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व्यवस्था चरमराई और कोई मकसद नहीं हासिल हुआ

काले धन के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन ठीक एक साल पूर्व आठ नवंबर को जिस प्रकार केंद्र सरकार ने आनन-फानन में नोटबंदी की, वह एक बड़ी राजनीतिक भूल थी। जो उद्देश्य...

व्यवस्था चरमराई और कोई मकसद नहीं हासिल हुआ
सचिन पायलट, कांग्रेस नेताWed, 08 Nov 2017 12:33 AM
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काले धन के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन ठीक एक साल पूर्व आठ नवंबर को जिस प्रकार केंद्र सरकार ने आनन-फानन में नोटबंदी की, वह एक बड़ी राजनीतिक भूल थी। जो उद्देश्य सरकार ने नोटबंदी के बताए थे, उनमें से एक भी पूरा नहीं हुआ। जबकि अर्थव्यवस्था को सरकार के इस अपरिपक्व कदम की भारी कीमत चुकानी पड़ी। एक साल बाद भी देश इसके दुष्प्रभावों से उबर नहीं पाया है। नोटबंदी को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीन बातें कही थीं। एक, इससे लोगों की तिजोरियों में छिपा काला धन खत्म हो जाएगा। दूसरी, आतंकियों और नक्सलियों को आर्थिक मदद मिलनी बंद हो जाएगी। तीसरी, नकली नोटों की समस्या दूर होगी। लेकिन ये तीनों समस्याएं आज भी जस की तस बनी हुई हैं। जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था, तो अटार्नी जनरल ने कहा था कि तीन लाख करोड़ का काला धन उजागर होगा। लेकिन यह बात सही नहीं निकली। 99 फीसदी रुपये तय समय के भीतर बैंकों में वापस आ गए, जबकि पिछले एक साल में आतंकी गतिविधियों में 33 फीसदी का इजाफा हुआ है। जहां तक जाली नोटों का प्रश्न है, तो सरकार बताए कि कितने जाली नोट कम हुए? सरकार के पास कोई जवाब नहीं है। 

नोटबंदी एक बेवजह उठाया गया कदम था। इसमें भारतीय रिजर्व बैंक की सहमति नहीं थी। यह एक सांस्थानिक कदम नहीं, बल्कि पूरी तरह राजनीतिक कदम था। इसके लिए उचित तैयारी भी नहीं की गई। पहले 31 मार्च तक पुराने नोट बदलने की तिथि रखी गई। फिर उसे 31 दिसंबर को खत्म कर दिया गया। कुप्रबंध कितना था, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि रिजर्व बैंक को महज 50 दिनों के भीतर 74 नोटिफिकेशन निकालने पड़ गए। एटीएम मशीनों को भी नए नोट के लायक नहीं बनाया गया। नतीजा यह हुआ कि 140 लोग लाइनों में लगे-लगे मारे गए। आरबीआई को नोट छापने में आठ हजार करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। एक तरफ पांच सौ और एक हजार रुपये के बड़े नोटों को बंद किया गया, ताकि काले धन पर लगाम लगे, लेकिन दूसरी तरफ दो हजार रुपये के नोट शुरू कर दिए गए। यह पूरा अर्थशास्त्र समझ से परे है। सरकार को जब इसके नुकसान का एहसास होना शुरू हुआ, तो रुख बदलने की कोशिश की गई। आनन-फानन में नोटबंदी को डिजिटल भुगतान से जोड़ दिया गया। काले धन, आतंकी फंडिंग व नकली नोटों का मुद्दा गौण हो गया। मगर क्या डिजिटल भुगतान बढ़ा? रिजर्व बैंक के ताजा आंकड़े कहते हैं कि स्थिति अब फिर नोटबंदी के पहले वाले स्तर पर आ गई है। 

नोटबंदी के दौरान 99 फीसदी पैसा बैंकों में वापस चला गया, इसलिए अघोषित संपत्ति के खुलासे के जो मामले सामने आए, वे बेहद कम हैं। पिछले एक साल के दौरान कुल 29 हजार करोड़ रुपये की अघोषित आय पकड़ी गई है, जबकि यूपीए शासन में 2013-14 के दौरान एक लाख एक हजार करोड़ रुपये की अघोषित आय पकड़ी गई थी। जाहिर है, नोटबंदी अघोषित आय का पता लगाने में भी असफल रही है। नोटबंदी को लेकर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का अनुमान सही निकला। उन्होंने जीडीपी में दो फीसदी की गिरावट की बात कही थी, जो आज सही हो रही है। देश भारी मंदी की चपेट में है। किसानों, मजदूरों की बदहाली बढ़ी है। देश में असंगठित क्षेत्र में काम-धंधा चौपट हो गया है। करीब 33 फीसदी रोजगार घटे हैं। मध्यम व लघु उद्योगों के लाभ में 50 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है। संगठित रोजगार भी घट रहा है। कंपनियों में छंटनी हुई है। हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था नकदी आधारित है। डिजिटल भुगतान के लिए गांवों में न तो बुनियादी ढांचा है और न लोगों में इतनी जागरूकता और कौशल है। लोगों पर नोटबंदी और डिजिटल भुगतान थोपा गया। इससे ग्रामीण, किसान, छोटा-मोटा काम करने वाले सबसे ज्यादा प्रभावित हुए। सरकार की तरफ से कहा गया है कि नोटबंदी से आयकर देने वालों की संख्या में एक साल में 25 फीसदी का इजाफा हुआ। पिछले साल आयकर देने वाले 25 फीसदी बढ़े जरूर थे, लेकिन उससे पहले साल यह वृद्धि  27 फीसदी की हुई थी। वास्तव में आयकर देने वाले बढ़ने की बजाय घट गए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
 

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