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हताशा के मोड़ पर मजबूत पेशेवरों का हार जाना

पिछले दिनों कई नामी-गिरामी और पेशेवर लोगों ने खुदकुशी कर ली। अपनी जांबाजी और काबिलियत के लिए देश भर में चर्चित महाराष्ट्र के वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी हिमांशु राय ने अपने घर में सर्विस रिवॉल्बर से...

हताशा के मोड़ पर मजबूत पेशेवरों का हार जाना
विशेष गुप्ता, प्राध्यापक, समाजशास्त्रTue, 19 Jun 2018 10:46 PM
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पिछले दिनों कई नामी-गिरामी और पेशेवर लोगों ने खुदकुशी कर ली। अपनी जांबाजी और काबिलियत के लिए देश भर में चर्चित महाराष्ट्र के वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी हिमांशु राय ने अपने घर में सर्विस रिवॉल्बर से आत्महत्या कर ली। तो इधर उत्तर प्रदेश के अपर पुलिस अधीक्षक राजेश साहनी ने भी अपनी ही सर्विस पिस्तौल से खुद को गोली मार ली। भैय्यूजी महाराज की खुदकुशी की खबरें तो अब तक मीडिया में चल रही हैं। 

ये तो हाल ही की कुछ घटनाएं हैं। पिछले साल मशहूर तेलुगु अभिनेता प्रदीप कुमार और टीवी अभिनेत्री प्रत्युषा बैनर्जी जैसे न जाने कितने खुदकुशी के मामले हमारे सामने हैं। ये उदाहरण बताते हैं कि सामाजिक संबंधों से जुड़े सरोकार लगातार ध्वस्त हो रहे हैं। समाज में अब यह बहस चल पड़ी है कि क्या पेशेवर समाज में विवाह और परिवार का सामाजिक-वैधानिक ढांचा बच पाएगा अथवा इनका पूरी तरह कायापलट हो जाएगा? अगर हम यह मानते हैं कि यह तेजी से बदलते समाज का दौर है, तो सवाल यह है कि क्या पारिवारिक-सामाजिक रिश्तों की टूटन को बदलाव की स्वाभाविक प्रक्रिया समझा जाए या इसे नए वैश्विक समाज का दबाब माना जाए? 

सामाजिक संबंधों पर निगाह डालें, तो यह साफ दिखता है कि आजादी के आंदोलन के बाद तक की पीढ़ी ने जिन मूल्यों और आदर्शों के साथ सामाजिक रिश्तों को परिवार के संयुक्त सांचे में ढाला था, पूंजी के विस्तार, बाजार की आक्रामकता और रातोंरात सफल होने की व्यक्ति की महत्वाकांक्षाओं ने उसे बिखेरकर रख दिया है। जिस रूप में वैश्विक संस्कृति फैल रही है, उससे ऐसा अनुभव होता है, जैसे औद्योगिक-व्यापारिक व्यवस्था के विस्तार में परिवार और समुदाय के भावनात्मक रिश्ते और उनकी वफादारियां बाधक सिद्ध हो रही हैं। आज हर रिश्ता ही एक तनाव से गुजर रहा है। चाहे माता-पिता का हो या पति-पत्नी का, भाई-भाई का या दोस्त का या फिर अधिकारी-कर्मचारी का ही रिश्ता क्यों न हो, इन सभी रिश्तों के बीच एक शीत भाव पनप रहा है। सामाजिक रिश्ते निरंतर संवाद की मांग करते हैं। उनकी कमी रिश्तों की गरमाहट को कम करती है।  

आधुनिक समाजशास्त्री पूंजी और बाजार के विस्तार के लिए भावनात्मक लगाव की जगह भावनात्मक तटस्थता तथा मानवीय रिश्तों के निजी (पर्सनल) होने के स्थान पर कामकाजी (फंक्शनल) होने को रेखांकित करते हैं। नई ग्लोबल अर्थव्यवस्था साफ बताती है कि जब तक व्यक्ति के परिवार और समुदाय के भावनात्मक रिश्तों को खत्म नहीं कर दिया जाता, तब तक इस व्यवस्था को पेशेवर नहीं बनाया जा सकता। यह इसी का परिणाम है कि आज के किशोर पारिवारिक बंधनों से मुक्त होकर अपनी अलग नई दुनिया (पीयर सोसायटी) बसाने को मजबूर हैं। खून के रिश्ते भी अब इनके लिए अर्थहीन और अनुपयोगी होने शुरू हो गए हैं। 

सामाजिक रिश्तों की एक सच्चाई यह है कि वैश्विक समाज में तमाम रिश्ते असहिष्णुता और संवेदनशून्यता की गिरफ्त में आ रहे हैं। भारत की पारंपरिक परिवार-संस्कृति तरह-तरह के वैश्विक संपर्कों से गुजर रही है। ऐसे में, सामाजिक रिश्तों पर उसका असर स्वभाविक है। लेकिन बदलते समाज में हमें चाहे जितनी भिन्नताएं दिखाई दें, परिवार, आपसी रिश्तों व उनके एहसास से मुंंह मोड़कर हम देर तक अस्तित्व में नहीं रह सकते। 

आज हमारे परिवार और विवाह जैसी सनातन संस्थाएं संकट में हैं तो केवल इसलिए, क्योंकि हमने समाज के बदलते दौर में इन संस्थाओं की परवाह करना छोड़ दिया है। इसलिए हम भीड़ के बीच भी अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं। बहरहाल, समाज में धन के बढ़ते महत्व, छद्म तरक्की की होड़ और सोशल मीडिया के प्रभाव के कारण सामाजिक अकेलापन हमें परेशान जरूर कर सकता है, परंतु इससे घबराने की बजाय हमें अपने परंपरागत सामाजिक रिश्तों में नई जान डालने की कोशिश करनी होगी। आपसी रिश्तों में संवाद बढ़ाने से न केवल परिवारों की नींव मजबूत होगी, बल्कि इससे देश के सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने को भी मजबूती मिलेगी। शायद पेशेवर समाज के साथ सामाजिक रिश्तों को बचाए रखने का यही सबसे आसान रास्ता है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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