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किताबें सीख सकती हैं बच्चों की इस चाहत से

हाल ही में चंडीगढ़ में एक पुस्तक मेले का आयोजन हुआ, तो वहां पंजाब विश्वविद्यालय और नेशनल बुक ट्रस्ट ने बच्चों की एक दो-दिवसीय कार्यशाला भी की। वहां पहुंचने वाले सभी बच्चे स्कूली यूनीफॉर्म में थे।...

किताबें सीख सकती हैं बच्चों की इस चाहत से
क्षमा शर्मा, वरिष्ठ पत्रकारFri, 14 Feb 2020 11:06 PM
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हाल ही में चंडीगढ़ में एक पुस्तक मेले का आयोजन हुआ, तो वहां पंजाब विश्वविद्यालय और नेशनल बुक ट्रस्ट ने बच्चों की एक दो-दिवसीय कार्यशाला भी की। वहां पहुंचने वाले सभी बच्चे स्कूली यूनीफॉर्म में थे। शिक्षिकाएं भी साथ थीं। एक दिलचस्प बात लड़कियों को देखकर लगी। ज्यादातर लड़कियों की दो चोटियां थीं, जिन्हें उन्होंने मोड़कर कान के पास बांधा हुआ था। रिबन के काले फूल दोनों ओर लगे थे। दिल्ली में इन दिनों शायद ही स्कूली बच्चियों की ऐसी चोटियां नजर आएं। 

ज्यादातर के बाल कटे ही दिखाई देते हैं। इन बच्चों से बातचीत करके, उनसे सवाल पूछकर, उन्हें तमाम गतिविधियों में शामिल करके काफी मजेदार निष्कर्ष निकले। बच्चों ने जिस तरह हर गतिविधि में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, उससे इस बात की पुष्टि हुई कि इस तरह की गतिविधियों से न केवल बच्चों, बल्कि उनमें बड़ों को भी बहुत कुछ सीखने को मिलता है। बच्चों के बारे में किताबें क्या कहती हैं, उसके मुकाबले बच्चों से साक्षात विचारों का आदान-प्रदान बहुत सी नई बातों को सामने लाता है। बच्चों की दुनिया कितनी बदल रही है और कहां नहीं बदली, यह भी बताता है। 

एक बच्ची ने बताया कि उसे मोबाइल फोन इस्तेमाल करना नहीं आता। उसके भाई को भी नहीं आता, क्योंकि मम्मी-पापा मोबाइल फोन नहीं देते। तो क्या दोस्तों के मोबाइल फोन इस्तेमाल नहीं कर सकते? इस पर बच्ची बोली कि नहीं मम्मी-पापा ने मना किया है, तो ऐसा क्यों करें? जब बच्चों से पूछा गया कि क्या उन्हें मम्मी की डांट पड़ती है? तो सभी बच्चों ने हाथ ही नहीं उठाया, वे मुंह छिपाकर हंसने भी लगे। लेकिन अगले सवाल का जवाब और भी दिलचस्प था। जब पूछा गया कि क्या उन्हें मम्मी-पापा की डांट बुरी लगती है, तो एक बच्चे के अलावा किसी ने हाथ नहीं उठाया। यानी बच्चों को पता था कि मम्मी-पापा की डांट के कोई मायने नहीं होते। यह भी सुनने को मिला कि सभी के मम्मी-पापा डांटते हैं, क्योंकि वे प्यार भी तो करते हैं। यही नहीं, बच्चों को अपने खेत-खलिहान, फसलों, जानवरों, चिड़ियों, पेड़-पौधों, फूलों और यहां तक कि पंछियों को डराने के लिए खेतों में लगाई जाने वाली मनुष्य की आकृति-बिजूका के बारे में भी मालूम था।

और अंत में हम आए मूल विषय पर, यानी बच्चों के पढ़ने की रुचियों पर। यह अक्सर कहा जाता है कि बच्चों को हंसी-मजाक की कहानियां ही पसंद आती हैं, लेकिन वहां मौजूद बच्चों ने इससे सहमति नहीं जताई। उन्होंने कहा कि उन्हें एडवेंचर स्टोरी, ग्राफिक उपन्यास, विज्ञान कथाएं, भूगोल की कथाएं, और सामान्य ज्ञान से संबंधित बातें पढ़ना बहुत अच्छा लगता है। बच्चों ने यह भी बताया कि आमतौर पर उनके माता-पिता ऐसे विषय पढ़ने से नहीं रोकते, हालांकि वे कहते हैं कि पहले स्कूल का काम खत्म करो, तब कुछ और पढ़ो। 

दुनिया भर के विशेषज्ञ भले ही कहते रहें कि इन दिनों बच्चे पढ़ते नहीं हैं, लेकिन यहां राय कुछ अलग ही दिखी। जिन बच्चों से इस कार्यशाला में बातचीत हो रही थी, उनमें से ज्यादातर पब्लिक स्कूलों में पढ़ते हैं। लेकिन वे अंग्रेजी के साथ-साथ अपनी मातृभाषा में लिखी पुस्तकें भी पढ़ना चाहते हैं। कई बच्चों से जब यह पूछा गया कि क्या वे फोन पर तमाम माध्यमों से आने वाली कहानियां, कविताएं आदि सुनते हैं, तो उन्होंने कहा कि उन्हें छपी हुई कहानियां ज्यादा अच्छी लगती हैं। वे उन्हें अपने पास रखते हैं और जब चाहें, पढ़ सकते हैं।

इसके बाद बच्चों को एक लाइन दी गई- सचिन ने चलाया बल्ला, और कविता के रूप में इसे आगे बढ़ाने को कहा गया। इस पर बच्चों ने खूब तुकबंदी की। इस तुकबंदी से जो बात सामने आई, वह यह थी कि हर बच्चा अपने विरोधी को परास्त करना चाहता था, विरोधी टीम के कैप्टन के होश उड़ा देना चाहता था। विरोधी से जीतने की उनकी ललक अभूतपूर्व थी। अपने देश को लेकर उनमें काफी आत्मगौरव और अभिमान का भाव था। एक विशेषज्ञ ने पूछा कि वे अपनी किताबें कहां रखते हैं, तब किसी ने कहा कि अपनी पढ़ने की मेज पर, तो कोई बोला कि बुक शेल्फ में। विशेषज्ञ ने सलाह दी कि उन्हें घर में किताबें वहां रखनी चाहिए, जहां वे ज्यादा से ज्यादा समय बिताते हैं। पर ये तो वे सब जानते थे कि किताबें अगर हर वक्त सामने हों, तो उन्हें पढ़ने का मन करता है। 
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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