स्थिरता के लिए है जरूरी चार देशों का साथ आना
‘इंडो-पैसिफिक’ शब्द का इस्तेमाल समुद्री जीवविज्ञानी उष्णकटिबंधीय हिंद महासागर से लेकर पश्चिम व मध्य प्रशांत महासागर तक पसरे पानी के विस्तार को परिभाषित करने के लिए करते रहे हैं। मगर 21वीं...
‘इंडो-पैसिफिक’ शब्द का इस्तेमाल समुद्री जीवविज्ञानी उष्णकटिबंधीय हिंद महासागर से लेकर पश्चिम व मध्य प्रशांत महासागर तक पसरे पानी के विस्तार को परिभाषित करने के लिए करते रहे हैं। मगर 21वीं सदी की शुरुआत में इस शब्द को भू-राजनीतिक शब्दावली में जगह मिली और यहां यह अपनी वैज्ञानिक परिभाषा से कहीं अधिक विवादास्पद साबित हुआ। यह क्षेत्र 20वीं सदी में विभिन्न देशों और एक ही मुल्क के अलग-अलग राज्यों के बीच खूनी संघर्षों का गवाह तो बना ही, विफल, संभावित और स्थापित परमाणु शक्ति संपन्न देशों के बीच निकट भविष्य में तनाव के बीज भी यहां खूब दिखते हैं। एक मजबूत सुरक्षा व्यवस्था के न होने से यहां ऐसे तनाव की आशंका ज्यादा है। इस लिहाज से चतुष्कोणीय सुरक्षा वार्ता (क्वाड) को फिर से जीवंत करने की कोशिशों को देखें, तो यह एक उल्लेखनीय कदम है। ऑस्ट्रेलिया, भारत, जापान और अमेरिका के बीच यह बातचीत मनीला में आसियान और ईस्ट-एशिया समिट के इतर हुई है।
क्वाड को फिर से जिंदा करने की कई वजहें हैं। चीन के साथ हुए डोका-ला विवाद और बाद में ‘बेल्ट रोड इनेशिएटिव’ ने भारत को इसके लिए प्रोत्साहित किया, तो ऑस्ट्रेलिया और कुछ हद तक जापान के लिए ऐसा करने की बड़ी वजह द्विपक्षीय गठबंधन के प्रति डोनाल्ड ट्रंप सरकार की प्रतिबद्धता और ‘क्वाड’ के वायदों के तहत उन्हें मजबूत बनाने की मंशा है। अमेरिकी विदेश मंत्री रेक्स टिलरसन की यात्रा से भी यही लगता है कि वाशिंगटन की मंशा इस क्षेत्र में अधिक से अधिक संबंध मजबूत करने की है। रही बात अमेरिका की, तो क्वाड उसे इस क्षेत्र में चीन के दबाव से उबरने का मौका दे सकता है। यह नाटो की तरह का संगठन हो सकता है, जिसे ‘रूस को बाहर रखने, अमेरिका को शामिल करने और जर्मनी का कद छोटा करने में’ सफलता मिली थी। इसी कारण कई पर्यवेक्षकों ने इस नए संगठन को चीन को घेरने के एक औजार के रूप में परिभाषित किया है। हालांकि एक प्रभावशाली संगठन बनने के लिए इसे नाटो के नक्शेकदम पर भी चलना चाहिए, यानी उसे ‘चीन को बाहर रखना होगा, अमेरिका को शामिल करना होगा और जापान को कम महत्व देना होगा’। यह भी सुनिश्चित करना होगा कि इस क्षेत्र को लेकर वाशिंगटन की प्रतिबद्धता महज कहने भर की न रह जाए, बल्कि वह इसके लिए गंभीर भी बने।
डोनाल्ड ट्रंप की विघटनकारी व अलगाववादी प्रवृत्ति को देखते हुए (जो ईस्ट एशिया समिट में उनके न शामिल होने से जाहिर भी होता है) क्वाड की यह भूमिका काफी महत्वपूर्ण मानी जाएगी। इसी तरह, दूसरे विश्व युद्ध में दिखे जापान के बर्बर अतीत के मद्देनजर क्वाड में टोक्यो की भूमिका भी मामूली रखनी होगी, और इसमें किसी भी संशोधनवादी कदम को पर्याप्त जांचा-परखा जाएगा। हालांकि आशंका यह भी है कि कुछ आंतरिक मतभेदों के कारण शायद क्वाड अपनी क्षमता के अनुसार काम न कर सके। मसलन, भारत ‘नेविगेशन की स्वतंत्रता’ की वकालत तो करता है, पर विशेषकर दक्षिण चीन सागर में नौकायन युद्धपोतों के मामले में ऐसा करने को अनिच्छुक दिखता है। इसी तरह, 2015 की भारतीय समुद्री सुरक्षा रणनीति यह एहतियात बरतती दिखती है कि ‘जो राष्ट्र (इसे अमेरिका समझें) परंपरागत मित्र हैं’, उनके साथ सुरक्षा को लेकर अलग-अलग धारणाएं हो सकती हैं। क्वाड के सदस्य राष्ट्रों को ऐसे मतभेदों से पार पाना होगा।
सही है कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र में शांति व स्थिरता कायम करने का यह एक महत्वपूर्ण प्रयास है, पर इसकी मजबूती के लिए कम से कम दो और काम किए जाने चाहिए। ईस्ट-एशिया समिट इसे राजनीतिक मजबूती दे सकती है, तो एपेक कारोबारी व आर्थिक मजबूती के लिए जरूरी है। क्वाड के सभी सदस्य देश ईस्ट-इंडिया समिट में शामिल हैं, लेकिन भारत अब भी एपेक का सदस्य नहीं है। लिहाजा नई दिल्ली को एशिया-प्रशांत के इन तीनों स्तंभ का हिस्सा बनना होगा। सभी देशों को यह समझना होगा कि शांति कायम करने के लिए कभी-कभी एक लोकतांत्रिक सैन्य गठबंधन की जरूरत होती है। नाटो ने यह साबित भी किया है। इसके लिए भारत को सैन्य गठबंधन और सहयोग से परहेज की अपनी पुरानी और पारंपरिक समझ को त्यागना होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)