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मोटे हो रहे बच्चे और कठघरे में जंक फूड

हाल ही में एक अंग्रेजी अखबार ने दिल्ली के स्कूलों में हुए एक सर्वेक्षण की रिपोर्ट छापी थी। रिपोर्ट के निष्कर्ष चिंताजनक हैं। इसमें बताया गया है कि दिल्ली के प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों में...

मोटे हो रहे बच्चे और कठघरे में जंक फूड
क्षमा शर्मा, वरिष्ठ पत्रकारTue, 04 Sep 2018 10:19 PM
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हाल ही में एक अंग्रेजी अखबार ने दिल्ली के स्कूलों में हुए एक सर्वेक्षण की रिपोर्ट छापी थी। रिपोर्ट के निष्कर्ष चिंताजनक हैं। इसमें बताया गया है कि दिल्ली के प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों में 10 में से एक बच्चा मोटा है। वे उच्च रक्तचाप और खराब कोलेस्ट्रोल के शिकार हैं। इन सब बातों को मिला दिया जाए, तो ये बच्चे हृदय रोग, कैंसर, सांस संबंधी बीमारियों और मधुमेह के शिकार हो सकते हैं।

इसके विपरीत सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे मोटे नहीं हैं। इस सर्वेक्षण में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ मैनेजमेंट ऐंड रिसर्च, और लंदन स्कूल ऑफ हाइजीन ऐंड ट्रॉपीकल मेडिसिन्स ने भाग लिया था। इसमें अलग-अलग स्कूलों में पढ़ने वाले 1,329 बच्चों की जांच की गई, जिनमें 786 लड़के और 543 लड़कियां थीं। ये बच्चे दूसरी से लेकर 11वीं कक्षा तक के थे। 

निजी स्कूलों में अधिक वजन के बच्चे 13 प्रतिशत थे, जबकि उनमें से नौ प्रतिशत बच्चे मोटे (ओबेस) पाए गए, जबकि सरकारी स्कूलों में मात्र तीन प्रतिशत बच्चों का वजन अधिक पाया गया और उनमें से कोई भी मोटापे का शिकार नहीं था। इस सर्वे रिपोर्ट को तैयार करने और लिखने वाले लेखकों में प्रमुख मोनिका अरोड़ा का कहना है कि गरीब और अमीर बच्चों का अध्ययन करने की यह अपनी तरह की पहली रिपोर्ट है, जिसमें बच्चों की सेहत संबंधी चुनौतियों की वैज्ञानिक ढंग से जांच की गई है। मोनिका का यह भी कहना है कि इसका बड़ा कारण बच्चों का हानिकारक खान-पान है। इसके लिए स्कूलों में बच्चों की ठीक जीवनशैली को बढ़ावा देना होगा। बच्चे बड़े होकर अगर अस्वस्थ हुए, तो उनका जीवन तो प्रभावित होगा ही, देश पर भी भारी आर्थिक बोझ पड़ेगा।

इस रिपोर्ट पर गौर करें, तो यह जानना मुश्किल नहीं कि क्यों ऐसा है? आम तौर पर निजी स्कूलों में जो बच्चे पढ़ते हैं, उनके माता-पिता की आर्थिक स्थिति का अंदाजा इन स्कूलों की भारी-भरकम फीस से ही मिल जाता है। इनमें पढ़ने वाले बच्चे आम खान-पान के मुकाबले पैकेट बंद खाने की चीजें खाना पसंद करते हैं। बच्चों के बीच इस तरह का खान-पान स्टेटस सिंबल की तरह भी है। फिर ये स्कूल बसों या कारों में या बाइक्स पर आते हैं। वे साइकिल का इस्तेमाल नहीं करते। इसके अलावा, बहुत से स्कूलों में बच्चों के खेलने-कूदने के लिए बड़े मैदान भी नहीं हैं। जब से उनके हाथों में कंप्यूटर व स्मार्टफोन आए हैं, वे बैठे-बैठे इन्हीं पर कुछ न कुछ देखते रहते हैं, खेलते रहते हैं। पहले टीवी पर इसका दोष मढ़ा जाता था कि बच्चे टीवी देखते रहते हैं और कुछ न कुछ खाते रहते हैं। साफ है, एक ओर बच्चों की शारीरिक गतिविधियां ज्यादा नहीं हैं, वहीं जंक फूड के इस्तेमाल से जितनी कैलोरी वे प्रतिदिन खाते हैं, उतनी खेल-कूद तथा अन्य शारीरिक व्यायाम के अभाव के कारण खर्च नहीं कर पाते। यही कारण है कि उनका मोटापा बढ़ता जाता है।

निजी स्कूलों के उलट सरकारी स्कूलों में आम तौर पर वे बच्चे पढ़ते हैं, जिनके माता-पिता की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। यदि इनके माता-पिता से पूछिए, तो वे भी कहते हैं कि यदि उनके पास पैसे और साधन हों, तो वे भी अपने बच्चों को इन नामी निजी स्कूलों में पढ़ाएं, क्योंकि यह आम धारणा है कि इन्हीं स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे जीवन में भारी सफलता पाते हैं, और मोटा पैसा कमाते हैं। 

अरसे से तमाम स्वास्थ्य संगठन और एनजीओ इस बात की ओर इशारा करते रहे हैं कि बच्चों को जैसे भी हो, हाई कैलोरी फूड से अलग किया जाए। इसके लिए कई बार प्रस्ताव किए गए हैं कि स्कूलों की कैंटीन में इनका मिलना बंद हो जाए। बहुत सी राज्य सरकारों ने इस ओर ध्यान दिया है। बहुत से स्कूलों में भी इस नियम का पालन किया है। मगर जरूरत है कि माता-पिता और स्कूल, दोनों तरफ से बच्चों के स्वास्थ्य को देखते हुए बच्चों को उस भोजन को न दिया जाए, जो उनके लिए हानिकारक है। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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