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Hindi News ओपिनियन नजरियानई उम्मीद जगाते हैं इराक के चुनावी नतीजे

नई उम्मीद जगाते हैं इराक के चुनावी नतीजे

इराक के संसदीय चुनाव पर पूरी दुनिया की नजर यूं ही नहीं थी। अमेरिकी हमलों से राजनीतिक और प्रशासनिक स्तर पर छिन्न-भिन्न हुए इस मुल्क में यद्यपि चुनाव द्वारा सरकारें स्थापित हुईं, लेकिन आंतरिक हिंसा और...

नई उम्मीद जगाते हैं इराक के चुनावी नतीजे
अवधेश कुमार, वरिष्ठ पत्रकारTue, 22 May 2018 10:03 PM
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इराक के संसदीय चुनाव पर पूरी दुनिया की नजर यूं ही नहीं थी। अमेरिकी हमलों से राजनीतिक और प्रशासनिक स्तर पर छिन्न-भिन्न हुए इस मुल्क में यद्यपि चुनाव द्वारा सरकारें स्थापित हुईं, लेकिन आंतरिक हिंसा और विद्रोह ने इस देश को तबाह कर दिया। 2014 में तो आईएस ने इसके बड़े क्षेत्र पर कब्जा जमाकर कोहराम मचा दिया था। जिस देश में ऐसी स्थितियां हों, वहां इसकी प्रतिक्रिया में यदि उदारवादी शक्तियां पैदा होती हैं, तो कट्टरपंथ भी। इराक में भी यही हुआ। लंबे संघर्ष के बाद इराक के प्रधानमंत्री हैदर अल-अबादी ने दिसंबर, 2017 में इराक से आईएस के पूरी तरह अंत की घोषणा की थी, इसलिए दुनिया की नजर इस बात पर थी कि वहां कौन सी शक्तियां चुनाव जीतकर आती हैं? 

चुनावी नतीजे चौंकाने वाले हैं। अबादी एक उदारवादी शिया नेता माने जाते हैं और अमेरिका के साथ मिलकर उन्होंने आईएस के खिलाफ लड़ाई लड़ी है। जाहिर तौर पर वह पश्चिमी देशों के चहेते हैं। मगर 329 सीटों वाली संसद में उनकी पार्टी 42 सीटों के साथ तीसरे स्थान पर है। शिया मौलाना मुक्तदा अल-सद्र के नेतृत्व वाला मार्चिंग टुवड्र्स रिफॉर्म को 54 सीटें मिली हैं, जो वामपंथी दलों के साथ मिलकर बना गठबंधन है। ईरान के करीबी हादी अल-अमीरी के नेतृत्व वाला गठबंधन अल फातिह गुट 47 सीटों के साथ दूसरे स्थान पर रहा। यह परिणाम पश्चिमी विश्लेषकों को आश्चर्य में डालने वाला है। मुक्तदा अल-सद्र की छवि अमेरिका और पश्चिमी मीडिया ने एक खलनायक की बना रखी है। मुक्तदा सद्र आरंभ से ही अमेरिका के विरोधी रहे हैं। अमेरिका द्वारा सद्दाम हुसैन के मारे जाने के बाद से सद्र के संगठन ने इराक में अपने पैर जमाए। जब इराक भयावह गृह युद्ध में फंसा हुआ था, उस समय सुन्नियों तथा अमेरिकी फौज पर होने वाले ज्यादातर हमले मुक्तदा अल-सद्र के नाम पर ही होते थे। यह बात अलग है कि मौलाना ने धीरे-धीरे जनता के बीच इराक के हित में समर्पित एक इराकी राष्ट्रवादी की अपनी छवि बनाई। उन्होंने इराक में भ्रष्टाचार विरोधी उग्र अभियान चलाकर जनता को अपना समर्थक बनाया, और खुद को अमेरिका व ईरान, दोनों से समान दूरी रखने वाला देशभक्त बताया। चुनाव परिणाम बता रहे हैं कि इस पर जनता के बड़े वर्ग ने विश्वास किया है। वामपंथियों के साथ उनका गठबंधन होना भी इस बात का सुबूत है कि उनकी कट्टर मजहबी नेता की जो छवि बनाई गई थी, शायद वह ठीक नहीं थी। 

हालांकि वह प्रधानमंत्री नहीं बन सकते। उन्होंने चुनाव भी नहीं लड़ा है। मगर सरकार गठन में उनकी भूमिका होगी। चुनाव परिणामों की घोषणा के बाद उन्होंने अबादी से मुलाकात की है। इसका सीधा अर्थ है कि मौलाना सद्र चुनाव के दौरान की राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता को भुलाकर मिल-जुलकर सरकार बनाने के लिए तैयार हैं। जिस तरह से उन्होंने व्यापक सुधारों के साथ इराक को फिर से अरब मुल्कों का केंद्र बनाने का वादा किया है, वह चुनाव में जीत हासिल करने वाले दलों व समूहों के आपसी सहयोग से ही संभव है।  

अबादी अमेरिका और ईरान, दोनों से संतुलित संबंध रखने वाले नेता हैं। दूसरी ओर सद्र कभी ईरान के करीबी रहे होंगे, लेकिन आज वह इन दोनों ही देशों के प्रभाव से अलग स्वयं को राष्ट्रवादी घोषित कर चुके हैं। तीसरा गुट ईरान समर्थक है। इनके बीच पूर्ण वैचारिक सहमति निस्संदेह कठिन लगता है। किंतु गठबंधन सरकारों के लिए आवश्यक सर्वसम्मत न्यूनतम साझा कार्यक्रम बन जाए, तो सरकार चलाने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए। 

इराक के सामने बहुआयामी चुनौतियां हैं। हिंसा की घटनाओं में काफी गिरावट आई है, लेकिन जेहादी अभी भी सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा बने हुए हैं। मौलाना सद्र ने चुनाव प्रचार के दौरान इराक को पूरे अरब जगत में बढ़ते कट्टरपंथ के बीच एक संतुलित, शांत और समृद्ध देश बनाने का वादा किया है। अगर इराक वाकई इस दिशा में बढ़ता है, तो यह पूरी दुनिया के हित में होगा। उम्मीद यही है कि चुनाव में जो सपना इराक के लोगों ने देखा है, वह पूरा हो। इराक एक धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में खड़ा होता है, तो इसका व्यापक असर होगा। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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