पानी के इस्तेमाल के पैमाने बदलने का समय
हाल ही में हमारे देश में इस बात को लेकर खुशी दिखाई दी कि चीन ने गैर बासमती चावल भारत से मंगवाने की भी अनुमति दे दी है। हम भले ही इसे अपनी व्यापारिक सफलता समझें, लेकिन इसके पीछे असल में चीन का...
हाल ही में हमारे देश में इस बात को लेकर खुशी दिखाई दी कि चीन ने गैर बासमती चावल भारत से मंगवाने की भी अनुमति दे दी है। हम भले ही इसे अपनी व्यापारिक सफलता समझें, लेकिन इसके पीछे असल में चीन का जल-प्रबंधन है। जो चीन पूरी दुनिया के गली-मुहल्लों तक अपने सामान के साथ कब्जा किए जा रहा है, वह आखिर भारत और अन्य देशों से चावल क्यों आयात कर रहा है? चीन ने ऐसी सभी खेती-बाड़ी को नियंत्रित कर दिया है, जिसमें पानी की मांग ज्यादा होती है। भारत ने बीते वर्षों में कोई 37 लाख टन बासमती चावल विभिन्न देशों को बेचा। असल में, हमने केवल चावल बेचकर कुछ धन नहीं कमाया, उसके साथ एक खरब लीटर पानी भी उन देशों को दे दिया, जो इतना चावल उगाने में हमारे खेतों में खर्च हुआ था। हम एक किलो गेहूं उगाने में करीब 1,700 लीटर और एक कप कॉफी के लिए 140 लीटर पानी का खर्च करते हैं। इसी तरह, एक किलो बीफ के उत्पादन में 17 हजार लीटर पानी खर्च होता है। 100 ग्राम चॉकलेट बनाने के लिए 1,712 लीटर और 40 ग्राम चीनी उत्पादन के लिए 72 लीटर पानी व्यय होता है।
यह ध्यान रखना जरूरी है कि भारत में दुनिया के कुल पानी का चार फीसदी उपलब्ध है, जबकि यहां पर मानव आबादी करीब 16 प्रतिशत है। हमारे यहां जीन्स की एक पैंट के लिए कपास उगाने से लेकर रंगने, धोने आदि में 10 हजार लीटर पानी उड़ा दिया जाता है, जबकि समझदार देशों में यह मात्रा बमुश्किल 500 लीटर होती है। नीति आयोग की ताजा रिपोर्ट में जल उपलब्धता की बुरी स्थिति का मूल कारण खराब जल प्रबंधन बताया गया है। यह साफ-साफ दिख रहा है कि बढ़ती आबादी, उसके पेट भरने के लिए विस्तार पा रही खेती और पशु पालन, औद्योगिकीकरण आदि के चलते साल-दर-साल पानी की उपलब्धता घटती जा रही है। आजादी के बाद सन् 1951 में हमारे यहां प्रत्येक व्यक्ति के लिए औसतन 14,180 लीटर पानी उपलब्ध था। सन 2011 में यह आंकड़ा 1,608 पर आ गया और अनुमान है कि 2025 तक यह महज 1,340 रह जाएगा। भले ही कुछ लोग बोतलबंद पानी पीकर खुद को निरापद समझते हों, लेकिन यह जान लें कि एक लीटर बोतलबंद पानी तैयार करने के लिए पांच लीटर पानी बर्बाद किया जाता है। यह केवल बड़े कारखानें में ही नहीं, बल्कि घर-घर में लगे आरओ में भी होता है।
पानी के सही इस्तेमाल पर कड़ाई से नजर रखने के लिए ‘वाटर फुटप्रिंट’ यानी जल पदचिह्न का निर्धारण बेहद महत्वपूर्ण और निर्णायक हो सकता है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि इस बारे में अभी तक ज्यादा सोचा नहीं जा रहा। जल पदचिह्न हमारे द्वारा उपयोग में लाए जा रहे सभी उत्पादों और सेवाओं में प्रयुक्त पानी का आकलन होता है। जल पदचिह्न या वाटर फुटप्रिंट के तीन मानक हैं- ग्रीन जल पदचिह्न उस ताजा पानी की मात्रा का प्रतीक है, जो नम भूमि, आद्र्र भूमि, मिट्टी, खेतों आदि से वाष्पित होता है। ब्लू जल पदचिह्न झीलों, नदियों, तालाबों, जलाशयों और कुओं से संबंधित है। ग्रे जल पदचिह्न उपभोक्ताओं द्वारा इस्तेमाल की जा रही सामग्री को उत्पादित करने में प्रदूषित हुए जल की मात्रा को इंगित करता है।
यदि सभी उत्पादों का आकलन इन पदचिह्नों के आधार पर होने लगे, तो जाहिर है कि सेवा या उत्पादन में लगी संस्थाओं के जल स्त्रोत, उनके संरक्षण व किफायती इस्तेमाल, पानी के प्रदूषण जैसे मसलों पर विस्तार से विमर्श शुरू हो सकता है। हमारी आयात और निर्यात नीति कैसी हो, हम अपने खेतों में क्या उगाएं, पानी के दोबारा इस्तेमाल की अनिवार्यता जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे स्वत: ही लोगों के बीच जाएंगे। उल्लेखनीय है कि इस साल हरियाणा सरकार ने पानी बचाने के इरादे से धान की जगह मक्का की खेती करने वालों को नि:शुल्क बीज व कई अन्य सुविधाएं देने का फैसला किया है। ऐसे ही कई प्रयोग देश को पानीदार बनाने की दिशा में कारगर हो सकते हैं, बस हम खुद ही यह आंकना शुरू कर दें कि किन-किन जगहों पर पानी का गैरजरूरी या बेजा इस्तेमाल हो रहा है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)