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आखिर अंधविश्वासों की गिरफ्त में क्यों हैं हम

पिछले 25 वर्षों से मैं हफ्ते के छह दिन सुबह-सुबह दौड़ लगाता रहा हूं। यहां तक कि यात्राओं के दौरान भी, जो मुझे अपने काम के सिलसिले में अक्सर करनी पड़ती हैं, सुबह की दौड़ लगाना नहीं भूलता। मुझे लगता है कि...

आखिर अंधविश्वासों की गिरफ्त में क्यों हैं हम
अनुराग बेहर सीईओ, अजीम प्रेमजी फाउंडेशनThu, 15 Feb 2018 10:41 PM
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पिछले 25 वर्षों से मैं हफ्ते के छह दिन सुबह-सुबह दौड़ लगाता रहा हूं। यहां तक कि यात्राओं के दौरान भी, जो मुझे अपने काम के सिलसिले में अक्सर करनी पड़ती हैं, सुबह की दौड़ लगाना नहीं भूलता। मुझे लगता है कि मैं देश की 300 से अधिक जगहों पर तो दौड़ ही चुका हूं। आप इसके लिए छोटे शहरों में तो आसानी से बढ़िया रास्ता पा सकते हैं, मगर बड़े शहरों की कहानी अलग है। उनमें सार्वजनिक जगहें लगभग गायब हो चुकी हैं। हमें उनके निर्माण या संरक्षण की कोई फिक्र भी नहीं है। ज्यादातर बड़े शहरों की सड़कें बेतरतीब और अव्यस्थित हालत में मिलती हैं। लेकिन जब मैं अपने गृह-नगर बेंगलुरु में होता हूं, तो सुबह की दौड़ एक आनंददायक एहसास देती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि गांधी कृषि विज्ञान केंद्र के नाम से मशहूर शहर के कृषि विश्वविद्यालय ने अपना 1,600 एकड़ में फैला खूबसूरत परिसर लोगों के लिए खोल रखा है। मेरी कामना है कि देश के ज्यादा से ज्यादा ऐसे संस्थान ऐसा कदम उठाएं, ताकि लोगों को ज्यादा से ज्यादा सार्वजनिक स्थल उपलब्ध हो सके।

किसी भी कामकाजी दिन की सुबह गांधी कृषि विज्ञान केंद्र में 200 से ज्यादा लोग सुबह की सैर करते हुए या फिर दौड़ते हुए मुझे मिलते हैं। उनमें से ज्यादातर मेरे जैसे, इस केंद्र के बाहर के शहरी ही होते हैं। सप्ताहांत में यह संख्या 400 के ऊपर पहुंच जाती है। लेकिन कुछ ऐसे भी दिन हैं, जब यहां आने वालों की तादाद आधी रह जाती है। कहते हैं कि दिवाली की अगली सुबह ऐसा होता है। लेकिन 22 जुलाई, 2009 की सुबह यहां आने वालों की संख्या में गिरावट अभूतपूर्व थी। मैं अमूमन सुबह छह बजे दौड़ता हूूं, और उस दिन गांधी कृषि विज्ञान केंद्र में उस वक्त महज दो लोग मुझे टहलते दिखे थे। चंद मिनटों की दौड़ के बाद मैंने पाया कि वहां कोई भी नहीं है। मुझे लगा कि मैं किसी महत्वपूर्ण खबर से वंचित हूं- शायद यहां कफ्र्यू लगा है। फिर पता चला कि आज पूर्ण सूर्य ग्रहण है। बेंगलुरु में इसका आंशिक रूप दिखा था, हालांकि वह एक बड़ी खगोलीय घटना थी। जल्द ही मुझे अपने अनुमान को फिर से परखने का मौका मिल गया। 15 जनवरी, 2010 को एक और सूर्य ग्रहण लगा। उस दिन भी मुझे सुबह की सैर से लोग नदारद दिखे।

भारत में आम जीवन तरह-तरह की भ्रांतियों का शिकार है। हर किसी के पास अपनी कहानी और अपने अंधविश्वास हैं, लेकिन गांधी कृषि विज्ञान केंद्र में सूर्य ग्रहण की सुबह की घटना में मैंने देश में पसरे तमाम अंधविश्वासों के बीच एक खास प्रतीकात्मक पहलू पाया। एक विज्ञान विश्वविद्यालय में सूर्य ग्रहण के नकारात्मक प्रभाव से जुड़े अंधविश्वास के आगे का वह समर्पण असाधारण था। एक आधुनिक टेक-सीटी में, उसमें भी विज्ञान विश्वविद्यालय में अंधविश्वास की ऐसी पकड़ हैरान करने वाली बात है। क्या यह अति-प्राकृतिक घटनाओं में यकीन से धर्म व संप्रदाय को अलग रखने में हमारी नाकामी का प्रतिफल है या हमारी उथली शिक्षा, खासकर लचर विज्ञान-शिक्षा का नतीजा? या शायद दोनों। वैज्ञानिक समझ, हैरानी के हमारे भाव को कोई नुकसान पहुंचाए बगैर अंधविश्वास और चमत्कार से भरी सोच को ध्वस्त कर सकती है। जिनकी धर्म में गहरी आस्था है, उन्हें तो सूर्य ग्रहण से डरने की जरूरत ही नहीं है। फिर जिन लोगों को इसे बेहतर समझना चाहिए, क्योंकि वे टेक्नोलॉजी व शोध विज्ञान के अध्येता है, वे भी समान रूप से अंधविश्वासों की गिरफ्त में दिखते हैं। ऐसे लोग आम लोगों से अलग नहीं दिखते।

हमारी शिक्षा की प्रकृति को देखते हुए यह सब कुछ आश्चर्यजनक नहीं है। हमारी स्कूली कक्षाएं द्वंद्व का शिकार हैं, क्योंकि वे हमारे शिक्षाकर्मियों की मान्यताओं से चालित हैं, जो हमारे शैक्षिक लक्ष्य से बिल्कुल अलग हैं। आखिर विज्ञान का एक शिक्षक कैसे असर डाल सकेगा, अगर वह स्वयं अवैज्ञानिक धारणाओं की गिरफ्त में हो? हालांकि इस लेख में मेरा जोर विज्ञान शिक्षा पर है, लेकिन इसी तरह के द्वंद्व लिंग, जाति, धर्म आदि पूर्वाग्रहों से प्रेरित शिक्षक की कक्षाओं में भी दिखता है। जब तक हम इस अंतर्विरोध को नहीं साधेंगे, हमारे समाज को विज्ञान व प्रौद्योगिकी का पूरा लाभ नहीं मिलेगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
 

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