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यौन हिंसा से मुक्त समाज की ओर बढ़ने के लिए

हमारे देश में बलात्कार के लिए अक्सर औरतों पर ही क्यों दोष मढ़ा जाता है? हर तरफ अमूमन यही सोच पाई जाती है कि महिला ने ही इसके लिए उकसाया होगा या फिर वह इसी के लायक थी। ‘लड़के लड़के ही रहेंगे’...

यौन हिंसा से मुक्त समाज की ओर बढ़ने के लिए
रागिनी सायरा मल्होत्रा , प्रोग्राम डायरेक्टर, लोक फाउंडेशनWed, 30 May 2018 09:47 PM
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हमारे देश में बलात्कार के लिए अक्सर औरतों पर ही क्यों दोष मढ़ा जाता है? हर तरफ अमूमन यही सोच पाई जाती है कि महिला ने ही इसके लिए उकसाया होगा या फिर वह इसी के लायक थी। ‘लड़के लड़के ही रहेंगे’ से लेकर ‘जीन्स पहनने के कारण बलात्कार की घटनाएं होती हैं’ तक तर्कों की एक लंबी शृंखला मिलती है, लेकिन शायद ही कभी मर्दों ने इसके लिए खुद को दोषी माना। द क्विंट ने हाल ही में एक डॉक्यूमेंटरी में उन सामाजिक प्रवृत्तियों की पड़ताल की थी, जो बलात्कार को मामूली कृत्य मानते हुए उसे ‘सहमतिपूर्ण’ यौन संबंध के तौर पर पेश करती हैं। बलात्कार का बचाव तो इस मर्दवादी प्रवृत्ति का एक सिरा भर है। साल 2014 से 2017 के बीच लोक फाउंडेशन और सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के अनेक साझा सर्वेक्षणों में इस प्रवृत्ति की पड़ताल की गई। इनमें पूरे भारत के 72,384 से 1,68,165 लोगों ने भाग लिया था। 

औरतों के पहनावे को लेकर जो प्रवृत्ति दिखी, वह काफी सारगर्भित है। पहले सर्वे में पुरुषों और स्त्रियों से पूछा गया कि उनकी निगाह में एक युवती का अपने दोस्तों के साथ बाहर जाते वक्त कौन सा लिबास पहनना ‘अनुचित’ है? लगभग 88 फीसदी लोगों के लिए ‘स्कर्ट’ अस्वीकार्य थी, तो 78 प्रतिशत पुरुषों-स्त्रियों को ऐसे मौके पर युवतियों का पैंट पहनना नागवार लगा था। 94 फीसदी लोगों ने सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं के लिए साड़ी या सलवार-कमीज को ही मुनासिब पोशाक माना। आधुनिक पहनावों की प्राथमिकता इज्जत के लिए चिंता की बात हो सकती है और उससे अपमानजनक हिंसा की आशंका पैदा होती है। यह प्रवृत्ति उस सोच की समर्थक दिखती है, जो यह मानती है कि ‘गैर-मुनासिब’ कपड़े पहनने वाली औरतें अपनी बेइज्जती के लिए खुद जिम्मेदार हैं। शहरी और ग्रामीण लोगों में स्कर्ट व पैंट की स्वीकृति में भी फर्क दिखा। जहां 20 फीसदी शहरी लोगों को इन वस्त्रों से कोई आपत्ति नहीं थी, तो वहीं ग्रामीण इलाकों में सिर्फ 10 प्रतिशत लोगों को इसमें कोई बुराई नहीं दिखी।  
चिंता की बात यह है कि शहरों में रहने वालों का खुलापन लैंगिक निष्पक्षता में तब्दील होता नहीं दिखता। जब उनसे पूछा गया कि ‘क्या औरतों को छेड़छाड़ को अपनी जिंदगी के सामान्य हिस्से के रूप में बर्दाश्त करना चाहिए?’ 25 फीसदी लोग इससे सहमत थे और 25 प्रतिशत ने या तो जवाब नहीं दिया या फिर वे तटस्थ रहे। तथ्य यह है कि शहरी बाशिंदे ग्रामीण भारतीयों के मुकाबले थोड़ा ही सही, पर यौन उत्पीड़न के सामान्यीकरण में आगे मिले। माना यह जाता है कि संपन्न, सुशिक्षित भारतीय जेंडर के मामले में अधिक समतावादी होते हैं। इसके बावजूद सभी जेंडर, आय वर्गों और सर्वाधिक शिक्षित समूहों के 50 प्रतिशत लोगों के लिए यौन उत्पीड़न मान्य या बर्दाश्त लायक चीज है। महिलाओं की सुरक्षा के लिए क्या किया जा सकता है? देश के 20 फीसदी लोगों ने मुख्यत: इसका भार औरतों पर ही डाला। इसी तरह, विडंबना यह भी है सम्मान से जुड़ी हिंसा को सामाजिक मान्यता हासिल है, क्योंकि समाज हिंसा के आरोपी को रोकने की बजाय ‘प्रतिष्ठा’ को कहीं अधिक महत्व देता है। हालांकि, सर्वे में शामिल अनेक लोग इस बात से सहमत थे कि बेटों की परवरिश ऐसी करनी चाहिए कि वे औरतों की इज्जत करना सीखें, मगर 60 फीसदी लोगों ने नहीं माना कि लिंग आधारित हिंसा की मूल वजह पुरुषों का व्यवहार है। 

औरतों की सुरक्षा के लिए ज्यादातर पुलिस को जवाबदेह ठहराया गया। निस्संदेह, इसमें पुलिस की अहम भूमिका है और वह इस संदर्भ में अच्छा काम कर सकती है। लेकिन इसका बेहतर समाधान जेंडर से जुड़ी कसौटियों में निहित है। बच्चों और वयस्कों को जेंडर के प्रति संवेदनशील बनाने के प्रयासों को विस्तार देने की जरूरत है। यौन हिंसा को रोकने के लिए जरूरी है कि जेंडर संबंधी उस सोच को ध्वस्त किया जाए, जो लिंग-आधारित हिंसा का बचाव करती है और उसे सामान्य घटना बताती है। तभी हम एक कम अहिंसक व लैंगिक रूप से निष्पक्ष समाज के सहायक सामाजिक मानदंडों को पुनर्परिभाषित कर सकेंगे।

साथ में अनिरुद्ध कनिसेट्टी

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