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केंद्र और राज्यों के चुनाव एक साथ करवाने की पेचीदगियां

इन दिनों लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने पर काफी विमर्श चल रहा है। चुनाव आयोग ने कहा है कि अगले चार महीनों में वह लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने में सक्षम हो जाएगा। देश में...

केंद्र और राज्यों के चुनाव एक साथ करवाने की पेचीदगियां
विजय कुमार चौधरी, अध्यक्ष, बिहार विधानसभाWed, 25 Oct 2017 02:11 AM
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इन दिनों लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने पर काफी विमर्श चल रहा है। चुनाव आयोग ने कहा है कि अगले चार महीनों में वह लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने में सक्षम हो जाएगा। देश में बार-बार चुनाव होने के नतीजों को हर कोई जानता है। इनमें सबसे बड़ा मसला चुनाव संपन्न कराने में होने वाले बेहिसाब खर्च का है। चुनाव चाहे लोकसभा का हो या विधानसभा का, उसे कराने में सरकारी तंत्र को भारी मशक्कत करनी पड़ती है। इससे विकास कार्यों में भी बाधा आती है। आदर्श आचार संहिता के लागू होने के कारण ढेर सारी आवश्यक सरकारी नीतियों और फैसले लेने में भी अनावश्यक विलंब होता है। चुनाव कार्य में शिक्षकों की पूर्ण भागीदारी के कारण महाविद्यालयों और विद्यालयों में पढ़ाई ठप्प हो जाती है। वर्तमानकेंद्र सरकार एक साथ चुनाव कराने के पक्ष में है और उसकी मंशा को देखते हुए ही नीति आयोग ने चुनाव आयोग को इस प्रश्न पर गंभीरता से विचार करने को कहा है। केंद्र सरकार ने चुनाव आयोग को इसके लिए आवश्यक चीजों की उपलब्धता सुनिश्चित कराने का आश्वासन दिया है। चुनाव आयोग के मुताबिक, उसे ईवीएम खरीदने के लिए करीब 12,000 करोड़ रुपये और वीवीपीएटी मशीन के लिए 3,400 करोड़ रुपये उपलब्ध करा दिए गए हैं। इसके फायदे तो बहुत हैं, पर इसमें कई व्यावहारिक कठिनाइयां भी आएंगी। साल 1967 तक तो देश में चुनाव एक साथ ही होते रहे। बाद में गठबंधन सरकारों के गठन और उनके विघटन से पैदा हुए हालात में लोकसभा और विधानसभाओं में चुनाव अलग-अलग होने लगे। एक साथ चुनाव के लिए सबसे पहले सभी राजनीतिक दलों में सहमति बनानी होगी। आम धारणा है कि एक साथ चुनाव होने से क्षेत्रीय दलों को नुकसान होगा। एक साथ चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दे हावी रहेंगे, स्थानीय व क्षेत्रीय मसले गौण हो जाएंगे। हालांकि कुछ क्षेत्रीय दलों ने इस प्रस्ताव का समर्थन भी किया है।

एक साथ चुनाव के लिए ऐसी स्थितियां बनानी होंगी कि निर्वाचित सदन पांच साल का अपने कार्यकाल पूरा करें। इसके लिए संविधान में भी कई बदलाव करने पड़ेंगे। उन प्रावधानों को बदलना होगा, जिनके चलते सदन को भंग करके मध्यावधि चुनाव करवाए जाते हैं। अविश्वास प्रस्ताव के बारे में सोचना होगा। अविश्वास प्रस्ताव पारित होने पर सरकार को त्यागपत्र देना पड़ता है और नई सरकार नहीं बन पाने की स्थिति में मध्यावधि चुनाव की आशंका बनी रहती है। कभी-कभी चुनाव के बाद भी किसी दल अथवा गठबंधन को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने पर स्थाई सरकार का गठन मुमकिन नहीं हो पाता है। ऐसी स्थिति से बचने के लिए हम जर्मन संविधान की व्यवस्थाओं से सीख ले सकते हैं। जर्मनी में ‘अविश्वास मत के प्रस्ताव’ के स्थान पर ‘रचनात्मक अविश्वास मत के प्रस्ताव’ का प्रावधान किया गया है। वहां आम चुनाव के बाद जब सरकार गठित हो जाती है, तो वह तब तक काम करती है, जब तक कि किसी दूसरे वैकल्पिक सरकार की व्यवस्था नहीं हो जाती। यानी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव नहीं लाया जाता है, बल्कि किसी दूसरे नेता के नेतृत्व में नई सरकार के बहुमत का दावा पेश किया जाता है, जिससे एक सरकार गिरती है, तो उससे पहले दूसरी सरकार बनने की स्थिति रहती है। ऐसी प्रणाली भारत में भी लागू की जा सकती है। इसमें  अविश्वास प्रस्ताव तभी आ पाएगा, जब कोई वैकल्पिक सरकार बनाने का दावा हो। इससे लोकसभा व विधानसभा का पांच साल तक चलते रहना निश्चित हो जाएगा। 

कुछ खबरों के अनुसार, नीति आयोग और चुनाव आयोग कुछ विधानसभाओं के कार्यकाल को थोड़ा घटाकर या बढ़ाकर उनके चुनाव 2024 में लोकसभा चुनाव के साथ कराने के प्रश्न पर विचार कर रहा है। पर यह एक बार का मामला नहीं हो सकता। चुनाव के बाद विभिन्न राजनीतिक दलों के गठबंधन या उसके विघटन को अगर नियंत्रित नहीं किया गया, तो आगे उसी तरह की कठिनाइयां उत्पन्न हो सकती हैं। इसे एक बार की प्रक्रिया समझना भूल होगी। इसे विश्वसनीय, सरल व दोषरहित बनाने के लिए ऐसी व्यवस्था करनी होगी कि लोकसभा और विधानसभाएं हर सूरत में अपना कार्यकाल पूरा करें।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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