फोटो गैलरी

Hindi News ओपिनियन नजरियाएक परंपरा जो आज भी ऊर्जा देती है

एक परंपरा जो आज भी ऊर्जा देती है

पूरे 476 साल पहले सन 1543 में जब संत मेघा भगत काशी (अब वाराणसी) में रामलीला का श्रीगणेश कर रहे थे, उन्होंने शायद ही सोचा हो कि यह रामलीला इतनी लोकप्रियता हासिल कर लेगी। पंजाब से काशी आए मेघा भगत ने...

एक परंपरा जो आज भी ऊर्जा देती है
राममोहन पाठक, पूर्व निदेशक, मालवीय पत्रकारिता संस्थान, काशी विद्यापीठWed, 17 Oct 2018 11:08 PM
ऐप पर पढ़ें

पूरे 476 साल पहले सन 1543 में जब संत मेघा भगत काशी (अब वाराणसी) में रामलीला का श्रीगणेश कर रहे थे, उन्होंने शायद ही सोचा हो कि यह रामलीला इतनी लोकप्रियता हासिल कर लेगी। पंजाब से काशी आए मेघा भगत ने चित्रकूट रामलीला की संकल्पना की और लगातार 22 दिन चलने वाली इस लीला का श्रीगणेश किया। इसकी प्राचीनता का यह उल्लेख इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जस्टिस स्टैनले तथा जस्टिस बनर्जी की खंडपीठ के एक निर्णय (1910) में भी मिलता है। मेघा भगत के बाद 1577 में काशी के सिद्ध अस्सी घाट पर गोस्वामी तुलसीदास ने राम-राज्याभिषेक या ‘राजगद्दी’ लीला का आयोजन किया। आगे चलकर काशी राज्य के महाराजा उदित नारायण सिंह का राज्यकाल रामलीला आयोजनों का उत्कर्ष काल रहा, जब रामनगर में राज्य संरक्षण में 31 दिनों की लीला आरंभ हुई। पौने दो सौ साल की परंपरा और इतिहास समेटे यह लीला आज भी उतनी ही जीवंत बनी हुई है। इसके इसी महत्व को मान देते हुए ‘यूनेस्को’ ने इसे ‘अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर’ घोषित किया है।

पीढ़ी-दर-पीढ़ी भारतीय समाज ही नहीं, विश्व के अनेक देशों के लोगों के लिए भी मेघा भगत की चित्रकूट रामलीला और रामनगर की लीला काशी में हर साल एक नया इतिहास रचते हुए परंपरा को संरक्षित करती आई है। तुलसीदास ने सन 1574 में काशी में रामचरितमानस की रचना शुरू की और मेघा भगत उनके शिष्य बने। कथाओं के अनुसार, मेघा भगत को चित्रकूट में नदी तट पर स्नान करने आए धनुषधारी दो बालक मिले और अपना धनुष-बाण मेघा भगत के पास सहेजकर स्नान करने गए, पर लौटे नहीं। मेघा भगत चिंता में डूबे थे कि उन्हें संबोधित करती आकाशवाणी हुई- ‘आप काशी जाकर रामलीला का आयोजन करें। हर वर्ष भरत-मिलाप की लीला में स्वयं प्रभु राम दर्शन देंगे।’ यह ऐतिहासिक धनुष-बाण आज भी काशी में संरक्षित है। यह चित्रकूट रामलीला निर्बाध रूप से चल रही है और विजयादशमी के अगले दिन भरत-मिलाप के ‘लाखा मेला’के रूप में मनाया जाता है। 

प्राचीनता के साथ ही परंपरा का पूर्ण निर्वाह काशी की रामलीलाओं की थाती है। अभूतपूर्व जन-सहभागिता इनकी आत्मा है, तो बिजली, लाउडस्पीकर और अन्य आधुनिक संगीत उपकरणों-वाद्यों का प्रयोग न करते हुए लीला के पारंपरिक मौलिक स्वरूप को बनाए रखना इसका वैशिष्ट्य है। हर दिन की लीला से संबंधित रामचरितमानस  के अंश का एक खास सुर में पारंपरिक वाद्य झांझ, मृदंग, मंजीरा और करताल के साथ ‘रामायणी’ समूह द्वारा गायन अद्भुत वातावरण रचता है। दर्शकों का अनुशासन ऐसा कि लीला के व्यासजी की- ‘चुप रहो, सावधान’ जैसी घोषणा मात्र से हजारों हजार दर्शक मौन होकर संवाद का आनंद लेते हैं। पूरे आश्विन-कार्तिक मास में शिव नगरी को राममय बनाती ये रामलीलाएं थाईलैंड, कंपूचिया, इंडोनेशिया, म्यांमार, नेपाल, भूटान, श्रीलंका, मलेशिया, सिंगापुर, जापान, अमेरिका, इंग्लैंड, मॉरीशस, नीदरलैंड, सूरीनाम, फीजी, वियतनाम आदि देशों में होने वाली रामलीलाओं का स्रोत और प्रेरणा रही हैं। यहां आने वाले पर्यटकों की संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है।

ये रामलीलाएं गंगा-जमुनी तहजीब की भी मिसाल हैं। भारत में लीला के स्वरूपों के वस्त्र, मुखौटे, शृंगार सामग्री, मुकुट और विशालकाय पुतलों का निर्माण सदियों से पारंपरिक रूप से मुस्लिम कारीगर, कलाकार और उनके परिवार के लोग करते हैं। समय के साथ देश में अन्य स्थानों की तरह काशी में भी कुछ स्थानों पर आधुनिक वाद्य यंत्रों, बिजली आदि का प्रयोग होने लगा है। आधुनिकता की दौड़ में लीला स्थलों का सिमटते जाना और आयोजनों का मेले में तब्दील होते जाना ‘लीला’ की मूल भावना और आयोजन के समक्ष एक नई चुनौती है। लीलाएं आज भी समाज में भाई-भाई के  प्रेम, त्याग और कुशल राज्य-कार्य के नीतिगत आचरण की प्रेरणा और ऊर्जा देती हैं। समाज में एकाकार का संदेश देने वाली इन लीलाओं के संरक्षण और संवद्र्धन के लिए गंभीर प्रयासों की जरूरत है।  (ये लेखक के अपने विचार हैं)

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें