाताओं के साथ संवाद कायम करने में विफल रहीं। नतीजा यह हुआ कि यहां भी भाजपा को सत्ता से बाहर होना पड़ा है। तेलंगाना और मिजोरम के भी परिणाम इन राज्यों के साथ आए हैं, मगर राष्ट्रीय राजनीति को ये ज्यादा प्रभावित नहीं करते।

ये नतीजे बता रहे हैं कि यह वक्त अमीरों की नहीं, गरीबों की राजनीति करने का है। उदारीकरण के बाद से देश में जिस तरह से पूंजी बढ़ी है, उसका बंटवारा ठीक ढंग से नहीं हो सका है। आज भी देश की बड़ी आबादी गांवों में बसती है, लेकिन वहां पूंजी के साथ-साथ संस्थागत ढांचे का भी अभाव बना हुआ है। बेशक यहां सड़क और बिजली का जरूरी जाल बिछ चुका है, लेकिन यह सवाल अब तक अनसुलझा है कि जीवन-यापन के लिए क्या किया जाए? लोगों की आस लोकतांत्रिक राजनीति से ही है, क्योंकि उनकी नजर में पूंजी-वितरण का उचित तरीका राजनीतिक बदलाव है। 
पार्टियों के लिहाज से देखें, तो सबसे कड़ी चुनौती भाजपा को मिली है। हिंदी पट्टी के इन तीनों राज्यों (मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान) से 60 से अधिक सांसद सत्ताधारी दल के हैं। और जब आम चुनाव महज तीन-चार महीने दूर हों, तो भाजपा के चुनावी तंत्र को यह आकलन करना चाहिए कि यदि यहां से उसकी सीटें कम होती हैं, तो वह इसकी भरपाई कहां से करेगी? उसकी उम्मीदें अब हिंदी भाषी क्षेत्रों में सिर्फ उत्तर प्रदेश और बिहार से होंगी। उत्तर प्रदेश में बेशक पार्टी अपने दम पर पूर्ण बहुमत हासिल कर चुकी हो, लेकिन बिहार में वह गबठंधन के भरोसे है। और इस गठबंधन के भी एक छोटे, मगर महत्वपूर्ण साथी उपेंद्र कुशवाहा ने एनडीए से किनारा कर लिया है।

जहां तक कांग्रेस, और खासतौर से राहुल गांधी का सवाल है, तो उन्होंने इन चुनावों में खुलकर अपनी बाजी खेली। प्रधानमंत्री से ज्यादा सभाएं कीं और लगातार मैदान में डटे रहे। उन्होंने स्थानीय मुद्दों के साथ-साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सीधे निशाने पर लिया। राजस्थान में नीरव मोदी और मेहुल चौकसी के नाम बार-बार दोहराए। हालांकि उन्हें यह नसीहत भी दी जाती रही कि चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दों को उठाना उनकी भारी भूल साबित होगी, फिर भी उन्होंने अपने कदम पीछे नहीं खींचे। राजस्थान के नतीजे अब यही साबित कर रहे हैं कि उन्हें अपनी इस रणनीति का फायदा मिला है। 

यही नहीं, राहुल गांधी ने सत्ता से बाहर रहने के चलते थक-हार चुके कांग्रेसियों का मनोबल भी बढ़ाया और अपने नेताओं के आपसी मनमुटाव को पाटने का काम किया। चाहे राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच सेतु बनने का काम हो या फिर मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ के बीच सामंजस्य बनाने का, राहुल गांधी ने बखूबी इन सबको साधा। छत्तीसगढ़ में भी भूपेश बघेल के नेतृत्व पर उनकी सहमति थी। राहुल भारतीय राजनीति के कोई कद्दावर नेता नहीं हैं, फिर भी चुनावी राजनीति में जमकर प्रचार-प्रसार और संगठन पर अपनी पकड़ के चलते वह पार्टी को आगे लेकर आए हैं। वह जहां थे, वहां से आगे बढ़ते हुए दिख रहे हैं। कांग्रेस में युवा नेतृत्व को भी उन्होंने खूब प्रोत्साहित किया है।

यही वजह है कि इन चुनावी नतीजों को 2019 का सेमीफाइनल कहा जा रहा है। भाजपा अब सिर्फ यह सोचकर आगे नहीं बढ़ सकती कि नरेंद्र मोदी की छवि के बूते ही वह चुनाव जीत जाएगी। किसानों की नाराजगी एक महत्वपूर्ण मुद्दा होगा, जिसे कांग्रेस अध्यक्ष बार-बार उठा रहे हैं। इसके अलावा गठबंधन का महत्व भी बढ़ेगा। भाजपा अपना एक महत्वपूर्ण साथी चंद्रबाबू नायडू के रूप में खो चुकी है, इसलिए उसे यह गंभीरता से सोचना चाहिए कि वह अब किन-किन दलों के साथ साझेदारी करके चुनाव में उतरेगी। चूंकि आम चुनाव चंद महीने दूर हैं, इसलिए उसे जल्द ही अपनी इस रणनीति को मूर्त रूप देना होगा। हालांकि नजर इस पर भी रहेगी कि केंद्र सरकार आखिर कौन-सी नीति घोषित करके माहौल अपने पक्ष में बनाने के प्रयास करती है। 

रही बात महागठबंधन की, तो ‘महाकुटुंबी’ गठजोड़ तेलंगाना में विफल साबित हुआ है। दिल्ली में भी सोमवार को हुई इसकी महत्वपूर्ण बैठक में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी जैसे दलों ने शिरकत नहीं की। साफ है, इन नतीजों में गठबंधन अपने लिए बहुत मौके नहीं देख सकता। उसकी सफलता काफी हद तक इस पर निर्भर करेगी कि वह कैसे बसपा और सपा को जोड़ पाता है? अगर ये दोनों दल महागठबंधन के साथ नहीं आते हैं, और उत्तर प्रदेश व बिहार में इसका चुनावी कौशल नहीं दिखता है, तो फिर 2019 की राह इसके लिए भी बहुत आसान नहीं होगी। जनता तो उसे ही सत्ता तक पहुंचाएगी, जो उसके हितों की बात करेगा।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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